समाज [7 जून]
समाज [7 जून]
मेरी प्रिय संगिनी
अब तुमसे मिलने के लिए, मन व्याकुल रहता है, कि कैसे जल्दी से तुमसे मिलूँ, और अपने मन की बातें कहूँ, क्योंकि सभी बातें सबसे नहीं हो पाती है, तुम ही हो जो सब बातें, चुपचाप सुन लेती हो, जैसा कि हम सभी जानते हैं संगिनी, कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है,,,,
वह अकेला नहींं रह सकता, परंतु कभी-कभी इस समाज में रहकर, घुटन महसूस होती है, हर वक्त उनकी गिद्ध नज़र, हमें अपने हिसाब से जीने नहीं देती, हमें कई काम ना चाहते हुए भी, समाज के हिसाब से, करने पड़ते हैं, जो कि ग़लत है, सभी को अपने हिसाब से जीने का अधिकार है, और जीना भी चाहिए, क्योंकि,,,,,,,,
"जिंदगी ना मिलेगी दोबारा" अगर हम सही हैं, तो बिना समाज से डरे, हमें अपना काम करना चाहिए,,,,
आज का "जीवन दर्शन"
"सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग" इस रोग से जितनी जल्दी हम मुक्त होंगे, उतनी ही जल्दी राहत महसूस करेंगे,,,
आज के लिए बस इतना ही मिलते हैं कल फिर से "मेरी प्यारी संगिनी।
