तर्पण
तर्पण


दीना-"मंगलू काका काहे उघारे छज्जे पे खड़े हो ।होरोना उ का कोइरौना फैला है।"
मंगलू-" इ सरीर जलते जेठ और ठिठुरत पूस की देन बा कोइरौना से नाही भूख से बेजार बा।"
दीना -"हां काका सब सुबेरे जात ह मोटापा कम करे खातिर पर हम जाई था पेट का गड्ढा भरे खातीर।"
मंगलू-" ए दीना जिंदा रहब बहुत जरूरी बा मरब तो चिता खातिर हजार रुपए के देसी घी चाहि । हमारे बेटवा पास अ दो धैला नही है । हजार रुपया कहां से आई हमार चिता जलाई खातिर।"
दीना- "भवानी माई पेट तो दिए हैं हाथ पैर भी दिए हैं जब तक जियब काम कर के खाइब भीख नहीं मांगब अब चाहे कोइरौनाहो चाहे होरोना हो ।"
दीना से बस यही बात हुई थी मंगलू की। दीना यही सोच रहा था कि काका को खुद के चिता की भी चिंता थी। पर आज काका चल बसे इस गरीबी में बेटे ने किसी तरह से अंतिम क्रिया की। आज तर्पण कर आखिरी काम भी होना उस दिन चिता के लिए चन्दा लगा कर सब काम किया गया।आज भी खीर पूड़ी बननी है।लेकिन इतना कर पाना भी मुश्किल है।वैसे पंडित जी ने बोला है कि एक लोटा दूध और एक कटोरा आटा का दान भी तर्पण के लिए पयाप्त है। मंगलू के बेटे को इतना इंतजाम तो करना पड़ेगा। और इतना इंतज़ाम हम
खुद भी कर दे आखिर काका तो हमारे भी थे।यही सोच के सबसे अच्छी गाय का दूध नए लोटे में भर के और आटा ले कर मंगलू के बेटे लखनवा के साथ पंडित जी के घर जाना है।
"ए लखनवा चल पंडित जी के दान दे दिया जाय।"
"दीना भइया आपका बड़ा उपकार जो दान का सामान लाये। चला भइया चला नाही त बच्चन दूध देख के मांगे लगिये।"
"हाँ भइया अरे पंडित जी के घर बड़ी भीड़ है।"
"पंडित जी ओ पंडित जी हम लोग दान का सामान लाये है काका का श्राद्ध का।"
पंडित जी ने देखा और अनमने ढंग से बोला "यही रुंको अभी आता हूं।अंदर अपनी पत्नी से बोले वो दूध और आटा लाया है ले लो ।"पंडिताइन बोली "ई बताइये उसका आटा का रोटी कौन खायेगा और दूध तो बच्चे भी न देखेंगे ।"पंडित बोले तो का करें"सुनो उससे ले लो फिर सोचते हैं।"दान दे कर दीना और लखन खड़े है।पंडित जी ने उनको रुकने को बोला है, घर मे आते ही पत्नी से बोले "सुनो ये दान का समान उनदोनो को लौटा दो और कह दो उनके काका का प्रसाद है।"
"कौन छुए इस कोरोना के समय इस समान को।"
दीना और लखन प्रसाद पा के खुश थे।आज बच्चे दूध भी पियेंगे रोटी भी खाएंगे।मंगलू भी ऊपर से आशीष दे रहे।