"तर्पण"
"तर्पण"
सुबह का समय था, पक्षी चहचहा रहे थे। पक्षी अपने घोंसलों से निकल कतारबद्ध अपने गंतव्य पर जा रहे थे। देख कर लग रहा था - काश ! इंसान में भी इतना अपनापन और अनुशासन होता। उन्हें देखकर अनायास ही मेरी आँखें भर आयी, क्योंकि आज मम्मी - पापा का श्राद्ध था। आज से पाँच साल पहले ही दोनों एक हादसे का शिकार हो गये और हमें अनाथ करके चलें गये। हम यतीमों की तरह उनके प्यार और स्नेह के लिये तरसने लगें। मैंने अपना सिर मालती आंटी की गोद में रखा और फूट - फूट कर रो पड़ा। मेरा मन हल्का हो रहा था और वह अपनापन और आत्मीयता पाकर भाव विभोर हो रहीं थी। मेरी आँखों के सामने वो मंजर उभर आया जब मैं और सुनील छोटे थे और सहपाठी थे। जब तक हम अनन्य मित्र थे तब तक हम अपने सुख - दुःख की बातें आपस में बाँट लेते थे अन्यथा हमें रोटी हज़म नहीं होती थी या यों कहें कि हमारे मन की पीड़ा तभी हल्की होती थी जब हम अपने मन की बात एक - दूसरे को बता देते थे।
सुनील के पिता और मेरे पिता दोनों दोस्त थे और एक ही कंपनी में काम करते थे। यदा - कदा मेरे पिता सुनील के घर जाते तो सुनील की मम्मी को सम्बोधन करके कहते - अरे भाभी ! ये नालायक तो कभी घर आने का न्यौता देता नहीं, आप ही कभी - कभार बुला लिया करो। आपके हाथ की चाय की प्याली सारी थकान दूर कर देती है और आपकी मुस्कान के तो क्या कहने। हमारा दोस्त बहुत किस्मत वाला है, जो आप जैसी बीवी उसे मिली। हमें तो भई रश्क होता है अनिल के भाग्य से और मालती हँसी में टाल देती। ऐसे ही समय निकल गया और हम जवान हो गये।
एक दिन अनिल अंकल जब स्कूटर से घर आ रहे थे तो किसी बेक़ाबू कार ने उन्हें टक्कर मार दी और वह उछल कर सड़क पर गिरे। तेज़ रफ्तार में आती हुई बस ने उन्हें कुचल दिया। हँसता - खेलता परिवार एक मिनट में ही तबाह हो गया। पिता जी और मम्मी ने जैसे ही सुना वे सन रह गये और हिम्मत करके जैसे - तैसे वहाँ पहुँचे। आखिरकार अंतिम संस्कार कर दिया गया। सुनील और मालती आंटी का रो - रोकर बुरा हाल था। घर में वीरानी छा गयी। मम्मी - पिताजी ने कहा कि हम आते - जाते रहेंगे, अगर किसी चीज़ की भी जरूरत हो तो बता देना। खैर दो - चार महीने कश मकश में ऐसे ही बीत गये।
कंपनी की तरफ से मालती आंटी को नौकरी का ऑफर दिया गया। परंतु उसने कहा कि मैं इस उम्र में अब क्या नौकरी करूँगी। यह नौकरी सुनील को ही दे दो। वह यह बात नहीं जानती थी कि वह अपने पैरों पर अपने आप ही कुल्हाड़ी मार रही है। सुनील को अपने पिता के स्थान पर नौकरी मिल गयी। धीरे - धीरे समय पंख लगाकर उड़ने लगा। मालती आंटी ने अपनी सारी खुशियाँ सुनील की खुशियों में ढूँढ ली। वह भी अपनी गृहस्थी
में व्यस्त हो गया और मैं भी। अब मैं रेलवे में कार्यरत था, मेरा तबादला अहमदाबाद हो गया था। आठ - दस साल कब बीत गये, पता ही नहीं चला। अब मैं वापस अपने शहर चण्डीगढ़ आ चुका था। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न अपने पुराने साथी सुनील से मिला जाये, परन्तु यह क्या - उसके घर की जगह मल्टीप्लेक्स बन चुका था। बहुत ढूँढ़ने पर भी मुझे उनका पता नहीं मिल पाया।
टाइम निकलता गया, आज मेरे माता - पिता का श्राद्ध था। मेरी बीवी ने कहा कि अब की बार हम अनाथालय की जगह वृद्धाश्रम चलेंगे, ताकि मम्मी - पापा की आत्मा को शान्ति मिले और बड़े - बुज़ुर्गों का आशीर्वाद भी। मैं, मेरा बेटा विवेक और मधु खाना और कपड़े लेकर वृद्धाश्रम पहुँचे। हम जब कपड़े - खाना दे ही रहें थे कि मेरी नज़र एक बुज़ुर्ग महिला पर जाकर टिक गयी। मुझे वह मालती आंटी जैसी नज़र आ रहीं थी। परन्तु मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। मेरा कलेजा उनको देखकर घबरा रहा था। मैं हिम्मत करके उनके समक्ष गया और उनके चरण स्पर्श करके गले से लगा लिया। मेरा स्पर्श पाकर वह सिसकने लगीं और उनकी आँखों से अविरल आँसुओं की धारा बह निकली, जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
मैंने कहा - आंटी ! आप यहाँ कैसे ? सुनील जैसा लड़का इतना निर्दयी कैसे हो सकता है जो आपको वृद्धाश्रम में छोड़ दे। मालती आंटी ने कहा - बेटा, उसका कोई कसूर नहीं, वह हज़ारों साल जिये, मैं ही रोज़ - रोज़ की चिक - चिक से तंग होकर यहाँ आ गयी। मैं सुनील और उसकी गृहस्थी के बीच दरार का कारण नहीं बनना चाह रही थी।
मैं सोचने पर मजबूर था कि धन्य है वह भारतीय माँ, जो इस हालत में भी अपने बेटे को दुआएं दे रहीं हैं। मैंने मधु से कहा - हमारा असली तर्पण तभी होगा, जब हम मालती आंटी को अपने साथ रखें और उनको वहीं मान - सम्मान दें, जिनकी वो हकदार हैं। मधु ने हल्की हँसी के साथ मेरी हाँ में हाँ मिलायी। मैंने मालती आंटी का सामान उठाया और मधु ने उनका हाथ थामा। वह रो - रो कर गिड़गिड़ा रहीं थी और कह रही थी - अरे बेटा ! अगर मोहल्ले को पता चलेगा तो मेरे बेटे का नाम ख़राब होगा। समाज उस पर थू - थू करेगा और उसकी इज़्ज़त पर बट्टा लगेगा।
मैंने कहा - आंटी ! आप किस बेटे की इज़्ज़त की बात कर रहीं हो, जिसके लिये आप जीते - जी मर गयी। उसे आपकी कोई परवाह नहीं हैं और आप उसकी इज़्ज़त की परवाह कर रहीं हो। जिस बेटे सुनील के लिये आपने अपनी ज़िन्दगी होम दी, उस बेटे ने आपको वृद्धाश्रम में मरने के लिये छोड़ दिया। लानत है ऐसे बेटे पर। यह कहकर मधु और विवेक मालती आंटी का हाथ पकड़कर अपने घरौंदे की ओर चल दिये। उनके दिल को "सुकून " था कि उन्होंने आज वास्तव में तर्पण किया।