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sukesh mishra

Abstract Tragedy Classics

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sukesh mishra

Abstract Tragedy Classics

तितली

तितली

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अपने कमरे का दरवाजा खोल कर मै बिलकुल निढाल होकर चारपाई पर बिखर गया. हर दिन ऐसा ही होता था.सुबह से शाम तक मैं हाड़तोड़ मेहनत करता था और फिर लगभग मुर्दा हो चुके अपने बदन को किसी तरह ढोते हुए अपने कमरे में आकर ढेर हो जाता था।

मैं एक कंपनी में सेल्समैन हूं।पढ़-लिख कर कोई ढंग की नौकरी नहीं मिली तो हारकर जो मिली उसे ही कर लिया।यहां मुझे हर दिन,महीने,साल ..... या यूं कहें कि प्रत्येक घंटे और मिनट के लिए टारगेट दिया जाता है..ऐसा लक्ष्य जिसे पूरा करना असंभव की सीमा तक कठिन होता है...और हर दिन लक्ष्य को न पा सकने के लिए सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाता है।लेकिन इन सब को सहने के सिवाय दूसरा कोई उपाय भी तो दूर-दूर तक नजर नहीं आता। महीने भर इन तमाम तरह की दुश्वारियां झेलने के बाद भी इतना ही मिल पाता है कि किसी तरह गुजारा कर सकूं।

कुछ देर तक निस्पंद सा पड़े रहने के बाद मैं उठा।सारे कमरे पर निगाह दौड़ाई। सब कुछ अव्यवस्थित सा था। झूठे बर्तन स्टोव के आस-पास बिखरे पड़े थे। मेरे सारे कपड़ों का बोझ नहीं सम्हाल पाने की वजह से कांटी कपड़ों के साथ जमीन पर गिर गई थी। कमरे में जहां-तहां काक्रोच घूम रहे थे।चावल की पोटली में,आटा में, कटोरी में, तेल की शीशी में .... हर जगह उनकी मौजूदगी थी।

मैं किसी तरह उठ बैठा, बाहर के नलके पर जाकर बर्तन धोना होगा,पानी लाना होगा तभी रात के लिए कुछ बना पाऊंगा।

मुझे बाहर सार्वजनिक नलके पर बर्तन और कपड़े धोने और नहाने में बहुत शर्म आती थी, वहां हमेशा औरतों की भीड़ लगी रहती थी।लेकिन क्या करता?इस मुहल्ले में सब ऐसा ही करते थे। यहां कमरे का किराया अन्य मुहल्लों की अपेक्षा काफी कम था,परंतु कोई सुविधा भी नही थी।मधुमक्खी के छत्तों की तरह चारों ओर एक-एक कमरों के दड़बे बने हुए थे जिनके दरवाजे एक छोटे से आंगन में खुलते थे, वहीं एक सार्वजनिक नलका और शौचालय बना हुआ था, जिसका सभी इस्तेमाल करते थे। मैं तो फिर भी अपने कमरे में अकेला रहता था,लेकिन बहुत से लोग अपने पूरे कुनबे के साथ उसी एक-एक कमरे में रहते थे।वहां रहने वाले ज्यादातर लोग रिक्शे-ठेले वाले, मजदूर, कसाई, नाई, फल बेचने वाले और ऐसे ही छोटे-मोटे काम करने वाले लोग थे। ज्यादातर वे रात को अपने काम से वापिस आते समय रास्ते में कहीं किसी ठेके पे जी भर के शराब पी कर आते थे,पत्नियों बच्चों को मारते-पीटते थे या फिर अपने पड़ोसियों से छोटी-छोटी बातों में लड़ा करते थे।

शुरू-शुरू में तो मैं वहां का माहौल देख कर बुरी तरह विचलित हो जाता था।लेकिन समय के साथ में इन सब चीजों का आदी हो चुका था। वैसे वहां मेरी किसी से कोई खास बातचीत नहीं होती थी,परंतु कभी कभी पड़ोस के घर की एक बालिका मेरे कमरे में आ जाती थी और उत्सुक नजरों से मेरे बिखरे से कमरे को देखती रहती थी, वो मुश्किल से सात-आठ बरस की रही होगी। पहले तो वो मेरे डर से खिड़की से चकित नेत्रों से मेरे कमरे का मुआयना करती रहती थी।फिर मुझे कुछ न कहता हुआ पा कर उसकी हिम्मत थोड़ी बड़ी और अब वो जब भी खुला दरवाजा देखती तो धीरे से अंदर आ जाती, बिखरी हुई वस्तुओं को उलट-पलट के चाव से देखती,और मैं उसे ऐसा करते हुए देख करता था।

एक दिन उसे ऐसे ही बिखरे हुए समानो में मग्न देखकर मैंने उससे पूछा, ' नाम क्या है तुम्हारा ?' बिखरे बालों वाली गुड़िया की तरह उसने मेरी ओर देखा, फिर तुरंत ही उठकर भाग गई।

अब तो मानो यह रोज का ही नियम हो गया, वह खेलने आती, मैं उससे नाम पूछता और वो भाग जाती।धीरे-धीरे वो मेरे इस नाम पूछने की आदी हो गई।अब मेरे पूछने पर भी वो जवाब न देती...न ही देखती...,बस, चुपचाप खेलती रहती।

मेरी जिंदगी की सारी खुशियों की चाभी अब वही हो गई थी, मुझे काम से आने के बाद और छुट्टियों के दिन उसके आने का बेसब्री से इंतजार रहता था। वह भी धीरे-धीरे मुझसे घुल-मिल गई थी।मैं आता तो वो मुझे कभी-कभी दरवाजे पे इंतजार करती हुई मिलती, मैं अब उसके लिए हमेशा कुछ न कुछ लेकर आता था...खासकर उसकी पसंद की चॉकलेट।

महीना भर पहले मुझे कंपनी की तरफ से पंद्रह दिनों के लिए लखनऊ भेजा गया।जाते वक्त मैंने उससे कहा कि इस बार मैं उसके लिए ढेर सारी चॉकलेट और खिलौने लाऊंगा।वह खुश हो गई। बदले में मैने शर्त रखी कि उसे उसका नाम बताना होगा।उसने मुस्कुरा कर अपनी सहमति दे दी।

अगले कई दिनों तक मैं लखनऊ में कंपनी के काम से बहुत व्यस्त रहा, वहां से जिस दिन मुझे लौटना था उस दिन मुझे लग रहा था कि कहीं कुछ छूट रहा है।दिमाग पे जोर देने पर मुझे याद आया की मैंने उससे खिलौने और चॉकलेट लाने का वादा किया है। मेरे प्राणों में जैसे बिजली दौड़ गई। झटपट मैं बाजार गया और मेरी समझ से जो उसको पसंद आते वैसे खिलौने और बहुत सारी चॉकलेट लेकर वापिस चल पड़ा।

जब मैं अपने कमरे पर पहुंचा तो वहां आंगन में बहुत सारे लोग जमा थे, सब आपस में धीरे-धीरे बात कर रहे थे।माहौल गमगीन था।अज्ञात आशंका से मेरा जी धड़क उठा।मैंने पास जाकर अपने बगल में रहने वाले चंदर नाई से घटना के विषय में पूछा तो उसने बताया कि तितली मर गई।

'कौन तितली?'

उसने अजीब सी निगाहों से मुझे देखा -- हद है,आप नही जानते उसे?एक वो ही तो आपकी दोस्त थी यहां, जो रोज आपके साथ खेलती रहती थी' मेरे अंदर से लगा जैसे किसी ने सारे प्राण को खींच लिया हो।

आगे वह नजर आई, ओसारे पे बेसुध सी पड़ी थी।बाल बिखरे,चेहरा मुरझाया, होंठ काले,.....लेकिन निस्तेज आंखें अब भी मेरी ओर देख रही थी, मानो जैसे उसे मेरा ही इंतजार हो और कह रही हो की 'अब तो नाम जान गए,अब मेरे खिलौने और चॉकलेट मुझे दे दो'।


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