स्वीकारोक्ति
स्वीकारोक्ति


आज मन में बहुत कुछ घुमड़ रहा है। सोचता हूँ ; क्या तुम वही हो दुबली पतली एक चुलबुली लड़की जिसे में ब्याहकर लाया था।शहर की पढ़ी लिखी लड़की होकर भी गाँव के कल्चर को अपनाया । अपने चेहरे को घूंघट की आड़ में रखे जब तुम सामने आती थी। तो बहुत प्यार आता था, और तब भी जब इशारों में बात करती थी।कितनी आसानी से तुम सब सीखने समझने और घर की जिम्मेदारी उठाना सीख गई थी।माँ की आदत से तुम ही नहीं सब परेशान थे ।लेकिन फिर भी तुम ओर में मिलकर टेकल करते ही थे।
पता ही नहीं चला कब में दो बच्चों का पिता बन गया और तुम उतार चढ़ाव से भरी जिंदगी को एडजस्ट करने में लग गई। आसान नहीं था! ये टकराव ओर फिर भी एक दूसरे को मनाकर एक दूजे में खो जाना।अगर नाराजी होती तो नींद भी नहीं आती थी ;जब तक दोनो एक दूसरे के पहलू में न हों।तुम सचमुच किसी दैवीय शक्ति से पूर्ण थी। लेकिन कहते हैं न बुरा समय आता है तो सबसे पहले बुद्धि और विवेक को हर लेता है।
शायद यही हमारे जीवन में हुआ। पता ही नहीं चला कब में बाहरी आकर्षण ओर पैसे की चकाचोंध में अपनी नजरों को धुंधला करता चला गया। और फिर जीवन में शुरू हुआ टकराव ।
धीरे धीरे पारिवारिक विघटन की शुरुआत होने लगी,ओर तुम्हारी स्थिति मानसिक विक्षिप्तता की बढ़ने लगी। लेकिन आज सोचता हूँ कि क्या मानसिक विक्षिप्त भी किसी को इतनी शिद्दत से प्यार कर सकते है। हाँ शायद में अपने उस सौभाग्य को भी ठोकर ही मार रहा था। लेकिन तब भी मेरा एक निर्णय जो आज भी कायम है बहुत ही सराहनीय लगा। कि तुमने भी लाख कोशिश की; फिर भी में तुमको अपने से दूर नहीं कर पाया और न ही कभी उस बारे में सोचा।
मेरे स्वभाव की जिन कमियों की तरफ तुम्हारा ध्यान नहीं गया वो यही थी कि कोई भी थोड़ा सा प्यार और लाग लपेट कर के अपने मोहपाश में ले सकता था।
तुम्हारा अटूट भरोसा ही में तोड़ बैठा था या की तुमसे दूरी बर्दाश्त नहीं कर पाया और अपने ही विभाग की रमा के प्रेम जाल में अपनी सारी मर्यादा भंग कर बैठा,दीवानगी की हद तक उससे प्रेम या ये कहूँ कि उसका आकर्षण। हाँ आकर्षण ही था। क्यों कि प्रेम तो सिर्फ तुमसे था जो दिल के किसी कोने में छिप गया था। उसका मेरे जीवन में आना गृह क्लेश लाया था। बच्चों के सामने रोज रोज का क्लेश उनकी मानसिक स्थिति को भी मरोड़ रहा था।
देखते देखते अठारह वर्ष निकल गए उतार चढ़ाव के संग ओर एक दिन रमा ने दूसरी शादी कर मुझसे नाता तोड़ लिया, उसके पीछे भी कारण था। मेरे जीवन में एक ओर स्त्री का आगमन ! मैं समझ नहीं पाया कि ये सब मैनें क्यों किया ? वो तीसरी औरत गजब अपने शिकंजे में ले बैठी थी। मैं उसके इशारों पर किसी बंदर की तरह नाचता था। में उच्च अधिकारी था वो एक छोटी क्लर्क होकर भी मैं हर समय उसके आदेश पालन में उपस्थित था। उसका पति बच्चे गृहस्थी सब थी लेकिन उसने कहा कि तुम मेरे पति हो और में उसे अपनी पत्नी का दर्जा दे बैठा। तुमसे कब तक झूठ छिपता आखिर सच्चाई सामने आ ही गई।
मुझे बाद में पता चला कि रमा ने ही तुम्हें बताया मेरे ओर उषा के सम्बंध के बारे में ओर ये भी कहा जो आदमी एक औरत का नहीं हो सकता वो किसी का नहीं हो सकता। मैं शादी कर रही हूँ आप अपने पति को सम्हालो! उफ्फ्फ उस समय फिर एक झटका लगा था तुम्हें ,अब नफरत होने लगी थी तुम्हें मुझसे उसका असर देखने को मिला भी ,तुमने सिर्फ बच्चों को बड़ा करने तक बर्दाश्त किया। उसके बाद मेरी माँ बाबूजी ओर भाई बहनों से बिल्कुल कट गई उस गांव और घर को तुमने त्याग दिया जो मुझे बहुत प्रिय था। हर रिश्ते नाते से दूर तुम बिल्कुल खुद में सिमट गई।कभी कभी लगता था कि तुम बहुत गलत कर रही हो। गलतियां मैनें की ओर बदला मेरे परिवार से! तब तुम कहती -" आपके परिवार का सपोर्ट न होता तो आप ऐसा नहींं करते।"
सबकुछ बिखर रहा था मेरे अंदर कहाँ चूक गया बच्चों के प्रति हर फर्ज को निभाया । तुम्हारे साथ भी कुछ गलत नहीं किया, हां अपनी गलतियों का जिम्मेदार मैं था? लेकिन मेरे ये तर्क तुम्हें रास नहीं आते थे। तुमने ही फिर मुझे गलत साबित कर दिया..."पति पत्नी में कुछ निजी नहीं होता है एक का असर दूसरे पर बल्कि परिवार पर पड़ता है।" शायद तुम्हारी भावनात्मक गहराई थी तुम्हारे तर्क का कारण।
एक बात जिसे शायद सम्भव बनाना बहुत मुश्किल था,लेकिन तुमने वो कर दिया।
बच्चों के ससुराल वाले यहाँ तक कि बहु को भी पता नहीं लगने दिया कि हमारे सम्बन्ध अब उतने नजदीकी नहीं रहे। वही परवाह,चिंता,देखभाल और निभाने की तकरीर गज्जब का अभिनय करती रही जीवन भर।तुम्हारे त्याग समर्पण और प्यार ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया,कि अगर तुम नहीं होती तो हमारा परिवार नहीं होता। ये घर नहीं होता।काश तुम्हारे सामने मेरी ये स्वीकारोक्ति होती।!