Nisha Singh

Drama

4.7  

Nisha Singh

Drama

टाइम ट्रेवल (लेयर 3)

टाइम ट्रेवल (लेयर 3)

4 mins
176


सच ही कहा है जिसने भी कहा है कि जब आप सही रास्ते पर होते हैं सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना भी आपको तभी करना पड़ता है। मैं भी शायद सही रास्ते पर थी तभी तो एक और परेशानी ने मुझे रोक लिया था।

“कौन हो तुम? यहाँ कैसे आई ?”

सवाल सुन कर मैंने पलट कर देखा। और जो देखा तो बस देखती ही रह गई। क्या कहूँ? कौन था मेरे सामने? ये कोई इंसान तो कम से कम नहीं हो सकता। अगर मेरे अंदर की आधुनिकता आड़े ना आई होती तो उन्हें देवता समझ के मैंने उनके पैर छू लिये होते। सफेद बाल, सफेद कपड़े, चेहरे पर गजब का तेज़ और हाथ में चमचमाती हुई तलवार मुझे निरुत्तर करनेके लिये काफी थी।

मुझे जड़ हुआ देखकर वो मेरे सामने आ कर खड़े हो गये।

“कौन हो तुम?” इस बार उन्होंने कुछ सहज हो कर पूछा। शायद समझ गये होंगे कि मैं डर गई हूँ। पर तलवार अभी तक उनके हाथ में थी।

“जी, मैं वो... ” बड़ी मुश्किल से मैंने जवाब देने की कोशिश की ”मुझे एक बाबाजी मिले थे उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है।”

“बाबाजी? कौन बाबाजी थे? कैसे दिखते थे ?”

“जी, उन्होंने भी सफेद कपड़े पहने थे आपके जैसे। बाल आधे काले आधे सफेद थे और... ”

“और माथे पर चंदन का टीका था ?”

“हाँ था, चंदन का टीका भी था।”

मेरी बात सुनकर उन्होंने मुझे बड़े गौर से देखा। खासकर मेरे माथे की तरफ़, बिल्कुल वैसे ही जैसे उन बाबाजी ने देखा था। देखते देखते उन्हें ना जाने क्या मिला कि वो ज़ोर से हँस पड़े।

“क्या हुआ आप हँस क्यों रहे हो ?”

“हँस नहीं रहा हूँ, खुश हो रहा हूँ।”

“पर क्यों?”

“बताता हूँ। तुम्हारे सारे सवालों के जवाब भी देता हूँ पर पहले अंदर तो चलो।” कहते हुए उन्होंने अपनी तलवार अंदर रखी और मुझे अपने साथ ले गए।

स्वर्ग की कल्पना तो कभी की नहीं मैंने पर कभी करती तो बिल्कुल ऐसी ही हरियाली स्वर्ग के आसपास भी बनाती जैसी इस महल के चारों तरफ़ थी। एक बार को तो मैं भूल ही गई कि मैं यहाँ आई क्यों हूँ।

“आओ बेटी इस तरफ़...” चलते चलते उन्होंने दाहिनी ओर इशारा किया और मुझे उसी तरफ़ बने एक बड़े से पेड़ के पास ले गये।

“देखो भई तुम लोगों से मिलने कौन आया है?” वहीं पेड़ के नीचे बैठीं 2 महिलाओं के पास ले जाते हुए उन्होंने कहा।

“ये कौन है?” उनमें से एक ने पूछा।

“ये हमारे वंश के विशालकाय वृक्ष का एक सुंदर सा फूल है।”

“अच्छा... ”कहते हुए उन्होनें मुझे अपने पास बिठा लिया “बहुत सुंदर फूल है। क्या नाम है बेटी तुम्हारा?”

“मोहिनी, मोहिनी सिंह।”

“जितनी मोहिनी सूरत है वैसा ही नाम है दीदी इसका मोहिनी।”

“अच्छा... नज़र ना लगे मेरी बच्ची को।” कहते हुए उस दूसरी महिला ने मेरा माथा चूम लिया।

“आप दोनों कौन हैं माता?” अनजाने में मेरे मुँह से उन दोनों के लिये माता शब्द निकल गया।

“माता नहीं दादी, हम दोनों तुम्हारी दादी हैं।”

“दादी?” कहते हुए मैंने उन्हीं सफेद बालों वाले बाबाजी की तरफ़ देखा जो मुझे यहाँ लाये थे।

“अच्छा अब तुम अपनी दोनों दादी का आशीर्वाद लो और मेरे साथ चलो।”

“थोड़ी देर बैठने दीजिए ना अभी तो आई है बेचारी।”

“अभी नहीं, लौटते वक़्त अपनी बेटी को अपने पास बिठा लेना। और वैसे बहुत शरारती है ये बिल्कुल मेरे धनंजय की तरह। जब से आई है सवाल पे सवाल पूछे जा रही है। इसके सवालों के जवाब दे दूँ फिर तुम्हारे पास भेज दूँगा।”

अब वो मुझे अपने साथ बागीचे के दूसरी तरफ़ ले आये। यहाँ बैठने की अच्छी व्यवस्था थी। कुर्सियाँ तो बिल्कुल वैसी ही थीं जैसी फिल्मों में दिखाई जाती हैं सिंघासन जैसी।

“हाँ, तो पूछो। क्या जानना चाहती हो ?”

“पहले तो आप ये बताइये कि आप कौन हैं ? मैं यहाँ कैसे आ गई ? आप लोग मुझे कैसे जानते हो? वो दोनों कौन थीं?वो बाबाजी कौन थे जो मुझे पहले मिले और... ”

“अरे अरे... बस बस... प्रश्न एक एक कर के पूछने चाहिये।” मेरे सवालों की बारिश पे उन्होंने हँसते हुए कहा “जो भी पूछना है एक एक करके पूछो मैं तुम्हारे सारे प्रश्नों के उत्तर दूँगा। लेकिन...”

“लेकिन?”

“सिर्फ़ तब तक जब तक कि तुम सो नहीं जातीं। अगर प्रश्न पूछते पूछते तुम सो गईं फिर किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा।”

मुझे अपने सवालों के जवाब के लिये उनकी सारी शर्तें मंज़ूर थीं।

“ठीक है। पहले आप ये बताइये कि मैं हूँ कहाँ ?”

“हस्तिनापुर में” उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

हस्तिनापुर... ये कैसा मज़ाक था। ये तो हो ही नहीं सकता। मैं तो हस्तिनापुर की तरफ जा ही नहीं रही थी पहुँच कैसे सकती हूँ ?


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