सुबह की सैर
सुबह की सैर
रचना, ग्रेजुएशन करने वाली रचना, का बुखार आज जाकर उतरा था, कमजोरी जरूर महसूस हो रही थी पर ताजगी भी लग रही थी।
वो रसोई में काम करती मां के पास पहुंची और माँ चाय कह कर उन्हें आवाज दी।
अरे रचना, बेटी तू क्यों उठ कर आ गई? लेटी रहती, मैं आ तो रही थी , मां ने बोला।
चाय लेकर वो वापस आ ही रही थी, कि उसकी नजर फिर उस कमरे पर पड़ी। कमरे में प्रविष्ट होकर वो एक तस्वीर के सामने खड़ी थी। उसकी नानी, तस्वीर पर पुष्पहार----
आंखें भरने लगी थी सो जल्दी से वापस अपने कमरे में----
उसे याद आने लगे थे वो दिन जब नाना के न रहने पर, नानी मां के पास रहने आई थी। माँ ही नानी की एकमात्र संतान थी जैसे वो अपनी मां की-----
वृद्धा नानी का सिर्फ एक ही शौक था सुबह की सैर का, और वो रचना को साथ चलने को कहती। शुरू के कुछ दिन तो रचना को उनके साथ टहलना अच्छा लगा, कभी वो चिड़ियों के झुंड की ओर इशारा करती, कभी हरे भरे पेड़ों की तरफ देख खुश होती।
अंतहीन थी नानी की बातें, पता नहीं कौन कौन से किस्से वो नेहा को रास्ते भर सुनाती।
धीरे धीरे नेहा उनकी बातों से बोर होने लग गई और कोई न कोई बहाना बनाकर वो जाने से मना करने लग गई थी। नानी आज कॉलेज का बहुत से काम है, चली जाओ न अकेले थोड़ी दूर पर ही तो पार्क है।
नानी का मुँह उतर जाता पर नियति को स्वीकार कर वो 4,5 दिनों से अकेले ही टहलने जाने लगी थी। और तभी वो दुर्घटना घटी थी सड़क पार करती नानी को एक कार से कस कर धक्का लगा। कार वाले ने बहुत प्रयास किया तेज चलती गाड़ी में ब्रेक लगाने का।
पर अफसोस अनहोनी घटित हो चुकी थी। कुछ लोग दौड़ते हुए आये थे इसकी सूचना देने।
रास्ते में अस्पताल ले जाते हुए ही नानी दम तोड़ चुकी थी, और नेहा तभी से तेज बुखार में थी। अपराधबोध उसे मारे डाल रहा था।
फिर हिम्मत करके उठी, नानी के कमरे में पहुंच, उनकी तस्वीर के आगे बैठ रचना फिर बिलख उठी।
नानी प्लीज वापस आओ न, माफ कर दो मुझे, अब कभी भी तुम्हारे साथ सैर पर चलने से मना नहीं करूँगी-------