बैरी चाँद
बैरी चाँद


पूर्णिमा का चाँद
आज किटी में अंताक्षरी का प्रोग्राम है। मेरा मन नही है जाने का अब मुझे गाने अच्छे ही नही लगते। बस सब बुरा न मान जाये यही सोच कर जा रही हूँ।अंदर पहुचने के पहले ही चहल पहल सुनाई दे रही थी। दरवाज़े के कोने से ही देखा वहां गीता भाभी अपनी मीठी आवाज़ में गा रही थी।
नीले नीले अम्बर पर, चाँद जब आये
प्यार बरसाए, हमको तरसाये
मन किया वापस हो जाऊँ पर मेरे पैर जम गए वही दरवाज़े के किनारे खड़ी हो कर सोचने लगी।
इस गाने से कितनी यादें जुड़ी हैं। सब कल की ही बात लगती है उसका अपनी छत से ये गाना गुनगुनाना और मेरा मुँडेर पर सिर टिका के गाना सुनना।
हम बातें भी कहाँ किया करते थे कभी वो कुछ गा देता कभी मैं कुछ गुनगुना देती। लेकिन दोनों के दिल बखूबी जानते थे कि ये गाने एक दूसर
े के लिए ही तो थे। मेरा खामोश रहना और उसका अनगढ़ से मुस्कुराना, मेरा नज़रे झुकाना उसका यूँ बेताब हो जाना, पहली बार जब उसने मेरा हाथ थामा मैं खुद से भागने लगी थी। मैं रेत सी थी और वो हवा की तरह उसके बहाव में बहना उसके ठहरने में ठहरना।
जब भी मिलता चाँद तारों की बातें करता और उसका चेहरा सूरज से दमकता। हमेशा मुझसे कहता पूर्णिमा तुम और हम मिलेंगे तभी पूरणमासी का चाँद कहलाओगी तुम। हम दोनों एक दूसरे के बिन कम पूरे हैं।
सही कहता था वो मैं आज भी पूरे से ज़रा कम हूँ मैं चाँद आज भी हूँ पर एकादशी का और वो चतुर्थी का चाँद।
पूजा उसकी भी होगी मेरी भी लेकिन हम साथ हो कर पूनम हो सकते थे।
लेकिन न वो अपना पक्ष बदलने को तैयार था न ही मैं।
सुना है वो भी कहीं अफसर हो गया। कहता था तुम एकदम दिन अफ़सर की पत्नी बनोगी।
सच कहा था उसने लेकिन मेरा चाँद बदल गया।