Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Fantasy Thriller

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Fantasy Thriller

सृष्टि-प्रारब्ध ...

सृष्टि-प्रारब्ध ...

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यह प्राचीन समय की बात है। एक दिन स्वर्गलोक में इंद्र ने मुझसे कहा - 

सृष्टि, तीन सौ वर्षों का समय देकर मैं, आपको पृथ्वी पर भेज रहा हूँ। पृथ्वी पर विभिन्न प्रजाति के अनंत प्राणियों का निवास है मगर इस समय, वहाँ मनुष्य प्रजाति नहीं है। 

मेरे द्वारा तीन वर्ष पूर्व स्वर्ग लोक से आपकी ही तरह, प्रारब्ध को भेजा गया है। इस समय वह, पृथ्वी पर एकमात्र मनुष्य है। 

पृथ्वी पर आपका कार्य, प्रारब्ध की खोज कर, उसके साथ इन नियत वर्षों में, मनुष्य संतति परंपरा स्थापित करना है। और यह तभी संभव हो सकता है जबकि आप, प्रारब्ध को या प्रारब्ध, आपको खोज सके। स्मरण रखो सृष्टि, कि इन 300 वर्षों में, आप दोनों का आपसी मिलन ही, पृथ्वी पर मानव संतति क्रम के अस्तित्व में आने का कारण बन सकता है। 

मैं, आपको सृष्टि, पृथ्वी के जीवन में आपका यौवन, अक्षुण्ण होने का वरदान प्रदान कर रहा हूँ। ऐसा ही वरदान प्रारब्ध को भी प्राप्त है। 

यह पृथ्वी बहुत बड़ी है। इसका भूभाग, दूर दूर तक फैले महासागरों से, कई हिस्सों में विभाजित है। ऐसे में आप दोनों का, आपस में खोज कर लेना बहुत चुनौती पूर्ण कार्य होगा। आपके खोज करने के ऊपर ही यह निर्भर होगा कि पृथ्वी पर, मानव प्रजाति अस्तित्व बना सकेगी या नहीं। 

इंद्र ने, इतने निर्देश दिए जाने के बाद मुझे, पृथ्वी पर भेज दिया था। कुछ ही दिनों में पृथ्वी पर अकेलेपन से, मैं घबरा गई थी। मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था कि कैसे मैं, प्रारब्ध की खोज करूँ। 

यह कपास के बड़े ढेर में एक सुई को खोजना जितना चुनौती पूर्ण था। मैंने, तीन वर्ष बिना उपलब्धि के भटकते हुए ही गंवा दिए थे। तब मेरे मस्तिष्क में एक तर्क आया था कि जैसे शक्तिशाली चुंबक के होने से, सुई को कपास के बड़े ढेर में से भी निकाला जा सकता है वैसे ही, कोई विधि तो होगी जिससे मैं, प्रारब्ध को खोज सकने में समर्थ हो सकती हूँ। 

पिछले तीन वर्षों के पृथ्वी पर विचरण में मैंने, अनेक नस्ल के जल थल के जानवर एवं पक्षी देखे थे। जिनमें से कई हिंसक भी थे मगर वे, मुझे किसी तरह की हानि नहीं पहुंचाते थे। तब मुझे एक युक्ति सूझी कि मेरे द्वारा उनकी भाषा सीख लेना, मेरे अभिप्राय में मुझे सफलता दिला सकती है। 

मैंने देखा था कि नित दिन पक्षी दूर दूर तक उड़ान भरते हैं। तब उनकी भाषा जानने पर मैं, उनसे बात कर सकती हूँ। जिससे मुझे, उनसे प्रारब्ध के विषय में सुराग प्राप्त हो सकता है। 

इस विचार के आने के बाद अगले तीन वर्ष मैंने, अपने इर्द गिर्द के सभी प्राणियों की भाषा सीखने तथा उनसे वार्तालाप करने में लगाए थे। उन से, मेरी मित्रता हो जाने से मुझे, अब पृथ्वी का जीवन रुचिकर लगने लगा था। 

अब अपने, ‘प्रारब्ध की खोज’ प्रयोजन के लिए मैंने, विशालकाय भेरुण्ड पक्षी का चयन किया। भेरुण्ड दूर दूर तक तीव्रगामी उड़ान भरा करते थे। वे, विशाल विस्तार लिए महासागरों को, अपनी एक ही उड़ान में पार कर लिया करते थे। 

एक दिन मैंने, अपने मित्र एक भेरुण्ड को, प्रारब्ध का हुलिया बता कर उसकी तलाश करने के लिए कहा। भेरुण्ड सहर्ष ही इस कार्य पर लग गया। उसने उड़ उड़ कर विश्व भर के कई अपने साथी भेरुण्ड को, प्रारब्ध का हुलिया बता दिया। आश्चर्यजनक रूप से 13 दिनों में ही मित्र भेरुण्ड ने, प्रारब्ध को खोज निकाला था। मगर उनकी बताई प्रारब्ध की लोकेशन, मुझसे 13 हजार किमी दूर थी। 

अब मैंने, चीता, व्हेल एवं भेरुण्ड की सहायता से ही प्रारब्ध तक की यात्रा आरंभ कर दी थी। कभी मैं, चीता पर सवार हो दूर दूर तक, थल भाग पार करती, कभी व्हेल मछली के ऊपर बैठकर, महासागरों में सैकड़ों किमी दूर जाती और कभी भेरुण्ड की पीठ पर आकाश में दूर तक की उड़ान तय करती। 

सभी से उनकी भाषा में बात करने से वे मेरी संगति से प्रसन्न रहते एवं मुझे मेरी लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहायता करते। इस तरह 13 हजार किमी की मेरी रोमांचकारी यात्रा का मनोवांछित लक्ष्य मुझे, चालीसवें दिन प्राप्त हो गया। 

प्रारब्ध, लगभग 10 वर्षों से अकेला था। वह जब मुझे मिला उसकी हालत दीवानों जैसी थी। उसे देख मेरा नारी हृदय करुणा एवं प्यार से द्रवित हो गया था। वह, मुझे अपने समक्ष पाकर हर्ष अतिरेक में पगला गया था। तब उसने, मुझे अपने बलिष्ठ बाहों में उठाये हुए, कई घंटे निरंतर नृत्य किया। उसके प्रेममय स्पर्श ने मुझे, वह सुख दिया जो मुझे, पृथ्वी पर कल्पनातीत लगने लगा था। 

अब हम दोनों की दैनिक क्रिया यह हो गई, हम घने जंगलों में फैले फलदार वृक्षों से तोड़कर, नाना प्रकार के पके फलों का सेवन किया करते थे। नित दिन ही शेर, हाथी, घोड़े, किसी बड़ी मछली एवं भेरुण्ड के तरह के पक्षियों की सवारी करते हुए संसार के विभिन्न भूभाग की सैर करते थे। 

इन सैर सपाटे के मध्य ही प्रारब्ध, मुझसे प्रणय अंतरंग संबंध बनाया करते थे। इन संबंधों में विविधता के लिए, प्रारब्ध नए नए आसन ही नहीं अपनाते, वरन भिन्न भिन्न प्रकार की प्रणय सेज का प्रयोग किया करते थे। 

प्रारब्ध, मुझे कभी किसी अत्यंत घने वृक्ष के शीर्ष पर ले जाते, कभी सुंदर सरोवरों की जल क्रीड़ा में साथ लेते, कभी सुगंधित पुष्पों की सेज बना कर उस पर लिटाया करते, तो कभी किसी विशालकाय पक्षी की उड़ान के मध्य उसकी पीठ पर, अपने बाहुपाश में बांधते थे। विविधता के रसिक प्रारब्ध, कई बार मुझे, बड़ी बड़ी मछलियों की पीठ पर महासागरों में भी आलिंगन में ले लिया करते थे। 

हममें ऐसी प्रणयरत रति के फलस्वरूप मैं, लगभग हर वर्ष कोई संतान और कई बार जुड़वा संतान जन्मती थी। विभिन्न प्रजाति के प्राणियों से, उनकी भाषा में बात करने से हमारा सभी प्राणियों से स्नेह एवं मित्रवत संबंध हुआ करता था। इससे हमारी जो भी संतान जन्म लेती हम, किसी किसी जानवर, पक्षी या जल जीवों को उनके लालन पालन का दायित्व देकर पृथ्वी के विभिन्न भूभागों में उन्हें छोड़ते जाते थे। 

ऐसे हमारे तीन सौ वर्षों के समय में हमने, पृथ्वी पर 409 संतानें जन्मी थी। 

हमारी इन संतानों ने अलग अलग प्राणियों से लालन पालन लेते हुए, अलग अलग आनुवंशिकता ग्रहण कर ली थी। साथ ही विभिन्न क्षेत्र एवं विभिन्न प्राणियों से मिले अलग अलग संस्कारों में उन्होंने, एक ही माता पिता की संतान होने पर भी परस्पर भाई बहन होने के तथ्य को भुला दिया था। 

युवा होने पर ये, परस्पर प्रणय संबंध बनाने लगते थे। इस प्रकार हमने देखा था कि मानव प्रजाति के आरंभिक तीन सौ वर्षों के कालखंड में, पृथ्वी पर मानव संख्या 13832 हो गई थी। तब 300 वर्ष हो जाने पर इंद्र ने, प्रारब्ध और मुझे, पृथ्वी से वापिस स्वर्गलोक में बुला लिया था। 

हजारों वर्ष हुए जब हम, पृथ्वी पर बिताया अपना 300 वर्ष का जीवन भूल चुके थे तब एक दिन हमें, इंद्र सभा में उपस्थित होने का आदेश मिला था। वहाँ इस बार इंद्र ने, मुझे संबोधित करते हुए कहा - 

सृष्टि, आप एवं प्रारब्ध को मैं, पृथ्वी पर इस पूर्णिमा से, अगले पूर्णिमा तक के एक मास के समय के लिए भेज रहा हूँ। आप दोनों जाओ एवं वहाँ अपने वंशज संतानों की कुशल क्षेम से अवगत होकर देखो। 

ऐसे हम पृथ्वी पर वापिस आये थे। अब के पृथ्वी पर के दृश्य ने हमें विस्मित कर दिया था। पृथ्वी का बीते काल में पूरा एवं निराशाजनक कायाकल्प हो गया था। 

मानव प्रजाति अस्तित्व की बुनियाद में, प्रारब्ध एवं मेरा प्रेम एवं परस्पर समर्पण था। कई बातों को देख हमें, दुखद आश्चर्य हुआ। हम देख हैरान थे कि -

हमारी रखी पावन प्रेम की बुनियाद पर, हमारी ही संतति ने नफरत में रहना कैसे सीख लिया।

300 वर्षों के अपने जीवन में, जिन प्राणियों की सहायता से हमने, पृथ्वी पर मानव प्रजाति का आधार रखा था। हमारी ही संतति ने, उनकी निर्ममता से मार डालने की हिंसक परंपरा रख दी थी। जिससे कई प्राणी नस्ल तो पृथ्वी से विलुप्त हो गई थी। साथ ही कई विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गई थी। 

प्रारब्ध और मैं, एक दूसरे का साथ आदर से निभाया करते थे। हम आपस में किसी को श्रेष्ठ या हीन देखने का अंतर नहीं करते थे। लेकिन हमारी संतानों ने, ना जाने कैसे! पुरुष को श्रेष्ठ और नारी को हीन देखने की दृष्टि आविष्कृत कर ली थी। 

हमने जब, मानव प्रजाति की बुनियाद निर्मित की थी तब यह पृथ्वी प्राकृतिक रूप से, भव्य सौंदर्य को अपने में समाये हुए थी। यहां निर्मल नीर, आवो हवा शुद्ध एवं चहुँ ओर फैले जंगलों में वनस्पतियों एवं हरियाली की बहुतायत थी । 

महासागरों में, जलीय प्राणियों का स्वतंत्र विचरण एवं थल भूभाग में विस्तृत जंगल एवं पर्वतों में, थल के जीवों की गतिविधियां दिखाई देती थी। आसमान में पक्षियों का कर्णप्रिय कलरव सुनाई देता था। 

अब हमारी संतानों ने, मनुष्य प्रजाति की इतनी विशाल जनसंख्या कर ली थी कि पृथ्वी पर नैसर्गिक जंगल, नदियाँ, सरोवर एवं पर्वत श्रृंखलाएं सिमट गए थे। चारों तरफ इमारतों, सड़कों और अन्य मानव निर्मित संरचनाओं का जंगल फ़ैल गया था। शुद्ध हवा और जल का अभाव अनुभव होता था। 

प्राकृतिक संसाधन कम पड़ने से उस पर आधिपत्य की कोशिशों में, आपसी मारकाट मची रहती थी। 

हमारी संतान ने, धन नामक वस्तु का आविष्कार कर लिया था। जिसे अपने लिए, अधिक से अधिक अर्जित करने की होड़, उनमें छल-कपट-लालच का दुखद खेल चलाती रहती थी। 

प्रारब्ध और मेरा प्रेम, एक दूसरे के प्रति निष्ठा और विश्वास का अनुकरण योग्य प्रेम था। मगर हमारी संतानों में अब, एकनिष्ठ एवं विश्वसनीय संबंध की परंपरा मिटने के कगार पर थी। व्यभिचार का खुला निर्लज्ज खेल देखना हमारे लिए हृदय विदारक था। 

और 

इन सबसे अधिक दुख दाई, हमारा यह देखना था कि जब संपूर्ण सृष्टि एक ईश्वर की निर्मित थी। तब हमारी संतानों ने अपनी अपनी सुविधा अनुसार, बहुत से अलग अलग ईश्वर की कल्पना कर ली थी। 

इन अलग अलग ईश्वरों को वो अपनी अपनी आस्था में देखते तथा अपने माने गए (भ्रम) ईश्वर को श्रेष्ठ दिखलाने के लिए, आपसी मार काट मचाया करते थे।  

सब देख अनुभव कर हम क्षुब्ध थे तब अगली पूर्णिमा आ गई थी। हम वापस स्वर्ग बुला लिए गए थे। स्वर्ग में इंद्र ने हमसे पूछा - 

सृष्टि और प्रारब्ध, कैसा लगा आपको पृथ्वी पर आज के मनुष्य एवं अन्य प्राणियों का जीवन?

मुझे रोना आ गया था मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया - 

हे देवाधिदेव, तीन सौ वर्षों के पृथ्वी पर अपने जीवन में, “काश! हम मिले न होते” … 



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