भजन की आड़ में भोजन
भजन की आड़ में भोजन
एक समय की बात है एक पंडित जी अपने यजमान के यहाँ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा कह रहे थे उसी कथा में श्रोता के रुप में एक सक्षम नाम का ग्वाला भी कथा का श्रवण कर रहा था, कथा के समापन के बाद प्रसाद वितरण हुआ तत्पश्चात सक्षम के ह्रदय से भाव उत्पन्न हुआ कि क्यों ना वो भी अपने घर पे सत्यनारायण भगवान की कथा का आयोजन करें। इसको मूर्त रूप देने के लिए वो पंडित जी से बात किया कि वो भी भगवान की पूजा का स्वेच्छा पूर्वक आयोजन करवाना चाहता है। ये बात सुनकर पंडित जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बोलते है कि "ठीक है यजमान मैं कथा का वाचन आपके यहाँ करूँगा ये बोलते हुए वे पूजन एवं प्रसाद सामग्री की एक लंबा चौड़ा लिस्ट सक्षम को सौंपते हुए बोलते है कि यह सारी सामग्री अगले शुक्रवार को सुबह नौ बजे तक तैयार रखियेगा।" इतना बोल कर पंडित जी अपने निज ग्राम को चल दिये और सक्षम भी अपने घर हँसी खुशी चल दिये, घर जा कर पंडित जी के तरफ से कथा हेतु मिले स्वीकृति को अपनी पत्नी से बताया एवं कथा के दिन ससमय प्रासाद सामग्री तैयार करने को बोला कर वो अपने काम मे लग गया.
कथा के दिन सक्षम ग्वाला की पत्नी कथा हेतु प्रसाद तैयार कर सूचना देती है और वो सभी तैयार प्रसाद सामग्री कथा से पहले ही खा जाता है इतने में ही दरवाजे से सक्षम के बड़ा भाई आवाज लगाते है कि पंडित जी आये है इतने में वह बोलता है कि उनको दलान वाले बिछावन पे बैठाईये, लेकिन दरवाजे पे बिछावन नही होता है तो बड़ा भाई बोलता है कि "बिछावन नही तो क्या पंडित जी को ठेंगा पे बिठाये", ये सुनकर पंडित जी थोड़े अकचाये की येसे भी कोई बोलता है इतने में फिर से सक्षम के बड़े भाई दरवाजे से ही पूछते है कि "उनको कुछ खाने को लाइये" वह फिर से बोलता है कि "प्रसाद सब खत्म हो गया, तो वो बोलता है कि पंडित जी क्या ठेंगा खायेंगे", इस पे बेचारे वे मन ही मन सोचने लगे कि कैसे जजमान से पाला पड़ा है बिठाने एवं खाने में भी कैसी कैसी चीजें का संज्ञा दे रहे है और तो और कथा से पहले प्रसाद भी खत्म कर दिया है एक पल उनके मन मे ख्याल आया कि क्यों न बिना कथा वाचन किये अपने घर चले जाऊ लेकिन फिर उनके मन मे क्या ख्याल आया वे रुक गए। थोड़े देर पश्चात कथा किसी तरह से समापन की ओर ही था कि पंडित जी ने कहा कि जजमान आप वही कीजियेगा, इतना बोल कर पंडित जी कर्मकांड आगे बढ़ाते है और कुछ भी बोलते है तो जजमान भी वही रखते है। इसी दौरान पंडित जी के मन मे एक तरकरीब आया कि क्यों न दक्षिणा में ज्यादा पैसा रखने के लिए बोल कर मैं भी रख दु पंडित जी ने ऐसा की किया और जजमान ने भी दक्षिणा में उतना ही धन रखें जितना कि पंडित जी बोले थे। तत्पश्चात पंडित जी वहाँ से किसी तरह से अपनी जान छुड़ाकर अपने गए और पंडिताइन से आपबीति सुनाई और कसम खाये की कभी भी बिना जाने पहचाने किसी नए जजमान के यहाँ नही जायेंगे। इधर पूजन से उठते ही सक्षम ग्वाला अपने पत्नी से प्रसाद के सामग्री खाने को माँगते है और मन ही मन सोचते है पूजन करवाना कठिन है लेकिन घर पे पूजन हो तो भोजन भी अच्छा खासा मिलता है। ऐसा सोचते सोचते भोजन करते रहते है।