संवेदनायें
संवेदनायें
छवि गेट पर खड़ी होकर अपनी माँ के लौटने का इंतजार कर रही थी। तभी तेज गति से आई ठंडी बर्फीली हवा ने उसे अंदर तक हिला दिया।अपने हथेलियों को रगड़ कर गरम करने की कोशिश करती छवि ये सोचते हुए अंदर आ गई कि "इतनी ठंड में बाहर तालाब के पानी से माँ कैसे नहायेगीं। गुलाबो काकी ने उन्हें गरम कपड़े भी तो नहीं पहनाने दिये, वैसे ही माँ की इतनी तबीयत खराब रहती है। पापा के बाद अगर उन्हें भी कुछ हो गया तो ? "
"नहीं - नहीं ये मै क्या सोच रही हूँ? ऐसा कुछ नहीं होगा।"
बड़बड़ाते हुए छवि ड्राइंग रूम में आ गई। सामने दीवार पर फैमली फोटो टंगा था जिसमें माँ, पापा, छवि और उसका छोटा भाई शौर्य मुस्करा रहे थे।छवि थके कदमों से कमरे में इधर से उधर टहलने लगी । उसे तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसके पापा ये दुनिया छोड़ कर चले गये।बीमार तो माँ रहती थी । पापा तो एकदम फिट थे। मेरी शादी के समय भी माँ की कितनी तबीयत खराब हो गई थी। पापा अपने से ज्यादा माँ का ख्याल रखते थे। उनका ख्याल तो मैं या शौर्य रखता था।
एक दिन पहले ही तो पापा से बात हुई बिल्कुल ठीक थे। और दूसरे दिन सुबह शौर्य का फोन पहुँच गया कि पापा नहीं रहे। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वो बिना कुछ बोले बिना कुछ सुने हम सब को छोड़ कर जा चुके थे।पीछे छोड़ गये थे बिलखते बच्चे और अधमरी सी बीबी।जिनका सुहाग उजड़ गया था । इसलिये मोहल्ले और परिवार की महिलाएं उनकी सुहाग की निशानियों को उतारने के लिये रिवाज के हिसाब से बिना गर्म कपड़ो के तालाब पर ले गई थी। और छवि को ये बोल कर घर छोड़ गई थी कि....
"ऐसे कामों में बेटियां माँ के साथ नहीं जाती"
"पता नहीं किसने ये रिवाज बनाये है कि जाने वाले के साथ जिन्दा इंसान को भी तिल- तिल मरना पड़ता है। "
सोचते हुये छवि एक बार फिर से दरवाजे पर आ गई।दिसम्बर, जनवरी की हाड़ गला देने वाली ये ठंड। दरवाजा खोलते ही छवि एक बार फिर से कांपने लगी। अपने सॉल को सही करती वो इसबार गली में आ गई। तभी उसे तालाब की तरफ से गुलाबो काकी और मोहल्ले की कुछ औरते आती दिखाई दी। जिन्हें देखते ही छवि चिल्लाते हुये दौड़ कर उनके पास पहुंची.......
"काकी आप लोग यहाँ तो मेरी माँ कहाँ हैं ? इतनी देर हो गई अभी तक आप लोग उन्हें लेकर क्यों नहीं आये ?"
छवि की बात सुन काकी रोनी सूरत बनाते हुये बोली....
" बेटा तुम्हारी माँ का श्रृंगार उतारने के लिये कोई मिल ही नहीं रहा। कोई भी सुहागन ये काम करना नहीं चाहती। और जो वृद्ध विधवा है वो ऐसी ठंड में तुम्हारी माँ को छू कर तालाब के ठंडे पानी से नहाना नहीं चाहती।"
"बेटा हमें तो देर हो रही थी तो तुम्हारी माँ को वहीं छोड़ कर हम घर जा रहे है। "
इतना सुनते ही छवि ने तालाब की तरफ दौड़ लगा दी। रास्ते में शौर्य भी मिल गया जो परिवार के पुरुषों के साथ अपने बालों का तर्पण करके आ रहा था ।
अपनी दीदी को यूँ बदहवास सा दौड़ता देख कर छवि को कंधे से पकड़ कर हिलाते हुये बोला...
"क्या हुआ दीदी ?? "
छवि हाॅफते हुये बोली.... " शौर्य वो... वो माँ तालाब पर...... "
आगे के शब्दों को सुने बिना ही शौर्य भी छवि के साथ भागते हुये तालाब पर पहुँच गया। जहाँ उनकी माँ ठंड की वजह से गठरी बनी एक जगह बैठी थी। और परिवार की सभी औरतें दो - दो स्वेटर सॉल पहने एक साइड खड़ीं हो हँस - हँस के बातें कर रहीं थी।छवि को वहाँ देख उनमें से एक औरत जो रिश्ते में छवि की चाची थी, छवि से बोली.....
" छवि तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिये था। बेटियां ऐसे कामों में माँ के साथ नहीं आती। "
छवि बिना उनकी बात का जबाव दिये अपनी माँ के पास पहुंची। जिनके होंठ ठंड से नीले पड़ गये थे। हाथ बर्फ से भी ज्यादा ठंडे हो गये थे।छवि और शौर्य माँ... माँ कहते अपनी माँ को हिला रहे थे। पर वहाँ माँ थी ही नहीं। वो तो ठंड से लकड़ी की तरह अकड़ा एक शरीर भर था। माँ तो सारे रिवाजो को छोड़ अनंन्त यात्रा पर निकल गईं थी।
छवि ने एक बार नजरें उठा कर वहाँ खड़ी परिवार की सारी महिलाओं को देखा। ये वही सब थे जिनका माँ ने हर छोटी से छोटी बात में ख्याल रखा था। पूरे कुटुम्ब में सबसे बड़ी होने से इन सबके पतियों के जरा से बीमार होने पर खूब सेवा और मन्नत के धागे बांधे थे। आज उन्ही लोगों ने शगुन अपशगुन के नाम पर माँ को ठिठुरता छोड़ दिया था।
छवि और शौर्य एक दूसरे को गले लगा दहाड़े मार कर रो रहे थे। छवि बार-बार खुद को दोष दे रही थी कि क्यूं उसने सभी की बात मान माँ को तालाब पर आने दिया? क्यों नहीं विरोध किया रिवाजों का।
वहाँ खड़ी औरतों में से किसी की भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी की वो छवि और शौर्य को चुप कराते। आखिर किस मुँह से संतावना देती, गलती सभी की थी। जिसका खामियाजा अपनी माँ को खो कर शौर्य और छवि ने भरा था। यहाँ सभी की संवेदनाएँ बर्फ से भी ठंडी हो गई थी।