स्वामी विवेकानंद जी एवं शिक्षा
स्वामी विवेकानंद जी एवं शिक्षा
पूज्य स्वामी विवेकानंद असीम ऊर्जा, विराट विद्वता एवं आदर्श भारत के अद्भुत संगम थे। असीम एवं रहस्मयी ऊर्जा उन्हें अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिली थी जबकि विराट विद्वत्ता का स्रोत भारतीय ऋषियों द्वारा युगों युगों से विकसित विराट विरासत है। उनके मन-मस्तिष्क में भारत के स्वर्णिम अतीत तो अंकित था ही साथ ही साथ उनके दिलों में अपने युगों के पराधीनता की पीड़ा और उसके फलस्वरूप घटित आर्थिक दुर्दशा, सांस्कृतिक अध:पतन और सामाजिक विघटन से भी चिंतित थे जो उनके ओजस्वी कथनों से पता चलता है।
वे देश के नागरिकों में अपनी संस्कृति के महानता के प्रति सम्मान की भावना एव नागरिको में राष्ट्रीय विकास की भावना को जागृत करने के लिए उन्हें शिक्षित करना चाहते थे। वे वर्तमान शिक्षा के विरोधी तो नहीं थे किंतु वे समर्थक भी नही थे। क्योंकि उनका मानना था कि वर्तमान शिक्षा से लोगों में आर्थिक विकास तो हो जाएगा लेकिन उनमें नैतिकता नहीं रहेगी, जिस राष्ट्र के नागरिकों में नैतिकता नहीं होगी तो वहाँ के नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना मर जाएगी। इसलिए वे शिक्षा के माध्यम से भारत वासियों में दो तरह के ज्ञान कि आवश्यकता दर्शाये है।
क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही ज्ञान का विकास होता है, इसलिए उन्होंने शिक्षा से दो तरह का ज्ञान, पहला सांसारिक ज्ञान और दूसरा आधात्मिक ज्ञान अर्जित करना जरूरी बताया। क्योंकि की वे अक्सर कहा करते थे कि रोटी का प्रश्न हल किये बिना भूखे व्यक्ति धार्मिक नहीं बनाये जा सकते है। इस लिए उन्होंने रोटी का प्रश्न हल करना सबसे मुख्य एवं पहला कर्तव्य बताया किन्तु इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि रोटी की समस्या हल होने के पश्चात लोगों में दुर्गुणों का समावेश हो जाता है।
क्योंकि मनुष्य में आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होने के पश्चात उनमें समाहित होने वाले अवगुणों को दूर रखने तथा उनमें समाज सेवा के गुण समाहित करने हेतु आधयात्मिक ज्ञान बहुत ही जरूरी है। इसलिए उनका मानना था कि सांसारिक ज्ञान के बिना आज के इस परिवेश में आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ नही किया जा सकता है। वही आध्यात्मिक ज्ञान के बिना लोगों में समाज सेवा और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण संभव नहीं है। क्योंकि वर्तमान परिवेश में आर्थिक सम्पन्नता मनुष्यों को अपने नैतिक मूल्यों से दूर और बहुत दूर ले जाती है।
हावर्ड विश्व विद्यालय के एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि अमूर्त अद्वैत का हमारे दैनिक जीवन में जीवंत काव्यात्मक के साथ गद्यात्मक रूप में भी पहुँचना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अत्यधिक जटिल धार्मिकता/ आध्यत्मिकता में से मूर्त नैतिक रूप निकलने चाहिए। इस प्रकार वे अपने नव्य वेदांत दर्शन में आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं समकालीन विचारो को स्थान दिया। क्योंकि उनका मानना था कि कोई राष्ट्र अपनी स्वाभाविक जीवन धारा एवं शक्ति को छोड़ देने की कोशिश भी करता है तो वो राष्ट्र काल-कवलित हो जाएगा। इसलिए स्वामी जी आजीवन आध्यत्मिकता को भारतीय जीवन, समाज और राष्ट्र का प्रधान स्वर मानते रहे।