परिधि
परिधि
परिधि ने जब होश संभाला होगा, तब शायद उसे अपने नाम का अर्थ मालूम नहीं होगा, कि परिधि का मतलब होता है दायरा।
नन्ही परिधि को सब प्यार से परी पुकारते थे, दिखने में भी बिल्कुल परी के जैसी, बोलती तो ऐसे, जैसे मुँह से फूल झड़ते, उसकी तोतली जुबान को सुनकर, माँ बाबा, दादी दादू, दीदी सब फूले नहीं समाते थे, दीदी की तो जैसे जान थी परी, हर वक्त उसे कलेजे से चिपकाए रखती, सात साल बड़ी थी निधि दीदी, परी से, इसीलिए बहन से ज्यादा माँ का भाव था निधि में, परी के लिए।
दोनों बहनें धीरे-धीरे बड़ी होने लगी एक दिन घोड़ी चढ़कर एक राजकुमार आया और दीदी निधि को लेकर चला गया, परी कुछ दिनों तक सदमे में रही, हर वक्त उसकी आँखें दीदी को ढूँढती रहती, घर के कोने कोने में, परंतु इतनी समझ तो उसे भी थी, कि अब दीदी नहीं आएगी, उसका ब्याह हो गया है।
इधर दीदी का भी ससुराल में परी के बिना मन नहीं लगता, उसे लगता था जैसे हर वक्त परी, उसके आसपास ही मँडरा रही हो, दीदी का एक देवर था, सजीला गबरु जवान देवेश। निधि का पति सोमेश और देवर देवेश, दोनों मिलकर पारिवारिक बिजनेस चलाते थे जो कि अच्छा खासा चल रहा था।
खाता पीता घर था, निधि ही घर की मालकिन थी, क्योंकि सास उसके ब्याह कर आने से, कई साल पहले ही, स्वर्ग सिधार चुकी थी, ससुर जी बहुत ही सीधे साधे इंसान थे, ससुर जी ने एक दिन निधि से कहा, अब तुम अपने जैसी ही एक बहु और इस घर में ले आओ, देवेश का ब्याह हो जाए तो मैं चैन का साँस लूँ।
निधि की तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गई, वह तो मन ही मन चाह ही रही थी, कि परी को इस घर में देवरानी बनाकर ले आए, जब उसने बाबू जी से अपने मन की बात कही, तो बाबूजी बहुत खुश हो गए, क्योंकि उन्होंने परी को देख रखा था, खूबसूरत, शीलवान लड़की, और क्या चाहिए एक बहू में।
फिर क्या था, आनन-फानन में ब्याह तय हो गया, परिधि भी बाबुल का आँगन छोड़, पिया के घर आ गई, दोनों बहनें अब जेठानी देवरानी हो गई थी, खुशी खुशी दिन बीतने लगे, परंतु कहते हैं ना, दिन फिरते वक्त नहीं लगता, न जाने घर को किसकी नज़र लग गई।
देवेश को जुए और शराब की लत पड़ गई, पैसों की कमी थी नहीं, अपना बिजनेस था, कोई रोकने टोकने वाला भी नहीं, मनमर्जी से पैसे खर्च करता, अय्याशी करता, सीधे साधे बाबूजी की तो, वह पहले भी नहीं सुनता था, माँ ने बिगाड़ रखा था, माँ तो परलोक सिधार गईं , पर अब भुगतना परी को था।
बेचारी परी के तो जैसे, पर ही किसी ने काट दिए, उस पर से दो जुड़वाँ बेटे का जन्म, जिम्मेदारी के बोझ तले वह दबती चली गई, हालांकि निधि ने अपनी परी को सभी कर्तव्यों से स्वतंत्र कर रखा था, परंतु फिर भी निधि अपने दीदी के साथ साथ ही रहती, जितना हो सके गृह कार्य में हाथ बँटाती, परंतु अब वह गुमसुम हो गई थी, बोलती कुछ नहीं थी।
निधि को भी बहुत तकलीफ़ थी, कि उसने अपने ही हाथों अपनी बहन का जीवन बर्बाद कर दिया, अगर उसे पहले पता होता, तो शायद वह इस घर में उसे कभी ना लाती, निधि परी को समझाती थी, एक दिन सब ठीक हो जाएगा, धीरज रखो, समय का पहिया अवश्य घूमेगा।
परंतु परी के सब्र का बांध टूटता जा रहा था, प्रतिदिन देवेश का शराब पीकर आना, और फिर उसे मारना पीटना, परी को असह्य होता जा रहा था, जी घुटता था उसका ऐसे वातावरण में , दीदी से भी अब वह खुलकर बातें नहीं करती थी, पंख फैलाकर उड़ना चाहती थी, खुले आसमान में, परंतु नियति ने जैसे, उसे पिंजरे में कैद कर रखा था।
आख़िरकार एक दिन परी के सब्र का बांध टूट गया, पति से मार खाने के बाद, मुँह अंधेरे अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर परिधि को तोड़, घर से निकल गई, फिर कभी ना वापस आने के लिए, क्या परी का परिधि को तोड़ना सही था, या ग़लत था??
शायद ग़लत नहीं था, क्योंकि जीवन अनमोल है, सभी को एक अच्छा जीवन अपने तरीके से जीने का हक़ है, और इसे अगर कोई बर्बाद करना चाहे, तो अपनी दिशा अवश्य बदल लेनी चाहिए।
ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा.....
