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Madhavi Sharma [Aparajita]

Tragedy Inspirational

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Madhavi Sharma [Aparajita]

Tragedy Inspirational

मुक्तिधाम

मुक्तिधाम

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शिव की नगरी काशी में... गंगा तट पर बने.. [मुक्तिधाम] के.... बारह कमरों में से.. एक कमरा मेरा है...!!


मेरा नाम शिव शंकर है.. मैं बहत्तर वर्षीय वयोवृद्ध हूँ.. और यहाँ अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रहा हूँ.. बिल्कुल ठीक सुना आपने.. कि मैं इंतज़ार कर रहा हूँ.. अपनी ही मौत का.. क्योंकि मैंने सुन रखा है कि.. अपने पाप कर्मों से मुक्ति.. और मोक्ष पाने के लिए.. इससे सटीक जगह इस धरा पर.. और कोई नहीं है..!!


हर रोज गंगा जी में एक डुबकी लगाकर.. पाप मुक्त होना चाहता हूँ.. अपने मोक्ष की कामना रखता हूँ.. ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूँ.. एक भरा पूरा परिवार है मेरा.. सिर्फ मेरी पत्नी रमा.. आज से तीन वर्ष पूर्व.. गोलोक धाम वासी हो गई है..!!


जब तक रमा साथ थी.. मैं बेफ़िक्र था.. या यूँ कह सकते हैं कि.. उसने मुझे सभी तरह के सांसारिक झंझटों से दूर रखा था.. हर महीने की तनख़्वाह से मैं.. उसे जितने पैसे देता.. वो उसी में पूरे परिवार का.. भरण पोषण करती.. कभी उसने अतिरिक्त पैसों की मांग नहीं की थी..!! 


मेहमान नवाज़ी से लेकर.. बच्चों की हर छोटी मोटी जरूरतें.. यहाँ तक कि ऑफिस जाने के लिए.. मेरे ब्रांडेड कपड़ों से लेकर जूते मोज़े.. ऑफिस बैग भी वही खरीदती थी.. माँ लक्ष्मी की असीम कृपा थी उस पर.. बला की बरक़त थी उसके हाथों में..!! 


महीने के शुरुआत में.. उसके हाथों पैसे पकड़ा कर.. मैं निश्चिंत हो जाता था.. या कह सकते हैं कि.. अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेता था.. मगर मेरी आदतों को बिगाड़ने में.. रमा का ही तो हाथ था.. वो इतनी सुघड़ता से सारी व्यवस्था संभालती थी.. कि मुझे सिवाय अपने ऑफिस कार्य के.. कभी और कुछ देखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी..!! 


मैं अपने ऑफिस कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित था.. और पत्नी रमा घर संसार के प्रति पूर्ण समर्पित.. यहाँ तक कि तीज त्यौहार पर भी.. मैंने उसे कभी अतिरिक्त पैसे नहीं दिए.. कि वो अपने लिए अच्छी साड़ी कपड़े गहने या कोई मनपसंद साजो सामान ले पाए..!! 


परंतु फिर भी मेरे घर का हर त्योहार.. बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था.. अब कैसे ?? ये तो राम जाने.. या फिर रमा.. जब भी परिवार सहित गाँव जाता तो.. वहाँ जैसे रमा के बैग में से.. भानुमती का पिटारा.. खुल जाता था...... 


जिसमें अम्मा की साड़ी चूड़ी तथा.. बाबूजी के लिए.. उनकी मनपसंद खाद्य सामग्री से लेकर.. लूंगी गंजी पैजामा चप्पल.. सभी कुछ रहता था.. माँ बाबूजी मुझे नहीं बल्कि उसे घेर कर खड़े रहते थे.. कि उसके बैग में से उनके लिए क्या-क्या निकलेगा.. और फिर सामान मिलते ही.. वे बच्चों की भांति.. ख़ुशी से किलक उठते..!! 


कैसे कर लेती थी वो इतना कुछ ?? आज मैं उसके नहीं रहने पर.. ये सारी बातें सोचता हूँ.. क्योंकि उस वक्त तो मुझे.. इन बातों की अहमियत.. कभी समझ ही नहीं आई थी.. एक-एक करके माँ बाबूजी.. दोनों ही चल बसे.. धीरे-धीरे बच्चों ने भी.. अपनी अपनी राहें पकड़ ली.. बड़े से घर में रह गए.. मैं और मेरी रमा..!! 


सेवानिवृत्त होने के बाद.. मेरी दिनचर्या में तो आमूल चूल परिवर्तन आ गया था.. लेकिन रमा कि ज़िन्दगी उसी ढर्रे पर चल रही थी.. जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया था.. वो पहले की भाँति ही.. सुबह से लेकर रात तक.. गृह कार्य निपटाती.. घर सदैव करीने से सजा रहता.. मजाल नहीं थी कि एक वस्तु भी.. इधर से उधर.. पड़ी हुई मिले..!! 


बच्चों तथा अपने करीबियों के.. फोन द्वारा ही उनकी आधी समस्या को सुलझा देना.. उसकी कई प्रकार की ख़ासियतों में से एक थी.. मैं पहले भी निश्चिंत था.. और अब सेवा निवृत्त होने के बाद.. और भी निश्चिंत हो गया था.. रमा की निश्चिंतिता के बारे में तो.. मैंने कभी सोचा ही नहीं.. !!


इसका सबसे बड़ा कारण.. शायद यही रहा होगा कि.. जैसे हम अपने शरीर के विभिन्न अंगों की.. अलग-अलग कोई देखभाल नहीं करते.. ठीक उसी तरह.. रमा मेरे शरीर का ही एक हिस्सा बन चुकी थी.. मुझे वो अपने से विलग.. कभी लगी ही नहीं..!! 


एक उम्र के बाद शरीर में.. थकान होने लगती है.. मैं भी अपनी दिनचर्या को काफी संतुलित रखने के बावज़ूद.. थकान महसूस करने लगा था.. हालांकि पहले की भांति ही रोज सुबह उठकर.. योग प्राणायाम करना और उसके बाद पूजा पाठ ध्यान पर बैठना.. मेरी नित्य क्रिया में शामिल थी.. फिर भी ये उम्र का तकाज़ा था..!! 


अपने दैनंदिन कार्यों से.. निवृत्त होने के पश्चात.. मैं मॉर्निंग वॉक पर निकल पड़ता.. थोड़ी देर तक दोस्तों से गप्पे लड़ाने के बाद जब घर लौटता तो.. गर्मागरम नाश्ता.. टेबल पर तैयार रखा मिलता.. मैं नाश्ते का लुत्फ़ उठाकर.. आराम से अख़बार पढ़ने बैठ जाता.. और रमा.... उसके काम तो कभी ख़त्म होने का.. नाम ही नहीं लेते थे..!! 


मेरे ज़हन में कभी ये ख्याल क्यों नहीं आया कि.. रमा को भी थकान हो रही होगी.. उम्र तो उसकी भी.. ढलान की ओर बढ़ चली है.. अब उसे भी थोड़े से आराम की ज़रूरत है.. परंतु नहीं.. मुझे आज ये मानने से.. कोई गुरेज नहीं है कि.. मैंने एक बार भी.. एक क्षण के लिए भी.. उसकी सेहत के बारे में.. नहीं सोचा..!! 


वो थी भी ऐसी कि.. कभी खुलकर मुझसे कोई बात नहीं कहती थी.. लेकिन खुलकर तो मैं भी उसे कुछ नहीं कहता था.. फिर वो मेरे मन की सारी बातें.. कैसे समझ जाती थी.. ?? 


इतने सालों का साथ होते हुए भी.. मैं उसकी अनकही बातों को.. क्यों नहीं समझ पाता था..?? क्यों नहीं देख पाता था कि.. उसके भी जोड़ों में दर्द शुरू हो गया है.. क्यों नहीं देख पाता था कि.. आज जब वो पहले की ही भांति द्रुतगति से.. गृह कार्य निपटाना चाहती है तो.. थोड़ी देर में ही शिथिल पड़ जाती है.. जबकि पहले ऐसा कभी नहीं होता था..!! 


मेरे दिमाग में एक क्षण के लिए भी.. ये बात क्यों नहीं आई कि.. रमा ने आधा-अधूरा काम छोड़कर.. थोड़ी देर का विश्राम क्यों लिया है..?? क्यों नहीं मैं उसके साथ-साथ घर के कामों में.. थोड़ी सी हाथ बंटा दिया करता था.. क्या घर की ज़िम्मेदारियां.. सिर्फ उसी की थी.. मेरी नहीं..??


एक बार मेरे पूछने पर.. उसने धीरे से कहा भी था कि.. उसके सीने में कभी-कभी दर्द उठता है.. शायद अन्जाने ही कुछ भारी काम कर लिया होगा.. ठीक हो जाएगा.. इस पर मैंने उसे कहा था.. थोड़ा योगा प्राणायाम तुम भी कर लिया करो.. सेहत अच्छी रहती है..!! 


उसने हँसकर कहा था.. मेरे पास वक्त ही कहाँ है.. दिन भर घर के छोटे बड़े कामों में व्यस्त रहती हूँ.. ये भी एक प्रकार का योग व्यायाम ही तो है.. अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है मुझे..!! 


इसके बाद तो उसे.. थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल पर ही.. सीने में दर्द उठने लगा था.. काम करते-करते.. थोड़ा सुस्ता लेती.. फिर काम में लग जाती.. परंतु मेरे अक्ल पर तो जैसे पत्थर ही पड़ गए थे.. मैंने फिर से उसे फटकार लगाई थी.. थोड़ा प्राणायाम कर लिया करो.. इससे शरीर दुरुस्त रहता है..!!


इस बार उसने सपाट लफ्जों में.. मुझसे कहा था कि.. अगर योग और प्राणायाम से ही.. सभी बीमारियां ठीक हो जातीं तो.. आज मेडिकल साइंस ठप्प न पड़ जाता.. पढ़े-लिखे डॉक्टर बेरोज़गार न हो जाते..?? 


परंतु फिर भी मेरी आँखें नहीं खुल रही थी.. उसने बच्चों से भी कभी अपनी.. तकलीफ़ साझा नहीं की थी.. वे जब भी उससे बातें करते.. या छुट्टियों में यहाँ आते तो.. रमा को चुस्त-दुरुस्त पाते.. बहुत बड़ी कलाकार थी रमा.. !!


अभिनय तो जैसे उसके रग-रग में समाया हुआ था.... क्या मज़ाल थी कि कोई उसकी तकलीफ़ जरा सी भी भांप पाए.. इसीलिए मैं तो क्या.. बच्चे भी कभी नहीं समझ पाए कि.. उनकी माँ अब.. कुछ दिनों की ही मेहमान है..!! 


और फिर एक दिन रमा हम सबको.. रोता बिलखता छोड़कर.. हमेशा हमेशा के लिए शून्य में विलीन हो गई.. कुछ भी तो नहीं हुआ था उसे.. बस वही पुराना सीने का दर्द उठा और चंद मिनटों में ही.. काम तमाम हो गया.. किसी को अपने लिए कुछ करने का.. मौका भी नहीं दिया था उसने..!!


मैं मूर्तिवत.. उसे देखता ही रह गया था.. कितनी शांत और संतुष्ट लग रही थी मेरी रमा.. बच्चों को सूचना मिलते ही वे आए थे और.. अंत्येष्टि के सारे विधि-विधानों को.. पूर्ण करने के पश्चात.. मुझे अपने साथ ले जाना चाहा था.. परंतु मैं जा नहीं पाया..!! 


जिसने इतने सालों तक मेरा साथ निभाया था.. उसकी यादों को उस घर में.. अकेला छोड़कर मैं कैसे जा सकता था ?? इसीलिए नहीं गया.. साल भर तक तो मैंने किसी तरह से.. अपने आप को जब्त करके.. उस घर में रखा.. परंतु उसके बाद रमा के बिना.. एक क्षण भी वहाँ रहना.. मेरे लिए बेहद कष्टकारी सिद्ध हो रहा था..!!


अपने एक अभिन्न मित्र रमण के द्वारा.. जब मैंने मुक्तिधाम के बारे में सुना तो.. मुझे लगा कि.. शायद वहीं जाकर मेरी सद्गति होगी.. रमा के प्रति जाने अन्जाने.. मेरे द्वारा किए गए.. मेरे पापों से मुझे मुक्ति मिलेगी.. और मोक्ष की कामना नहीं है.. ऐसा नहीं कहूँगा.. परंतु यह बात भी उतनी ही सत्य है कि..... 


मोक्ष मिले ना मिले.. परंतु मुझे अपने आप पर इतना भरोसा है कि.. अपने घोर पश्चाताप द्वारा.. ऊपर जाकर मैं रमा को.. मुँह दिखाने के काबिल.. तो अवश्य ही बन जाऊँगा.. दूसरा साल भी बीतने पर है.. मैं बड़ी बेचारगी से.. [जाते हुए साल] को निहार रहा हूँ.. मन ही मन उससे.. अनुनय विनय कर रहा हूँ कि.. मुझे भी अपने साथ ले चलो... ले चलो.......!!!

🙏🙏🙏


              



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