सर्वोच्च बलिदान

सर्वोच्च बलिदान

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अरुण सिर्फ़ एक साल बड़ा था वरुण से, छः साल का वरूण और सात साल का अरुण...दोनों भाई आधे घंटे से अपने टैम्पो का इंतजार कर रहे थे जो उन दोनों को रोज प्राथमिक विद्यालय लाती और ले जाती थी पर आज अभी तक आई ही नहीं थी....घर पाँच किलोमीटर की दूरी था.... दोनों सुकोमल बालक.... क्या करें कि पशोपेश में थे, "क्या करें दादा ?" वरुण की बात सुनकर एक ही साल बड़े दादा ने तुरन्त गंभीर उत्तरदायित्व बड़े भाई होने का ओढ़ लिया। "करेंगे क्या छोटे, घर चलेंगे और क्या..."

"पर दादा घर तो बहुत दूर है।"

"क्या दूर है छोटे, मैं तुम्हें किस्सा सुनाऊँगा, तुम सुनते चलना, कब घर आ जाएगा। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा, चलो।"

चल पड़े दोनों भाई घर की ओर, सुकोमल नाजुक पाँव थकने लगे। किसी तरह तीन किलोमीटर का फासला तय तो हुआ, तभी छोटे भाई ने दो टूक कहा, "बहुत थक गया दादा....अब नहीं चला जाता है...."

"अरे...इतना बहादुर मेरा भाई कैसे थक सकता है, वह भी तब ...जब हम घर के इतने पास पहुंच चुके हैं...." "ला...अपना बस्ता मुझे दे... और हम तो घर समझो पहुंच गये हैं..." छोटे भाई का बस्ता भी अपने कंधे पर टांग लिया...।

दो किलोमीटर का रास्ता भाई को बहलाते--फुसलाते... पार किया... पर घर पहुंचेते ही मां से लिपट..इतना रोया कि पूरा घर ही साथ रोने लगा ...उस बच्चे की हिम्मत पर सब दंग रह गये... कितना बड़प्पन दिखाया अरूण ने।

पर माँ की गोद ने फिर सात साल का बच्चा बना दिया जो अपने छोटे से भाई को हिफाजत से घर ले आया था....! सर्दियों की भयंकर ठंड, दस साल का अरुण जब घर लौटा तो कोट बगैर... ठिठुरते हुए... माँ ने पूछा "कोट कहाँ है लल्ला..." लल्ले ने सिर झुका लिया। "जरा देर के लिए उतारा था माँ ...फिर भूल गया... लौटते समय बहुत खोजा...मिला नहीं..." फिर माँ-बाबूजी की डाँट ही सुनता रहा आधे घंटे तक... "कितना लापरवाह लड़का है... अपने सामान की हिफाजत नहीं कर सकता है तो इससे और उम्मीद करना ही बेकार है....!"

चूंकि दोनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे... सो वरूण को पता लग ही गया कि दादा ने वह कोट तो फुटपाथ पर भीख माँगते उस बच्चे को दे दिया था...जिसके पास कोई ऊनी कपड़ा था ही नहीं.... अपनी जासूसी पर खुश वरुण ने माँ को दादा के झूठ के बारे में बताया... और सोचा था ...कि दादा को तो बहुत डाँट पड़ने वाली है...आखिर झूठ बोलना तो पाप है न, वह भी माँ--बाबूजी से... !

पर दंग रह गया कि माँ ने दादा को एक शब्द भी नहीं कहा....बल्कि लाड़ से एक चम्मच घी दाल में बढ़ा कर बड़े प्यार से खाना खिलाया.... और जब माँ ने बाबूजी को यह बात बताई तो बजाय दादा के झूठ पर डाँटने के... बाबूजी अपनी आँखों को गमछे से पोंछने लगे.... नौ साल के वरूण की कुछ समझ में ही नहीं आया कि दादा को उनके झूठ बोलने पर भी आखिर डाँट पड़ी क्यों नहीं....!

आखिर साल गुजरते गए.... इक्कीस साल के छः फीट...दो इंच का अरूण फौज में सेंकेंड लेफ्टिनेंट की ट्रेनिंग अभी खत्म करके घर आया ही था कि पता चला कि भारत पाकिस्तान में युद्ध छिड़ गया है.... दोस्त से मिलने गये अरुण उसी के घर रेडियो पर यह खबर सुनते ही तुरंत मोटर साइकिल से घर वापिस आये और आनन-फानन में अपनी पैकिंग करने लगे.... युद्ध प्रारंभ होने की खबर तो जन-जन की जुबान पर थी... चूंकि पिता भी फौजी थे...अतः उन्होंने कुछ भी नहीं कहा...पर ममत्व की मारी माँ ने यह अवश्य कहा कि बेटा... "तुम्हारी छूट्टी रद्द होने की खबर तो आई नहीं है तो भी तुम अपनी तैयारी क्यों कर रहे हो....?"

"माँ...युद्ध छिड़ चुका है..भारत माँ खतरे में है और उसका बेटा बुलाने का इंतजार करें, नहीं माँ, बस एक घंटे बाद मेरी ट्रेन है...मैं बस निकल रहा हूँ... आप आशीर्वाद दो कि जीत कर ही लौटूँ...।"

माँ निरुत्तर थी... भारी मन से बेटे को तिलक लगाकर आरती उतारी... विजयी भवः का आशीर्वाद दिया.... अरुण ने हँसकर अपनी माँ से कहा कि, "अगर ताबूत में भी लौटूं तो ऐसे ही तिलक लगाकर मेरी आरती करना..."

माँ ने अपने हाथों से अरुण का मुँह बंद कर दिया... "मरे तुम्हारे दुश्मन बेटा... शुभ शुभ बोल... सारे दुश्मन मार कर लौट आना बेटा.... हम सभी तुम्हारा इंतजार करेंगे...!"

सारा गली, मुहल्ला, लोगों का भारी हुजूम अरुण को स्टेशन छोड़ने गया... आम जन ने अपनी रक्षा की जिम्मेदारी 21 साल के फौजी को देकर भाव भीनी विदाई दी।

अरुण अपनी रेजीमेंट पहुंचा... अपने सेंकेड लेफ्टिनेंट के जज्बात देखकर पूरी यूनिट में जोश का संचार हो गया। युद्ध तो छिड़ ही चुका था पर अरूण की ट्रेनिंग अभी-अभी ही खत्म हुई थी। लिहाजा उसे फ्रंट का कोई अनुभव नहीं था... उसके यूनिट के इंचार्ज हुक्म सिंह चाहते थे कि वह बैरक में ही रुके और बैरक की सुरक्षा करते हुए अगले हुक्म का इंतजार करे।

"पर क्यों सर, व्हाई....।"

"क्योंकि तुम्हें युद्ध का अनुभव नहीं है....।"

"पर सर.... बिना लड़े किसे युद्ध का अनुभव हुआ है...और क्या युद्ध रोजाना होते हैं... आप मुझे.फ्रंट पर भेजें... मैं हर मोर्चे के लिए फिट हूँ.... भारत माता के आन पर आँच भी नहीं आने दूँगा...।"

अरुण के निरंतर आग्रह ने इंचार्ज को मजबूर कर दिया कि वह उसे कोई उत्तरदायित्व दें.... तभी ऊपर से आदेश आया कि यूनिट को अपने टैंक लेकर 1500 मीटर के बारुदी सड़क से होते हुए आगे बढ़ना है क्योंकि सूचना है कि दुश्मन की सेना आक्रमण के लिए 30 से 35 टैंकों का जखीरा लेकर आगे बढ़ रहा है... अपने टैंकों

को बचाते हुए... दुश्मन के टैंकों को नष्ट करना है।

अरुण के साथ एक बहुत ही अनुभवी सूबेदार क़ो साथ करके इंचार्ज ने अटैक की आज्ञा दे दी...।

रात के अंधेरे में 20 टैंको का जत्था निकला.... सभी टैंको की पीछे की एक जुगनू जैसी लाइट जल रही थी...ताकि वे आपस में ही नहीं टकरायें... रौशनी का कहीं नामोंनिशान नहीं था ताकि दुश्मन उन्हें तभी देंखें....

जब उनके टैंक ऐन उसके सिर पर पहुँच जायें।

आगे बढ़ते हुए अरुण ने दुश्मन के तीन चार टैंक को उड़ा दिया... तभी बदकिस्मती से सूबेदार के सिर से दुश्मन की गोली पार हो गई.... लेकिन अरूण का इरादा पक्का था कि वह दुश्मन के तीन-चार और टैंक उड़ाएगा ही...।

अरुण ने अपने टैंक के गनर को आदेश दिया कि वह अपने टैंक को आगे बढ़ा रहा है... वह अपना निशाना लक्ष्य पर रखे... भारतीय सेना की जांबाजी से दुश्मन के दस से ऊपर टैंक उड़ चुके थे.... जोश अपने चरम पर था... दुश्मन को हर हालत में नेस्तनाबूद करना ही था.... वायरलैस से बराबर स्थिति बताई जा रही थी.... इतने टैंको की बर्बादी पर दुश्मन बौखला गया था.... उसने और टैंको को आने का आदेश जारी कर दिया था.... !

अचानक अरुण के टैंक के पिछले हिस्से पर गोला आ गिरा....वहाँ आग लग गई.... वायरलैस पर आदेश आ रहा था....वापस लौटो अरुण.... टैंक में आग लग चुकी है... टैंक से कूद कर ..अपनी जान बचाओ.... पर अरुण का एक ही जवाब... मैं अभी फायर करने की पोजीशन में हूँ जनाब.... तभी अरुण ने अपने गनर से कहा कि मैं यहाँ फँस गया हूँ.... वह टैंक से नीचे उतर कर पीछे जाए...

"पर जनाब.... मैं आपके साथ हूँ ..."गनर ने कहा।

वायरलैस पर अरुण को टैंक छोड़ने के आदेश आ रहे थे... तभी अरुण ने वायरलेस को आफ कर दिया..!

उसी वक्त दुश्मन के टैंक से एक गोला फिर अरुण के टैंक पर गिरा.... अरुण को पता ही नहीं चला कि उसका पूरा पेट ही खाली हो गया था....और आंतें बाहर आ गई थीं.... एक जूनून के साथ चिल्लाया... टैंक से बाहर कूदो रेखाराम... और दुश्मन के टैंक पर ताबड़तोड़ दो गोले दाग दिए... !

दुश्मन का टैंक धूँ--धूँ जलने लगा... उस टैंक को चलाने वाले को कूदते अरुण ने अपनी आँखों से देखा और एक गोली दाग दी...पर अफसोस... वह गोली निशाने पर नहीं लगी... पर भागते--भागते भी दुश्मन की चलाई गोली अरूण के सिर को चीरती चली गई.... क्योंकि वह वीर जांबाज जरा भी हिलने की पोजिशन में

नहीं था.... थोड़े ही पीछे अपने टैंक से कैप्टन अमरिंदर अपने इस वीर सिपाही सेकेंड लैफ्टिनेंट अरुण का यह शौर्य देखते रह गए...!

दुश्मन के किसी भी टैंक की फिर हिम्मत नहीं हुई कि वह एक इंच भी आगे बढ़ सके.... सभी उस स्थान से पीछे भाग खड़े हुए...!

यह अद्भुत शौर्य... यह पराक्रम... यह वीरता.... अकथनीय... अकल्पनीय.... पर देखा कैप्टन अमरिंदर ने... देखा... गनर रेखाराम ने.... उस बहादुर महापराक्रमी भारत माँ के सपूत को.... अभिनंदन अरुण.... गर्व है तुम पर भारत माता को....

अभिनंदनीय है वह माता... जिसने तुम्हारे जैसे सपूत को जन्म दिया.... जिसने तुम्हारी आरती कर...तिलक लगाकर तुम्हें रणक्षेत्र में भेजा.... और जब तुम तिरंगे में लिपट कर घर पहुंचोगे... तब भी तुम्हें तिलक लगाकर तुम्हारी आरती करेगी...!

21 नहीं हजारों तोपों की सलामी तुम्हें.... जिसे 21 साल की उमर में ही सबसे बड़ा.... सबसे सर्वोच्च तमगा मिला.... " परम वीर चक्र "

जिसे अपने जीते जी तुमने नहीं देखा... जिसे कोई परम वीर अपने जीते जी नहीं देख पाता है.... पर सदियों तक यह भारत देखेगा.... तुम्हारे उस अतुलनीय शौर्य की गाथा गायेगा...

यह जिगर.... यह जज्बा ...दुश्मन कहाँ से लायेगा..!!

जय हिंद, जय हिंद की सेना, वंदे मातरम।

आखिर कौन... तिरंगे के कफन में !

दैदिप्यमान सूरज... टाँक जाता है !!

आज बता ही दे... भारत के लाल !

कौन तेरे सीने में... शौर्य भर जाता है !


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