Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Thriller Others

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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सीजन 2 - मेरे पापा (4)…

सीजन 2 - मेरे पापा (4)…

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डूबते को तिनके का सहारा मिला जैसे, मेरी दम तोड़ती कामनाएं पुनः जी उठी थीं। वे आ रहे हैं इस कल्पना से रोमांचित, अगली सुबह मैं किचन में पहुँच कर काम करते हुए गुनगुना रही थी - 

‘हम जब सिमट कर आपके बाँहों में आ गए, लाखों हसीन ख्वाब निगाहों में आ गए’

मम्मी जी ने मेरा ऐसे गुनगुनाना सुना था। वे भेदपूर्ण ढंग से मुस्कुरा रहीं थीं। मैंने कनखियों से यह देख लिया था फिर भी अनदेखा करते हुए, अपने सपनों को उमंगों के घोड़े पर सवार रहने दिया था। 

नाश्ते की टेबल पर जब सब चाय पी रहे थे। तब मेरे मोबाइल पर, सुशांत का कॉल आता दिखाई दिया। यह समय पापा या मम्मी जी को, सुशांत के कॉल करने का होता है। मैंने सशंकित होकर वॉइस कॉल लिया था। सुशांत कह रहे थे - 

सॉरी निकी, अभी तुरंत ही मैं नहीं आ पाऊंगा। अचानक ही मुझे, फ़्रांस से राफेल लाने वाली टीम में शामिल कर लिया गया है। अब इस काम के हो जाने पर ही मैं, अवकाश लेकर आ पाऊंगा। 

यह सुनते ही मेरे सपने चूर चूर हो गए थे। मरे से स्वर में मैंने कहा - जी, ड्यूटी फर्स्ट!

मेरी वाणी में दर्द से सुशांत समझ गए थे कि आगे उन्होंने कुछ कहा तो मैं, फोन पर ही रो पडूँगी। उन्होंने बाय कहा था। मेरा मुखड़ा बुझ गया था। देखने वालों को मेरे मुखड़े को देखकर यह लगता कि दमकते सूर्य के सामने अचानक काले बादल छा गए हैं। जिसमें सूर्य का दमकते दिखना अब रह नहीं पाया है। 

यह कॉल खत्म कर उन्होंने, पापा को कॉल किया था। पापा एवं उनमें बात होने लगी थी। इस मनोदशा में भी पापा के रिप्लाई सुनते हुए, मुझे समझ आ रहा था कि सुशांत, उन्हें अपने फ्रांस जाने की बात बता रहे हैं। फिर नैराश्य अतिरेक में उनमें क्या बात हो रही है उसके प्रति मैं उदासीन हो गई थी। 

मम्मी जी ने कुछ ही मिनट के अंतराल में मेरी दो बिलकुल ही विपरीत भाव-भंगिमाएं देखीं थीं। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि रात, सुशांत और मुझमें, उनके घर आने की बात हुई थी। अतः उन्हें कुछ समझ नहीं आ पाया था। 

जब पापा की कॉल पर बात पूरी हुई तो वे हर्षित हो बता रहे थे - पता है सारिका! तुम्हारा बेटा, राफेल जेट लाने के लिए फ़्रांस जा रहा है। 

कहने के साथ ही, पापा ने मुझे देखा था। निराशा का श्याम रंग, मेरे मुख पर देख, उन्होंने अनुमान लगाया था कि शायद, सुशांत के फ्रांस जाने से मैं, डर रही हूँ। उन्होंने मुझे ढाढ़स देने के लिए कहा - बेटी, इतना महत्वपूर्ण कार्य सुशांत को मिलना, हमारे लिए गर्व की बात है। इसमें डरने जैसी कोई बात नहीं है। 

पापा को मैं क्या कहती! यह तो कह नहीं सकती कि कल ही उन्होंने, मेरे मन में मिलन तथा उसके फलस्वरूप हमारे बेबी के होने की आशा जगाई थी। मैं डर नहीं रही थी, मैं टूट रही थी। मगर मुझे समझ आ रहा था कि आर्मी अफसर की पत्नी के लिए ऐसी आशा-निराशा में जीना, सब सहज-सामान्य बातें थीं। 

निर्भाव ही मैंने कहा - जी, पापा यह गर्व की बात है। 

पापा ने हँस कर कहा - बेटी, गर्व की बात ऐसे नहीं कही जाती है। 

कहते हुए वे नाटकीय ढंग से खड़े हो गए थे। फिर सीने को 56 इंच फुलाकर कहा - ऐसे कहो, 

‘पापा, आपको पता है? मेरे पतिदेव राफेल जेट लेने फ्रांस जा रहे हैं।’ 

पापा के ऐसे अभिनय पर, अनायास ही मैं हँस पड़ी थी। मम्मी जी भी हँसने लगी थीं। पापा, मुझे हँसा देने की अपनी कोशिश में सफल रहे थे। 

उस दिन ऑफिस में भी, निराशा मेरे मन पर हावी रही थी। और दिनों की अपेक्षा मैं अपने काम पर ध्यान कम ही केंद्रित कर पाई थी। उस रात डिनर के बीच पापा ने मुझसे कहा - 

रमणीक, इस वीक एन्ड में हम, तुम्हारी मम्मी को लेकर, तुम्हारी दीदी के घर चलते हैं। 

मैं समझ रही थी कि पापा के मन में इस टूर का विचार, मेरे उदास मन को प्रफुल्लित करने के लिए आया है। यह बात भी मुझे, पुलकित नहीं कर पा रही थी, मगर कुछ और कहकर मैंने पापा को दुःख पहुंचाना ठीक नहीं समझा था। अपने मनोभावों को नियंत्रित करते हुए मैंने स्वयं को खुश दिखाते हुए कहा - 

पापा, यह तो अत्यंत ही ख़ुशी की बात है। दीदी से मिले मुझे, बहुत दिन हो गए हैं। 

परिवार के बीच रहने में उचित-अनुचित की कितनी चिंता करनी होती है, यह जीवन में मिले अनुभवों ने मुझे पूर्व में ही समझा रखा था। मैं खुश हूँ या नहीं इससे परे रहकर मुझे पापा, मम्मी जी की ख़ुशी का विचार रखना ही था। आखिर, मैंने 11 वर्ष पहले खो दिए ‘मेरे पापा’ को इन पापा में पुनः जो पाया था। यह एहसास मुझमें सदा बना रहता था। 

रात सुशांत ने कॉल पर बताया था - 

रमणीक, फ्रांस के टूर पर रहते हुए, फ़्रांस और भारत के समय में जो अंतर होता है, उस कारण मैं, आपसे बहुत बात नहीं कर पाऊंगा। अब विस्तृत बातें, हममें मेरे भारत लौटने पर ही हो पाएंगी। 

ऊपर से मैं प्रसन्न दिखने का भरसक प्रयास कर रही थी। सुशांत तो मुझे, मुझसे अधिक जानने लगे थे। उन्हें मेरे आहत मनोवेग का भली भांति भान था। उन्होंने उपाय रूप में मुझे प्रसन्न करने के लिए तरह तरह की भाव भंगिमाएं एवं बातें बनाई थी। प्रकट में मैं, स्वयं को प्रसन्न होते दिखा भी रही थी। फिर भी सच कुछ और था। मुझे अब प्रसन्नता सिर्फ सुशांत के अंश का, अपने गर्भ में आने से मिलने वाली थी। मन में पलने लगे इस सपने को मैंने अब तक उनसे भी नहीं कहा था। 

अगले दिन सुशांत, फ्रांस रवाना हो गए थे। फिर शनिवार तक उनके कुछ ही कॉल आए थे। जिसमें वे संक्षिप्त में अपनी कुशल क्षेम हमें बता दिया करते थे ताकि हम सभी उनको लेकर चिंता न करें। 

तय नियोजित प्लान अनुसार रविवार को 3 घंटे तक, चलने के बाद हम सुबह 8.30 बजे दीदी के घर पहुँच गए थे। इस समय में पापा कार चलाते रहे थे, मम्मी जी को झपकी लग गई थी और मैं, जीजू को लेकर सोच रही थी। जीजू की कॉउंसलिंग करने का विचार, मेरे मन में अपने विवाह के पहले से चलता आया था। अभी जब जीजू, शुभ समाचार देने के लिए घर आए थे तब मैंने अपने इस विचार को स्थगित रखा था। जीजू तब, हमारे घर अतिथि थे। विवाह के बाद मैं यह जिम्मेदारी समझने लगी थी कि हमारे घर से सभी को आदर मिले। वहाँ अपनी बात मैं कहती तो जीजू, बुरा मानकर हो सकता है हमारे घर कभी न आने की कसम ले लेते। हमारे घर से उनका ऐसा वैमनस्य हो जाना मैं नहीं चाहती थी। अभी मैं सोच रही थी कि आज अगर अकेले में अवसर मिले तो मैं अपने विचार को क्रियान्वित करूंगी।  

हमें आया देखकर तथा हम सभी से मिलकर दीदी अत्यंत प्रसन्न हुईं थीं। 

जीजू ने कहा - गर्भ में पल रहे शिशु की दृष्टि से, इनका खुश रहना जरूरी है। आप लोग यहीं रहें तो ये खुश रहेंगी। जन्म लेने वाले बच्चे की दृष्टि से यह हितकर होगा। 

पापा हँसते हुए बोले थे - रमणीक का जॉब नहीं होता तो हम भी यहीं रहना चाहते, इससे हमें भी बहुत ख़ुशी मिलती। 

मैं समझ रही थी ये सब कहने सुनने में अच्छी लगने वाली बातें थीं। 

यह प्रसन्नता की बात यह थी कि मेरे विवाह वाले दिन से मैं, जीजू में अच्छा परिवर्तन होते देख रही थी। उस दिन जीजू की भी छुट्टी थी अतः सभी साथ मिलकर खाते-पीते आनंद उठा रहे थे। 

दीदी का पेट हल्का सा उभर आया था। मैं कभी उनके पेट पर हाथ रखती, कभी अपने कान लगाती और कभी उस पर चूम लेती थी। इससे बेबी की कुछ हरकतें, मुझे अनुभव होती थीं। 

दीदी बनावटी गुस्सा दिखला कर मुझे डाँटते हुए कहती - निकी तू यह बात याद रख, मुझ से मजाक करेगी तो तेरे बच्चे के समय मैं भी तुझे छोडूंगी नहीं। 

तब इस कल्पना से मैं रोमांचित हुई जा रही थी। मैंने हँसकर, दीदी को उत्तर दिया - 

हाँ, दीदी आप खूब मजाक कर लेना, मुझे तो बहुत आनंद आएगा। आखिर तब मेरे पेट में, सुशांत का अंश जो पल रहा होगा। 

दीदी ने अभिनय करते हुए मुझे झिड़क दिया - निकी, ऐसी निर्लज्ज तो तुम पहले कभी नहीं थी! 

मैं कहती - दीदी, सुशांत मेरे पतिदेव हैं, उनसे गर्भवती होने में भले, लज्जा का क्या कारण होगा?

दीदी ने हार मान ली और कहा - निकी, बहुत तेज हो गई हो, अपने आर्मी अफसर पति की संगत में। 

रुआँसी दिखते हुए मैंने कहा - दीदी, अभी मुझे, पूरी संगत कहाँ मिल पाई है उनकी! 

हमें पाँच बजे लौटना था। तीन बजे जीजू, पापा से कहते दिखाई दिए - पापा जी, मैं आधे-पौन घंटे में बाजार से आता हूँ। 

मैंने यह सुनते ही अपने लिए अवसर अनुभव किया और कहा - जीजू, मैं भी आपके साथ चलती हूँ। यहाँ का मार्किट थोड़ा मैं भी तो देखूँ कि कैसा है। 

मैं अब सुशांत की पत्नी, आत्मविश्वास से भरी कार में जीजू की साथ वाली सीट में बैठी थी। कार ड्राइव करते हुए जीजू ने मुझसे कहा - 

निकी, सॉरी। मैंने तब तुमसे, बहुत ही निकृष्ट बात कही थी। 

चौंकते हुए मैंने पूछा - 

आप अपनी इस गलती को कैसे रियलाइज कर पाए हैं? 

जीजू कार चलाते हुए बताने लगे थे - 

तुम्हारे विवाह तय करते समय, मेरी कही बातों के बाद, तुम्हारी दीदी ने मुझसे अकेले में कहा था 

‘आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? पापा के नहीं होने से, निकी हमारी भी जिम्मेदारी है। उसके लिए जब अनायास ही इतना अच्छा रिश्ता आया है तब आप उस पर आपत्ति क्यों जाता रहे हैं? मम्मी ने इतने स्पष्ट शब्द में जब कह दिया है कि पापा, आर्मी में नहीं थे तब भी तो उन्हें, अपने पति (हमारे पापा) को खो देना पड़ा था। ऐसे में सुशांत से निकी के विवाह होने से उन्हें कोई भय नहीं है। अब जब वे निकी की सहमति से निर्णय कर चुकी हैं तब आप अपनी ही जिद चलाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं।’

तुम्हारी दीदी की इन बातों ने तब मुझे विचार करने को प्रेरित किया था। तब ही मैंने अनुभव किया कि मेरे भीतर का निकृष्ट मानव छुप नहीं पा रहा है। इनके दिखाए दर्पण में, मैंने अपना कुरूप अंतर्मन देखा था। तब से मैं अपने को परिवर्तित करने के संकल्प पर काम करता रहा हूँ। 

जब मिष्ठान भंडार आया तो जीजू ने कार उसके सामने रोकी थी। मुझे यहाँ मार्केट देखने में कोई रूचि नहीं थी, यह जीजू से अकेले में बात करने का सिर्फ बहाना था। जीजू कार से उतरते हुए, मुझे भी साथ आने कह रहे थे। मैंने कहा - 

जीजू, यह काम आप ही कर लीजिए। 

जीजू के मुख पर असमंजस के भाव दिखे थे। वे कुछ समझ न सकने पर अपने दोनों कंधे उचकाते हुए, मिठाई लेने चले गए थे। तब अकेले कार में बैठी, मैं सोच रही रही थी कि दीदी भी तो मेरे पापा की ही बेटी थी। पापा से मिले संस्कार थे जिस कारण दीदी ने इतनी सूझबूझ भरी बातों से जीजू में सुधार प्रेरित कर दिया था।

जो मैं कह कर जीजू को आगाह करने का विचार रखती आई थी। वह काम मेरे बिना कहे ही दीदी पहले ही कर चुकीं थीं। मुझे यह भी मानना पड़ा था कि जीजू भी उतने बुरे, अपात्र व्यक्ति नहीं थे। जो कुछ अमर्यादित उन्होंने, मुझसे कहा था वह, समाज में अभी चल रही दूषित मानसिकता का, उन पर दुष्प्रभाव हुआ मुझे प्रतीत हो रहा था। सुबह के भूले, जीजू शाम को घर लौट आए थे। यह हमारे पारिवारिक एवं रिश्ते के हित में संतोष की बात थी। 

जो मिठाई जीजू लेकर आए थे वह हमारे लौटते समय, हमारे साथ रखी गईं थीं। वापसी की यात्रा में पापा जब कार चला रहे थे तब सुशांत का कॉल उनके मोबाइल पर आया था। इसे, पापा ने मुझे सुनने के लिए कहा था। मैंने अपने हृदय पर हाथ रखते हुए कॉल रिसीव किया था। 

सुशांत बता रहे थे कि वे, 29 जुलाई को राफेल लेकर भारत वापस पहुँचने वाले हैं। मैंने उन्हें बताया था कि पापा कार चला रहे हैं। हम अभी दीदी के घर से वापसी के रास्ते में हैं। यह सुनकर सुशांत ने कॉल जल्दी पूरा किया था। मैंने पापा सहित सभी को यह बात बता दी थी। 

29 जुलाई को तो तीन दिन ही बचे थे। इस विचार से अब मेरी अधमिची आँखों में सुदूर क्षितिज में अपने एवं सुशांत के साथ के रोमांटिक दृश्य दिखाई देने लगे थे। जल्द ही अब हमारे मिलन का संयोग बनेगा यह सोचते हुए मेरे होंठों पर स्मित एवं हृदय में उल्लास छा गया था। अब मेरा रोम रोम पुलक रहा था ….                                


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