HARSH TRIPATHI

Drama Thriller Tragedy

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HARSH TRIPATHI

Drama Thriller Tragedy

श्री कृष्ण-अर्जुन -- भाग-२

श्री कृष्ण-अर्जुन -- भाग-२

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श्री कृष्ण-अर्जुन -- भाग - २



अकबराबाद,......यानि हिंदुस्तान के सबसे बड़े सूबे का सबसे बड़ा जिला। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से पूरब की ओर लगभग १००-१२० किलोमीटर चलकर अकबराबाद आता था जो एक तरह से अवध और पूर्वांचल के सीमा बिंदु पर स्थित था। अवध के लोग इसको अवध में बताते थे, और पूर्वांचली इसको अपना बताते थे। १९९३-९४ में ही यहाँ की आबादी लगभग ४२ लाख हुआ करती थी। प्राचीन इतिहास में इस जगह को 'गंगा प्रयाग' कहा गया है क्योंकि यह गंगा-यमुना के संगम पर बसा हुआ है. मध्यकाल में इसका नाम बदलकर अकबराबाद कर दिया गया। फिर सदियों तक इसे अकबराबाद के नाम से ही जाना जाता रहा है। अभी हाल में ही २०१८ में जब विधान सभा चुनाव हुए तो राष्ट्रीय श्रमशक्ति पार्टी की लंबे अरसे बाद सत्ता में वापसी हुई, नई सरकार ने ज़िले का नाम बदलकर अब आज़ादनगर कर दिया है। यह आज़ादी की लड़ाई के दिनों में हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन संगठन के मशहूर क्रांतिकारी श्री सूर्य शेखर शुक्ल 'आज़ाद' के नाम पर रखा गया है जिन्होंने ब्रिटिश पुलिस से अकेले ही लड़ते हुए इसी ज़िले के कंपनी बाग़ में शहादत दी थी। ज़िले का नाम बदलना पार्टी के घोषणा-पत्र में काफी समय से चल रहा था, इस बार जब सत्ता मिली तो यही काम पहले हुआ। हालाँकि पुराने लोगों, कई पीढ़ियों, जिसमे बड़ी तादात में नौजवान भी शामिल थे , उनको अकबराबाद नाम से ही बहुत ज़्यादा मोहब्बत थी। वे कहते थे कि अकबराबाद नाम लेने में ज़बान में मिठास आती है, ज़ेहन में ताज़गी आती है। काफी दूसरे लोग भी थे जिनको नाम बदलना रास नहीं आ रहा है और वो इसे एक राजनीतिक स्टंट ज़्यादा मानते हैं . उनका यह बोलना है कि नाम बदलने से कुछ नहीं होता बल्कि शहर की बुनियादी , वास्तविक कमियां दूर करने के, ईमानदारी से प्रयास सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। कुछ अन्य लोग भी हैं जो सरकार के इस कदम का दृढ़तासे समर्थन करते हैं।


सरकार के किसी भी फैसले के आलोचक और समर्थक होते ही है, बहरहाल।


देश के सबसे बड़े प्रदेश के इस सबसे बड़े ज़िले की हर बात सबसे बड़ी और निराली थी। अकबराबाद का ऐतिहासिक व राजनीतिक दर्जा बहुत ही ऊँचा था। आज़ादी की लड़ाई के दिनों में यह शहर बड़ी राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। नेहरू जी का घर भी यहीं था। देश के बड़े,दिग्गज नेताओं का यहां आना-जाना लगा ही होता था और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के भी कई महत्वपूर्ण अधिवेशन भी यहां हुए थे जिसमे अहम् फैसले लिए गए थे। आज़ादी के बाद अकबराबाद के रुतबे और रसूख में और इज़ाफ़ा हुआ। यहां की फूलपुर लोकसभा सीट से नेहरू जी, जब तक जिये, लगातार सांसद चुने जाते रहे। उसके बाद भी अकबराबाद काफी महत्वपूर्ण बना रहा तथा यहां के सांसद व विधायक क्रमशः भारत सरकार और उत्तर प्रदेश की कैबिनेट में समय-समय पर अति महत्वपूर्ण मंत्रालयों का काम संभालते रहे थे।

प्रदेश का हाईकोर्ट अकबराबाद में ही था, जो देश का सबसे बड़ा, प्रतिष्ठित तथा पुराना हाईकोर्ट था। इसके कारण बड़ी संख्या में जज तथा, दिग्गज वकील , चीफ जस्टिस भी भी यहां रहा करते थे। प्रदेश का लोक सेवा आयोग भी यहीं था. प्रदेश की प्रशासनिक व पुलिस ट्रेनिंग अकादमियां भी यहीं थीं। अकबराबाद विश्वविद्यालय १८६० ई. में स्थापित हुआ था, वह देश के सबसे पुराने व प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में एक था। वह संस्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व बंगाल तक के लाखों युवाओं के लिए अपने सपने पूरे करने और अपनी तक़दीर संवारने के साथ-साथ मुल्क की तक़दीर बदलने के उनके ख़्वाबों को उड़ान देने का एक जरिया था। केवल यूनिवर्सिटी ही नहीं, कई अति नामी-गिरामी डिग्री कॉलेज, दो इंजीनियरिंग कॉलेज , एक मेडिकल कॉलेज, तीन पॉलीटेक्निक कॉलेज भी इस शहर में थे जहां बड़ी तादात में युवा पढ़ते थे. रिटायरमेंट के बाद लोगों के बसने की प्राथमिकता में अकबराबाद का नाम सबसे ऊपर होता था। अकबराबाद का रुतबा केवल इसी बात से पता लगता था कि इस ज़िले ने भारत को ३-३ प्रधानमंत्री, दर्जनों कैबिनेट मंत्री व न जाने कितने ही आई.ए.एस., आई.पी.एस., व पी.सी.एस. अधिकारी दिए थे। १९९३-९४ में अकबराबाद में ४ लोकसभा सीटें शहर उत्तरी (फूलपुर), शहर पश्चिमी, शहर दक्षिणी, व शहर केंद्रीय थीं, जिनमे कुल ८ विधानसभा सीटें शामिल थीं। इसी में से शहर केंद्रीय सीट पर सांसद थे श्री बिंध्येश्वरी प्रसाद पाठक जी।


पाठक जी को अगर अकबराबाद की समकालीन राजनीति का शिखर पुरुष कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ज़िले की फूलपुर विधान सभा सीट से वह लगातार ३ दफा विधायक रहे और प्रदेश कैबिनेट में दो बार मंत्री भी। इतने पर जब लोकसभा का टिकट नहीं मिला तो पुरानी पार्टी से बग़ावत कर दी और अपने अत्यंत विश्वासपात्र सहयोगियों जैसे कृष्णा प्रसाद मिश्र, उज्जवल सिंह आदि के साथ मिलकर नई पार्टी ,राष्ट्रीय श्रमशक्ति पार्टी खड़ी की और लोकसभा के समर में कूद पड़े। तब से लेकर अब तक लगातार ४ लोकसभा चुनाव पाठक जी शहर केंद्रीय लोकसभा सीट से जीत चुके थे। इस क्रम में वह केंद्रीय कैबिनेट में २ बार मंत्री भी रहे थे। इस बार भी उन्हें मंत्री पद का ऑफर था लेकिन लगातार गिरती तबियत के कारण उन्होंने इस बार मंत्री होने से स्वयं ही इंकार कर दिया था। अपने अति कुशल राजनीतिक कला-कौशल के कारण ही वह देश के इस सबसे बड़े व राजनीतिक रूप से अति महत्वपूर्ण प्रदेश में अपनी पार्टी को सत्ता में ला पाए, साथ-साथ पिछले २ बार से वह केंद्रीय गठबंधन सरकारों में भी साझीदार थे। उड़ती चिड़िया के पर गिनने में महारथ रखते थे पाठक जी। गठबंधन राजनीति के आने वाले दौर को उन्होंने काफी पहले ही देख लिया था। आस-पास के अन्य प्रदेशों में भी उनकी पार्टी पिछले कई चुनावों से लगातार अच्छा करती आ रही थी। इसका मतलब ये कि पार्टी भी उनके लिए कोई ख़ास वक़त नहीं रखती थी। अगर वह किसी दूसरी पार्टी में शामिल होकर, या निर्दलीय भी , आज लोकसभा चुनाव लड़ जाएँ तो आज भी जीत ही जायेंगे। उनके लिए पक्ष या विपक्ष भी ख़ास मायने नहीं रखता था. हर पार्टी के नेता, चाहे बड़े हों या छोटे, हमेशा पाठक जी के चरण स्पर्श ही करना चाहते थे।


पाठक जी ने ये अपार राजनीतिक सफलता बड़े जतन से अर्जित की थी. शुरू से ही पाठक जी ने गरीब, किसानों, मज़दूरों,के मुद्दों पर अपना फोकस बनाये रखा. वे लगातार इन्ही कमज़ोर वर्गों के लिए काम करते हुए नज़र आते थे, और बदले में इस वर्ग की वफादारी भी उन्हें खूब मिलती थी। तीन बार एक ही पार्टी से चुनाव जीतकर , पुरानी पार्टी छोड़कर नयी पार्टी बनाना मज़ाक नहीं था, लेकिन पाठक जी जानते थे कि उनका वोट बैंक उनसे अलग नहीं जायेगा। और बिलकुल ऐसा ही हुआ भी , पार्टी का नाम श्रमशक्ति पार्टी रख के उन्होंने ये स्पष्ट किया कि उनका एजेंडा क्या होगा। वह लगातार इसी वर्ग के हित के मुद्दे उठाते थे चाहे यह खुद उन्ही की पार्टी के हितों के खिलाफ हो। पार्टी कभी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रही बल्कि उनका एकमात्र सपना अकबराबाद की राजनीति का बेताज बादशाह बनना था और ये काम इसी अशिक्षित, ग्रामीण ,मज़दूर,किसान वर्ग के द्वारा संभव हो सकता था। ऐसा नहीं था कि पाठक जी इन वर्गों के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे, या करुणा, दया का ज्वार उनके भीतर उमड़ता था या वह इस वर्ग से भावनात्मक लगाव रखते थे बल्कि यह शुद्ध रूप से एक राजनीतिक दूरदर्शिता, एक राजनीतिक फैसला था जो सीधी सी गणित पर आधारित था। किसान, मज़दूर तथा वंचित वर्ग संख्या में ज़्यादा थे। भारत की चुनाव प्रणाली के अनुसार गणित यह कहता था कि जिसे भी ग्रामीण आबादी से समर्थन मिल जाये वो सत्ता की सीढ़ियां आराम से चढ़ जाएगा। पाठक जी ने इसी गणित को अप्लाई किया अपने पूरे राजनीतिक जीवन में, जिसका नतीजा आज यही है कि पाठक जी अकबराबाद और पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति के वास्तव में बेताज बादशाह ही थे। उन्होंने राजनीतिशास्त्र की अरस्तू की परिभाषा को शब्दशः अपनी राजनीति में उतारा था कि "राजनीति असल में सत्ता प्राप्त करने और उसे अपने पास क़ायम रखने की कला है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। "


पाठक जी के परिवार में चार सदस्य थे. वह खुद, उनकी धर्मपत्नी रजनी देवी पाठक, बेटी गीतिका पाठक और उनके पूरे परिवार का सबसे बड़ा सिरदर्द, उनका एकलौता लड़का वैभव पाठक। पढ़ने में ऐसा फिसड्डी कि अकबराबाद यूनिवर्सिटी या अकबराबाद के किसी भी डिग्री कॉलेज में उसका दाखिला नहीं हुआ था, उसने किसी पत्राचार पाठ्यक्रम से अपनी पढ़ाई, द्वितीय श्रेणी में बी.ए. पास, पूरी की। उम्र कहीं से भी कम नहीं थी उसकी, लेकिन आचरण और चाल -चलन ऐसे घटिया कि न जाने कितनी ही बार पाठक जी को उसकी वजह से लोगों के आगे हाथ जोड़ने पड़े थे। औलाद चीज़ ही है ऐसी, आदमी सबसे जीत जाता है ,अपनी औलाद से हार जाता है। अकबराबाद के पुलिस कमिश्नर को बुलाना, अलग-अलग थानों के प्रभारियों को बोलना, अकबराबाद के एस.पी. आदि को बुलाना, और बुलाकर वैभव के घटिया कारनामों की फाईलें दबवाना , ये वो काम थे जो पाठक जी को अक्सर , आये दिन करने पड़ते थे। जुआ, शराब, वेश्यावृत्ति, रंगदारी वसूलना, भरी दोपहरी में बीच बाजार मार-पीट करना, अपने बाप के नाम की धमकी देना "जानता है मै कौन हूँ?......वैभव पाठक नाम है मेरा,....... पाठक जी का लड़का हूँ मै........खाल खिंचवा लूंगा तेरी हरामखोर!!...." यूनिवर्सिटी में कभी भी घुस कर उत्पात मचाना, लड़कियों के साथ बदतमीज़ी करना, गर्ल्स हॉस्टल तक में जाकर मार-पीट करना, प्रतिबंधित ड्रग्स का सेवन, तस्करी मतलब ऐसा कोई अवगुण बाकी नहीं था जो वैभव पाठक के अंदर नहीं था। यूनिवर्सिटी के हॉस्टलों और होटलों में वह सेक्स रैकेट भी चलाता था, ये शिकायत भी पाठक जी के पास आ चुकी थी। उसके कई दोस्त थे जो आस-पास के ज़िलों और लखनऊ में ऊँचे पदों पर कार्यरत अधिकारी थे। उन ज़िलों में और लखनऊ में वे लोग हमेशा काम और अपने सीनियर अधिकारियों, बीवी-बच्चों की बंदिश में रहते थे, ठरक मिटाने का कोई रास्ता नहीं मिलता था। ऐसे में वे वैभव को फोन करते थे जो यूनिवर्सिटी के हॉस्टलों और अकबराबाद के होटलों में उनके लिए बंदोबस्त करवाता था। पाठक जी के आगे तो कोई वैभव को लेकर कभी कुछ नहीं बोलता था, लेकिन पीठ पीछे वैभव के लिए लोग केवल गालियों का ही इस्तेमाल करते थे, जिसमे पाठक जी की अपनी ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी शामिल थे, और खास बात ये थी कि ये सब कुछ पाठक जी को बिलकुल स्पष्ट पता था। अपने घर आने वाले श्रमशक्ति पार्टी के कार्यकर्ता और नेताओं को वैभव नौकर ही समझता था. कई वाकये तो ऐसे भी पेश आये थे उसने किसी नेता या कार्यकर्ता को ये भी बोला था "अबे सूअर!!........वो मेरा जूता रखा है उधर, इधर ले आ उसको" तब किसी नेता या कार्यकर्ता ने वैभव के पैर में जूते भी पहनाये थे। पाठक जी के राजनीतिक विरोधी भी हमेशा वैभव का नाम लेकर उन पर निशाना लगाते थे, तब पाठक जी उन लोगों के साथ अपने व्यक्तिगत मधुर संबंधों का हवाला देकर मामले को शांत करते थे।


वैभव के कुकर्मों के कारण पाठक जी को काफी भुगतना पड़ता था लेकिन उस दानव पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। पाठक जी ने उसके लिए ठेकेदारी का भी इंतज़ाम किया और एक अच्छी सी लड़की, बीना शर्मा को देख कर उसकी शादी भी कर दी थी कि वह अपने व्यसनों और कुकर्मों से मुँह मोड़कर घर-परिवार पर ध्यान दे लेकिन वह अपनी शादी भी नहीं संभाल सका। देर रात घर आकर भूखी-प्यासी बीवी के साथ मार-पीट करना , शराब पीकर गाली-गलौज करना ,दूसरी महिलाओं के साथ नाजायज़ ताल्लुक़ात , बीवी का अपने मायके वालों से शिकायत करना , और मायके वालों का पाठक जी और रजनी देवी से शिकायत करना, ये भी आये दिन का काम हो गया था। ३ साल में ही उसकी पत्नी उस से इतनी त्रस्त हो गयी कि अपनी २ साल की लड़की को लेकर अपने मायके कानपुर चली गई थी। पिछले ३ साल से वह वहीं थी और स्कूल टीचर की नौकरी कर रही थी । बीना ,पाठक जी और रजनी देवी को कभी-कभी फोन करती थी लेकिन वैभव से उसने ३ साल से कोई भी बात नहीं की थी, हैरत ये थी कि वैभव को इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ता था। लोग ताज्जुब करते थे कि क्या इसको पता भी है कि इसके बीवी और एक बेटी भी है?

लेकिन माँ रजनी देवी जी वैभव की कभी कोई गलती नहीं मानती थीं. वो उनका एकलौता बेटा था और ये बात उनके लिए सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण थी। वह वैभव को शहर केंद्रीय लोकसभा सीट का भावी सांसद ही समझती थीं। वैभव की हर शिकायत पर वह हमेशा दूसरे की ही गलती निकालती थीं ,जैसे ".....वैभव अब शराब नहीं पीता,......... किसी जिगरी दोस्त ने बैठा के पिला दी होगी तो पी ली होगी, वो भी महीने-दो-महीने में एक बार....", "वैभव कभी जुआ नहीं खेलता है, लोग मेरे बेटे के पीछे पड़े हुए हैं", "इन लोगों से वैभव का ठेकेदारी का सफल और मालदार बिजनेस हज़म नहीं होता है, इसलिए ये लोग ऐसी घटिया बातें करते हैं", और भी कई तरीकों और तर्कों से से वो वैभव को हमेशा बचाने की कोशिश करतीं। उसकी पारिवारिक ज़िंदगी बर्बाद होने के पीछे भी वो बीना को ही ज़िम्मेदार बतातीं "अरे वो लड़की ही ख़राब थी........पाठक जी ने पता नहीं क्या देखा था उसमे?.........वैभव से ज़्यादा वैभव के दोस्तों से हँस-हँस कर बात करती थी वो, और वैभव को खाने दौड़ती थी........... बताओ ऐसा अच्छा लगता है क्या कि शादी शुदा औरत ऐसा करे?........और मियाँ-बीवी में छोटी-मोटी अनबन तो होती भी रहती है........किस के घर नहीं होती , बताओ?........ एक-दो थप्पड़ भी पड़ गए तो ऐसा क्या हो गया?,...... अरे वो पति है, क्या उसका इतना भी हक़ नहीं है?.......तुम औरत हो, तुमको तो सहनशील होना चाहिए, औरत का दिल बहुत बड़ा होना चाहिए। भगवान ने औरत को बनाया तो कुछ सोच कर बनाया है........औरत के लिए समाज ने कुछ नियम तय किये हैं, तो कुछ सोच कर ही तो किये होंगे,........ये क्या मतलब है कि तुम घर छोड़कर ही चली जाओ वो भी ३ ही साल में? , और वैसे भी............ लड़की ही तो पैदा की थी न?"


जितनी पाठक जी को अपने लड़के वैभव से शिकायत थी, उतना ही वो अपनी बेटी गीतिका पर बलिहारी हुए जाते थे। गीतिका थी भी वैसी ही. पाठक जी की परछाईं ही समझो उसे. पढ़ने- लिखने में तो लाजवाब थी वो, पूरी पढ़ाई अकबराबाद यूनिवर्सिटी से ही हुई थी उसकी और वो भी लगातार फर्स्ट क्लास में, बी.ए., एम.ए., एम.फिल. , एल.एल.बी. सब। हाईकोर्ट में बेहद तेज़-तर्रार वकीलों में उसकी गिनती होती थी। अखबारों में उसके लेख भी छपते थे। यही नहीं, पाठक जी के साथ अक्सर ही वह उनके चुनाव क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों के दौरे पर भी जाती रहती थी। इस से, हर कोई उसे जानता था और लोग, ख़ासतौर पर किसान, मज़दूर, विधवाएं, बच्चे तक उसके सामने अपनी समस्याएं भी बेबाकी से रखते थे। गीतिका का प्रभावशाली व्यक्तित्व, ओजस्वी वाणी और भाषण कला-कौशल तथा अति सरल, गरिमामयी व्यवहार व आचरण उसे लोगों का और भी ज़्यादा प्रिय बना देता था। इसी कारण पाठक जी को, तथा पार्टी के सभी नेताओं, कायकर्ताओं को गीतिका बहुत पसंद थी। लेकिन भाई वैभव व माँ रजनी देवी से गीतिका के सम्बन्ध अत्यंत तनावपूर्ण व कटु थे। गीतिका उन दोनों से कोई भी बात करना सख्त नापसंद करती थी, और यही रवैया दूसरी तरफ से भी था। पाठक जी को ये बातें भी अच्छे से पता थीं। पाठक जी ने गीतिका की शादी प्रदेश के काफी बड़े रियल एस्टेट व्यवसायी रतन अग्रवाल के सुपुत्र नंदन अग्रवाल से कर दी थी , इसमें भी माँ और बेटे को ऐतराज़ ही था। कहते तो वह यही थे कि "ब्राह्मण होकर बनिया के घर शादी कर दी", लेकिन असल बात ये थी कि ऐतराज़ इस बात से ज़्यादा था कि उस लड़की के लिए बड़ा पैसे वाला घर और एकलौता लड़का खोजा था पाठक जी ने। पाठक जी भी घाघ थे, बात किसानों, मज़दूरों के हित की करते थे लेकिन बेटी की शादी ठोक-बजा कर, अमीर रियल एस्टेट कारोबारी के एकलौते लड़के से की। अपनी अकेली बेटी ससुराल जाकर खुश रहे और उसे सम्पदा और ऐश्वर्य की कोई कमी न हो , ऐसा सोचने के साथ-साथ वो ये भी समीकरण रखते थे कि पार्टी फण्ड के लिए बेटी के ससुराल से अच्छा खासा चन्दा भी आएगा। इस तरह से ये बात भी उनके दिमाग में हमेशा से थी. गीतिका और नंदन की शादी को ३ साल हो रहे थे और उनकी २ साल की एक बेटी भी थी। गीतिका पाठक जी का काफी काम देखती थी और ससुराल भी ज़्यादा दूर नहीं थी उसकी, अकबराबाद शहर में ही थी इसलिए वह काफी समय अपने मायके में भी बिताती थी। किसी-किसी दिन तो दिन में कई बार वो मायके और ससुराल दोनों के चक्कर लगाती थी।


पाठक जी के सबसे विश्वस्त सहयोगी जिस पर पाठक जी आँख बंद करके भरोसा करते थे बल्कि उन्हें छोटे भाई से भी ज़्यादा ही कुछ मानते थे, वह थे कृष्णा प्रसाद मिश्रा जिन्हे सभी प्यार से "कृष्णा बाबू " कहते थे। कृष्णा बाबू , पाठक जी के सहयोगी तब से थे जब पाठक जी विधायक भी नहीं हुआ करते थे बल्कि अकबराबाद यूनिवर्सिटी में मामूली से छात्र नेता थे। जब पाठक जी दूसरी बार विधायक बने थे और प्रदेश कैबिनेट में जगह मिली तो , कृष्णा बाबू को उन्होंने विधान परिषद् में भिजवा दिया। अगली बार कृष्णा बाबू मेजा विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़े और जीत कर पाठक जी के साथ ही विधान सभा पहुंचे। पाठक जी जब लोकसभा टिकट न मिलने पर अपनी पार्टी के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे तो कृष्णा बाबू ने उनका पूरा साथ दिया और दोनों ने मिलकर एक नयी पार्टी "राष्ट्रीय श्रमशक्ति पार्टी" की नींव डाली। पाठक जी ने फूलपुर विधानसभा सीट कृष्णा बाबू के लिए छोड़ दी तथा स्वयं शहर केंद्रीय लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा जिसमे वह विजयी रहे। तब से अब तक वह शहर केंद्रीय से लोकसभा चुनाव व कृष्णा बाबू फूलपुर से विधानसभा चुनाव जीत ही रहे थे। कृष्णा बाबू की सांगठनिक क्षमता बेजोड़ थी जिसके कारण उनको पार्टी को विभिन्न स्थानों पर मज़बूत करने का काम दिया गया और इसको उन्होंने बखूबी निभाया भी। उन्होंने कभी कोई मंत्री पद नहीं लिया और संगठन के लिए ही काम किया। इसी का नतीजा था कि पार्टी बाकी क्षेत्रों में भी मज़बूती से पैर जमा रही थी। प्रदेश की नई बनी सरकार में अवश्य इस बार उन्हें कैबिनेट मंत्री पद दे दिया गया था।

कृष्णा बाबू का एक ही बेटा था - विजयराज मिश्रा। विजय बहुत साधारण ढंग से पला-बढ़ा था तथा पढ़ने-लिखने में आरम्भ से ही काफी तेज़ था। अकबराबाद यूनिवर्सिटी से ही उसकी पूरी पढ़ाई हुई थी तथा उसकी सभी डिग्रियां प्रथम श्रेणी में ही थीं। बी.ए., एम.ए., एम.फिल. तथा पी.एचडी तक की उसने पढ़ाई की थी तथा इस दौरान उसे प्रतिष्ठित फुलब्राइट छात्रवृत्ति भी मिली थी। वह अकबराबाद यूनिवर्सिटी की छात्रसंघ का उपाध्यक्ष भी रहा था तथा अपनी किसी भी विषय पर अपनी पकड़, गहरी जानकारी , वाद-विवाद करने की बेजोड़ क्षमता, अपने बेहद तीक्ष्ण तर्कों, अपनी भाषण कला-कौशल के कारण विख्यात था।


विजय मुख्यतः वामपंथी विचारों से प्रभावित युवा था जिसे किसानों, मज़दूरों,विकलांगों, पेंशनधारियों, विधवाओं के साथ बड़ी सहानुभूति रहती थी और वह हमेशा इन वर्गों के लिए कुछ सार्थक करने के बारे में सोचा करता था। अपने साथियों, व पिताजी के पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ वह दूर-दराज़ के गावों में जाता रहता था, वहाँ के लोगों की समस्याएँ सुनता था, उन्हें नोट करता था, वापस आकर उन पर रिसर्च करता था और फिर उसे अपने पिताजी व पाठक जी के आगे प्रस्तुत करता था। इस विषय पर अखबारों में वह लेख भी लिखा करता था। उसके काम से उसके पिताजी व पाठक जी भी बड़े खुश होते थे कि इसी तरीके से पार्टी का नाम और प्रतिष्ठा भी लगातार बढ़ रही थी. पाठक जी के मन में उसको देख कर कई बार ये बात आती थी कि काश! वैभव की बजाय विजय उनका लड़का होता। वह अक्सर मज़ाक में कृष्णा बाबू से कहते थे "कुछ अच्छे कर्म किये होंगे आपने कृष्णा बाबू जो ऐसी औलाद मिली।" पार्टी के लोग भी विजय को पाठक जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर ही देखते थे। कृष्णा बाबू भी अंदर से ऐसा ही चाहते थे लेकिन अपनी ज़बान से कभी भी , गलती से या मज़ाक में भी , किसी के आगे उन्होंने ऐसा कुछ भी कहा नहीं। उनके दिमाग में वैभव भी हमेशा रहता था कि पाठक जी अपने लड़के को अधिक वरीयता देंगे, इस कारण कृष्णा बाबू चुप ही रहते थे और इस सवाल को टाल जाते थे।

लेकिन विजय को पार्टी की प्रतिष्ठा और नाम से कहीं ज़्यादा उन कमज़ोर,बेसहारा लोगों की समस्याओं के समाधान में दिलचस्पी थी जिसके लिए हमेशा उसका मन उसे परेशान और उद्विग्न रखता था. शादी-ब्याह करने में कभी भी उसकी कोई रूचि नहीं थी, उसके इस विचार को कृष्णा बाबू बेहद अव्यवहारिक समझते थे तथा विजय से अक्सर ही बहस करते थे "शादी क्यों नहीं करनी?........क्या शादी करके लोग अपने काम नहीं करते?........या शादी करके लोग सफल नहीं होते?.......या फिर शादी करने वाले बेवकूफ होते हैं?.......पाठक जी को देख लो, अपने बाप को देख लो.......क्या हम लोग ने नहीं की शादी?........और सुनो विजय!! मै और तुम्हारी माँ शादी नहीं करते तो तुम पैदा नहीं होते। मेरी बात का नहीं तो कम से कम अपनी माँ की लगातार गिरती तबियत का तो ख़याल करो......... वो अपनी बहू को देखना चाहती है, और वही क्यों, हर माँ-बाप अपने बच्चों की शादी होना, और उनका खुशहाल घर-परिवार देखना चाहते हैं........ हम लोग भी इसका कोई अपवाद तो नहीं हैं। आखिर हमें भी तो खुश होने और तुम्हारी खुशी देखने का हक़ है ?.......ये हक़ हमसे क्यों छीन रहे हो?" दरअसल विजय की माँ दिल की गंभीर बीमारी से पीड़ित थीं और जल्दी ही उसकी शादी चाहतीं थीं। कृष्णा बाबू ने अपने बचपन के दोस्त सुरेन्द्र मोहन जी की बेटी छाया को उसके लिए पसंद किया था और उसकी शादी कर दी थी। यद्यपि विजय शादी के लिए तैयार नहीं था लेकिन एक बार शादी होने पर, उसने तय किया कि वह इस शादी को बहुत अच्छे ढंग से, जैसे दुनिया में लोग शादी निभाते हैं, वैसे निभाएगा। विजय की ३ साल की एक बेटी भी थी. विजय की शादी के लगभग एक साल बाद ही उसकी माँ चल बसीं।


विजय की पत्नी छाया लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ी थी और ज़बरदस्त रूप से भौतिकवादी और महत्वाकांक्षी महिला थी। अपने पति का सादा जीवन, आदर्श और काम उसकी समझ नहीं आते थे। छात्र जीवन में उसकी दोस्ती-यारी जिन छात्र-छात्राओं से थी वो सभी ऐसे ही थे और आगे जाकर कोई किसी मल्टी-नैशनल कंपनी में ऊँचे पद पर पहुंचा, किसी ने बिजनेस में तरक्की की, कोई विदेश चला गया.......जबकि छाया की शादी विजय से हो गई थी जिसे इन सब भौतिकवादी मामलों से कोई सरोकार नहीं था। इस कारण छाया व्यथित और हताश रहती थी। उसने विजय से शादी के लिए इसलिए हामी भरी थी क्योंकि वह ४ बार विधायक रहे, श्रमशक्ति पार्टी के दिग्गज नेता का लड़का था, जिसकी काफी ज़्यादा तारीफ़, उभरते हुए बेहद मज़बूत युवा नेता के तौर पर होती थी। उसकी जनलोकप्रियता भी अधिक थी और महत्वपूर्ण रूप से, इस परिवार के पाठक परिवार से काफी अच्छे और पुराने सम्बन्ध थे। लेकिन शादी के बाद विजय के विचारों और तरीकों से वह खुद को परेशान महसूस करती थी। अपने पुराने दोस्तों के बारे में सुनकर उसे अपनी हालत के बारे में बुरा ही लगता था। निराश होकर काफी बार वह विजय से अपने कमरे में बहस भी करती थी "......गरीब और बेसहारा लोगों का ठेका तुमने ही लिया हुआ है क्या?........ पॉलिटिक्स में लोग अपना और अपने घर-परिवार का फायदा देखते हैं, कितने पैसे बनाते हैं, कितने आराम और सुख से रहते हैं........किसी को भी देख लो तुम.......वैभव पाठक जैसे नालायक और निकम्मे को ही ले लो........और अपने बारे में सोचो,......विजय प्लीज़ तुम आगे बढ़ो, मुझसे तुमको जो सहायता चाहिए होगी , मै करूंगी। लेकिन तुमको अपनी सोच बदलनी चाहिए। बीवी है तुम्हारी , और एक बेटी भी है जो कल बड़ी होगी,.......हमारे दूसरे भी बच्चे होंगे ही ,......... तुमको इस लिहाज से भी सोचना चाहिए। आखिर कब तक अपने आदर्शों के नीचे दबे रहोगे , जिनकी आज की दुनिया में कहीं कोई क़द्र नहीं है?.......तुम पापा से बात तो करो एक बार कि तुमको भी विधायक और सांसद बनना है और वो भी जल्दी,.......वरना तुम वैभव जैसे आदमियों से, बाकी कई दिग्गज नेताओं के निकम्मे लड़कों से कई गुना अधिक काबिल होने के बावजूद बहुत पीछे रह जाओगे"।

विजय इसका उत्तर देते "देखो छाया ,मैं अपना काम तो कर ही रहा हूँ, ये बात पार्टी में सबको, पाठक जी को भी, अच्छे से पता है और उनको ये भी पता है कि वैभव या उसके जैसे लोग, न कुछ कर रहे हैं, न कुछ कर सकते हैं। मुझे मेरा ड्यू ज़रूर मिल जायेगा एक न एक दिन, बस ये मनाओ कि मैं काम अच्छा करता रहूं। और रही बात कमज़ोर, बेसहारा लोगों के लिए काम करने की , तो वह मै किसी पद या तारीफ की लालच में नहीं करता, बल्कि ऐसा करके मुझे सुकून मिलता है, मुझे अच्छा लगता है। आज मै कृष्णा बाबू का लड़का हूँ ये एक इत्तेफ़ाक़ है। मै किसी झुग्गी-झोपड़ी वाले का भी लड़का हो सकता था, तब शायद मै आठवीं भी पास नहीं हो सकता था। यूनिवर्सिटी, पी.एचडी और फुलब्राइट की तो बात ही छोड़ो। मै जो भी कुछ कर रहा हूँ, मुझे लगता है कि भगवान् के यहां इसका रिकॉर्ड तो रखा ही जा रहा होगा शायद,.........सब कहते हैं कि उसके घर अंधेर नहीं है, मतलब मेरे साथ भी गलत नहीं होगा कुछ........पुरस्कार तो मिलेगा मुझे , ये हो सकता है कि समय ज़्यादा लग जाये। एक बेटी होने पर भी यह बात सही है...........और दूसरी बेटी होने पर भी यह बात सही ज़रूर होगी"। और इस तरह से विजय हमेशा छाया को निरुत्तर कर देता था।

छाया विजय के इसी रवैय्ये को लेकर, विजय की बेफिक्री को लेकर परेशान रहती थी. वह कहती थी "विजय, कितने भोले और नादान हो तुम........ऐसा कैसे हो सकता है? यू आर इन दिस ब्लडी, डर्टी पॉलिटिक्स!!........यहां आगे बढ़ने के लिए किसी दूसरे के सिर पर पैर रखना ही पड़ता है, वरना तुम्हारा सिर किसी के पैर के नीचे आ जायेगा। पाठक जी को ही ले लो.......अगर उन्होंने पुरानी पार्टी नहीं छोड़ी होती, नयी पार्टी नहीं बनायी होती तो क्या होता ?.......मामूली विधायक बन कर ही रह जाते वो........और आज देखो, ४-४ बार से सांसद हैं, २ बार कैबिनेट मंत्री रह चुके वो अलग, प्रदेश में भी उनकी पार्टी पावर में है, लखनऊ से दिल्ली तक पूरी हनक है उनकी। यू शुड डेफिनेटली थिंक अबाउट इट......मै यह नहीं कह रही कि तुम पार्टी छोड़ दो, या फिर तुमको जिसमे खुशी मिलती है वो काम छोड़ दो, लेकिन मै यह ज़रूर कहूंगी कि पार्टी के लोगों को, तुम्हारी अहमियत का एहसास होना चाहिए, नहीं तो तुम्हारा नुक्सान करने की ताक में बैठने वालों की भी कमी नहीं होगी पार्टी में........और फिर पैसे अगर बन सकते हैं तो बनाने चाहिए,....... उसमे कोई प्रॉब्लम नहीं है। दुनिया के किसी क़ानून के मुताबिक़ अपने घर-परिवार के लिए पैसे बनाना कोई गलत नहीं है. हर इंसान यही करता है, चाहे पाठक जी हों या कोई और.......... एट लीस्ट यू शुड बी प्रैक्टिकल। "

विजय ने कहा "यस, आई एम प्रैक्टिकल, दैट्स व्हाई आई एम वर्किंग फॉर दोज़ पुअर पीपल। यही वह वोट बैंक है जिसने पाठक जी को इतनी ताक़त दी है.........उन गरीबों और किसानों की बात सुननी चाहिए,......दिस इज़ डेमोक्रेसी, एन्ड दोज़ पुअर पीपल आर एक्चुली द मास्टर्स। बिना उनकी सुने तो कुछ भी नहीं हो सकता।" छाया ने तुरंत प्रतिवाद किया "अच्छा!!........तो ज़रा बताना कि उन गरीब, किसान, मज़दूरों का हाल लेने दूर-दराज़ के गाँव-देहात में कितने नेताओं के बच्चे जाते हैं?........वो वैभव पाठक कितनी बार गया है वहाँ?" . विजय ने कहा "दूसरे क्या करते हैं मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे अपनी नज़र में नहीं गिरना है.....बस."


छाया ने बेचैन होकर कृष्णा बाबू से भी यह बात कही "पापा, विजय को समझाइये। मै उनके काम और विचार से परेशान नहीं हूँ. लेकिन उनका भी तो घर परिवार है, बेटी है,.......पैसे की तो ज़रूरत है ही, वो एक बात है। . फिर जब इंसान इतनी मेहनत करता है, इतने दूर-दराज़ के इलाकों में जाता है, गरीब और किसान लोगों से मिलता है, उनकी बातें सुनता है, जब वह पार्टी के लिए इतना काम कर रहा है तो पार्टी को भी तो देखना चाहिए न? पार्टी को भी तो विजय के बारे में सोचना चाहिए? उनको विधायक या सांसद का टिकट देना चाहिए?.......वो इस उम्मीद में बैठे हैं कि उनके काम को पार्टी ज़रूर नोटिस करेगी और उन्हें इसका पुरस्कार भी मिलेगा, जबकि सच्ची बात ये है कि ये राजनीति है, यहां कोई किसी का सगा नहीं है...........और आजकल तो 'नमस्ते' भी बिना फायदे के कोई करता नहीं। विजय इस बात को नहीं समझते हैं। पापा, आपकी बात तो पार्टी में मानी ही जाती है , प्लीज़ आप विजय का नाम आगे बढ़ाइए न।"

ये सब वो बातें थीं जो हमेशा कृष्णा बाबू सोचते ज़रूर थे परन्तु कभी पाठक जी से कही नहीं थी। वह इस बात को अच्छी तरह जानते और समझते थे कि विजय की टक्कर का कोई भी युवा, मेहनती, लोकप्रिय लीडर न श्रमशक्ति पार्टी में, न और किसी पार्टी में इस समय है, और अन्य नेताओं के बच्चों के उलट, विजय काफी ज़्यादा पढ़ा-लिखा और ज़िले के अलग-अलग क्षेत्रों में काफी सक्रिय रहा करता था। कृष्णा बाबू की ये दिली ख्वाहिश थी कि पार्टी खुद ही, और जल्दी ही विजय को सांसद या विधायक बनाने की पहल करे। लेकिन वह ये भी जानते थे कि वैभव के रहते ऐसा होना काफी मुश्किल था, और अगर वैभव को छोड़ भी दिया जाए , तो भी गीतिका से विजय को कड़ी टक्कर मिलने वाली थी। ये उम्मीद करना कि पाठक जी वैभव और गीतिका के ऊपर विजय को वरीयता देंगे, बेईमानी ही थी. फिर अलग-अलग नेता भी अपने बच्चों के लिए सिफारिशें लगाएंगे ही , कृष्णा बाबू कभी सिफारिश लगाने वालों में शामिल नहीं रहे, न अपने लिए, न अपने बच्चों के लिए। इसीलिए मंत्री पद भी उन्हें काफी देर में मिला, और सांसद तो आज तक वो बने भी नहीं थे। ऐसे में विजय के लिए वह कितनी पैरवी कर पाएंगे, और विजय के लिए जगह बनने की क्या संभावना है, यह उनके लिए भी एक बड़ा सवाल था। फिर विजय की प्रकृति से भी वह अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, आखिर बाप थे वह। वह जानते थे कि विजय खुद से, न कभी पाठक जी से, न उनसे कुछ भी कहेगा इस बारे में।


उन्होंने निर्णय किया कि जल्द ही पार्टी कार्यकारिणी की जो बैठक दिल्ली में होने वाली है, उसमे वह पाठक जी, पार्टी के दूसरे नेताओं, और कार्यकर्ताओं का मूड भांपने की कोशिश करेंगे ताकि विजय के लिए कब, क्या और कितनी जगह बनती है, इसकी थाह ले सकें।

लोकसभा चुनाव को अब लगभग डेढ़ साल ही बचे थे। पार्टियों में इसको लेकर सुगबुगाहट तेज़ हो गयी थी। टिकट चाहने वाले, पार्टियों के दफ्तरों के चक्कर लगाने लगे थे और नेताओं के पास भी फोन आने लगे थे। श्रमशक्ति पार्टी भी इसका अपवाद नहीं थी। इन्ही सब को देखते हुए पार्टी कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में बुलाई गयी थी। श्रमशक्ति पार्टी में बड़ा सवाल टिकटों को लेकर तो क्या ही होना था , सबसे बड़ा प्रश्न पाठक जी के राजनीतिक भविष्य और इस से जुड़े श्रमशक्ति पार्टी के भविष्य पर उठने वाला था। जब से कार्यकारिणी की बैठक की तारीख घोषित हुई थी , टी.वी. चैनलों व प्रिंट मीडिया में भी इस बात को लेकर उत्सुकता बढ़ गयी थी। ये सभी जानते थे कि पाठक जी की तबियत अब लगातार गिर रही थी। मंत्री पद को भी उन्होंने इसी कारण 'ना' कर दिया था। अब सवाल कई खड़े हो रहे थे, जैसे क्या शहर केंद्रीय लोकसभा सीट से पाठक जी दोबारा चुनाव लड़ेंगे? यदि वह नहीं लड़ते तो इस सीट पर से मैदान में कौन उतरेगा? क्या वैभव पाठक चुनाव लड़ेंगे? क्या गीतिका पाठक समर में उतर सकती हैं? क्या कृष्णा बाबू के बेटे विजय को टिकट मिलेगा? पार्टी अध्यक्ष पद का क्या होगा? क्या पार्टी अध्यक्ष पद भी पाठक जी छोड़ देंगे? क्या कृष्णा बाबू अध्यक्ष बन सकते हैं? लगातार ख़राब होती तबियत के कारण पाठक जी ने यदि पार्टी में अपनी सक्रिय भूमिका से हाथ खींच लिया तो पार्टी की चुनावी परिदृश्य में क्या स्थिति होने वाली है? क्या पाठक जी की गैर-मौजूदगी में भी पार्टी को लोगों का वैसा विश्वास हासिल हो पायेगा? ये सभी बड़े सवाल थे। पाठक जी को पता था कि पार्टी के भविष्य के लिए इनका समाधान जल्दी खोजा जाना ज़रूरी था।


टी.वी. चैनलों ने पार्टी में उपजी द्वन्द की स्थिति को घर-घर तक, सभी के ड्राइंग रूम में पहुंचा दिया था। ऐसे ही एक समाचार बुलेटिन के बाद रजनी देवी जी ने टी.वी. बंद कर दी , और अपने सोफे पर बैठ गयीं। शाम का वक़्त था , पाठक जी आने वाले थे। सामने की मेज पर ३-४ अखबार पड़े थे, रजनी देवी ने देखा कि सभी अखबारों के फ्रंट पेज पर कोई न कोई मोटी हेडिंग श्रमशक्ति पार्टी और पाठक जी के राजनीतिक भविष्य, कार्यकारिणी की मीटिंग से सम्बंधित ज़रूर है। अखबारों को मेज पर गुस्से में पटक कर बोलीं "जहां देखो यही खबर.........टी.वी. , अखबार सब जगह बस यही एक.......जैसे दुनिया में और कोई खबर ही नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है कि शहर की लोकसभा सीट को लेकर इतने सवाल उठ रहे हैं?......सीधी बात है कि वैभव बनेगा वहाँ से सांसद,........इसमें बहस करने जैसी कोई बात ही नहीं है। थोड़ी ही देर में पाठक जी की गाड़ी पोर्च में आकर रुकी। पाठक जी कमरे में दाखिल हुए और रजनी देवी के पास जा कर सोफे पर बैठ गए और अपना चश्मा निकालकर सामने की कांच की मेज पर रखा। सोफे के हेडरेस्ट पर सिर रख कर आँखें बंद कर लीं । "चाय लाऊँ?" रजनी देवी ने पूछा। आँखें बंद किये हुए , थकी हुई आवाज़ में पाठक जी बोले "रुक जाओ, नहा लूँ पहले" फिर पाठक जी धीरे धीरे बाथरूम की ओर चले गए।

पाठक जी अब काफी अशक्त हो गए थे। अब वह बहुत जल्दी थक जाते थे। ३०-३५ साल से तो वह डायबीटीज़ के मरीज़ थे ही, जिसने धीरे धीरे उनके शरीर को बेहद कमज़ोर कर दिया था, पिछले ६-७ साल से ब्लड प्रेशर की भी शिकायत हो गयी थी। आर्थराइटिस की भी समस्या धीरे-धीरे उभर रही थी। लम्बे समय की इन बीमारियों ने हार्ट , किडनी और आँखों पर भी बुरा असर डाला था। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज चल रहा था। हर डेढ़ महीने पर दिल्ली जाना होता था। अब अपने संसदीय क्षेत्र के कामों के लिए वह कृष्णा बाबू और बेटी गीतिका पर अधिक निर्भर रहने लगे थे। इसी कारण अफवाहों का बाज़ार भी गर्म हो गया था।

नहा-धो कर पाठक जी वापस सोफे पर आकर बैठे, तब तक रजनी देवी जी उनके लिए चाय ले आयीं। चाय की चुस्कियों के बीच ही रजनी देवी ने पाठक जी का मन टटोलने की कोशिश की--

"....तो अगले हफ्ते दिल्ली जा रहे हैं आप?"

पाठक जी ने बिना उनकी ओर देखे, चाय पीते हुए कहा कहा "....हाँ, अस्पताल में दिखाना ज़रूरी है.......फिर पार्टी की मीटिंग भी है......जाऊंगा मैं।"

रजनी देवी ने कहा "फिर वैभव को भी ले जाइये साथ में........आखिर आपके साथ किसी का तो रहना ज़रूरी है, तबियत ज़्यादा अच्छी रहती नहीं आपकी , आप कहें तो मैं चलूँ?"

पाठक जी ने उनको आश्वस्त करने का प्रयास किया "अरे नहीं, ऐसी भी समस्या अभी नहीं आयी है.......फिर कृष्णा बाबू, उज्जवल सिंह और दूसरे लोग भी रहेंगे ही। इतनी चिंता की बात तो नहीं है। "

फिर रजनी देवी ने धीमी आवाज़ में हिचकते हुए कहा "वैभव जाता तो.......पार्टी मीटिंग में भी बैठ लेता,.......सबसे मिलता, बात करता,......मीटिंग वगैरह की बारीकियां समझता,.......आखिर ये भी तो ज़रूरी है उसके लिए.........नहीं सीखेगा तो बढ़ेगा कैसे?

पाठक जी ने चाय का आखिरी घूँट ख़त्म कर के कप मेज पर रखा और रजनी देवी की तरफ घूम कर दायां पैर ऊपर करके पालथी की मुद्रा में बैठे "आप फिर से वही बात लेकर बैठीं, जबकि आप सब जानतीं हैं।" दोनों एक दूसरे को ख़ामोशी से देखते रहे, फिर पाठक जी ने बोलना शुरू किया--

" सबसे मिलना , बात करना ,......मीटिंग वगैरह की बारीकियां समझना,....... एक बात बताइये, चलिए दिल्ली की बात छोड़िये ,यहां लखनऊ और अकबराबाद की कितनी पार्टी मीटिंग्स में वैभव गया है? जब यहां की मीटिंग में वो कभी नहीं आया, जब पार्टी दफ्तर में भी केवल शकल दिखाने, ३-४ मिनट के लिए आता है, तो फिर दिल्ली की इतनी अहम बैठक में जा कर क्या कर लेगा?.......सारा दिन शराब, शराब और बस शराब। चुनाव क्षेत्र में भी ये केवल चुनाव के वक़्त जाता है, वो भी इतना डांटने-फटकारने पर , नहीं तो वो भी कभी न जाये। पार्टी कार्यकर्ताओं, नेताओं के साथ इतनी बदतमीज़ी करता है ये........आपको क्यों लगता है कि इसकी बात कोई सुनेगा भी? दरअसल इन साहबज़ादे को इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि हम क्या चाहते हैं?......इन्हे होटलबाज़ी, हॉस्टलबाज़ी,और लौंडियाबाजी से ही मतलब है......इस रास्ते पर चलकर कोई नेता नहीं बनता बल्कि नेता बर्बाद होते हैं।"

रजनी देवी को अब तक काफी गुस्सा आ चुका था। वो बोलीं "सारे नेताओं के लड़कों में इस तरह की कुछ थोड़ी-बहुत कमियां होतीं हैं, लेकिन फिर भी उनके माँ-बाप उनका नाम हमेशा आगे बढ़ाते हैं.........बिहार के झा जी और वो आपके राजस्थान के चौहान जी, इन दोनों के लड़के भी तो वैभव की तरह ही हैं बल्कि उस से आगे ही हैं.......लेकिन दोनों विधायक हैं न?.....उनके बाप ने उन्हें बनवाया न विधायक?"

".....लेकिन अपने तमाम अवगुणों के बाद भी उनके बेटे उनकी बात सुनते हैं.........ये इंसान कभी हमारी बात ही नहीं सुनता है!!" पाठक जी गुस्से में बोले।

रजनी देवी सुन रहीं थीं।

पाठक जी ने बोलना जारी रखा "ये बीवी बच्चों वाले आदमी हैं.......लेकिन पूरी दुनिया को पता है कि ये होटल और हॉस्टलों में क्या करते हैं। मेरा सिर शर्म से झुक जाता है रजनी। मेरे आगे ज़रूर कोई नहीं बोलता होगा, मगर पीठ पीछे लोग बोलने से चूकते होंगे क्या?......मेरी अपनी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता ही बोलते होंगे, मैं और लोगों का क्या कहूं? किसी इंसान का खुशहाल परिवार है , इस बात का राजनीति में बड़ा फर्क पड़ता है। ग्रामीण जनता के दिमाग में ऐसी बात होती है कि जो अपने घर-परिवार को खुश नहीं रख सका, वो दूसरों के कष्टों को क्या समझेगा और उन्हें कैसे दूर करेगा ? "

रजनी देवी ने पूछा "बीना के घर बात की थी आपने?.......कि वह वापिस आ जाए? अगर वह आ जाएगी तो क्या पता वैभव के चाल-चलन में सुधार आ जाये?" पाठक जी खामोश बैठे थे।

फिर रजनी देवी धीरे से बोलीं "....अब देखिये, है तो जवान लड़का ही.......बीवी घर होती तो शायद कहीं और न जाता,.........अब बीवी है नहीं यहां उसके पास, आखिर भूख तो लगती ही होगी,.......जवान लड़का भूख लगनेपर खाना तो ढूँढेगा ही......जहां खाना मिलेगा, वह तो वहीं जाएगा,........सच्चाई है ये। "

पाठक जी चुप ही थे और रजनी देवी का चेहरा ही देख रहे थे।

रजनी देवी ने फिर पूछा "बीना के घर बात की थी आपने?"

पाठक जी ने थके हुए, निराश स्वर में कहा "हाँ , की थी। शर्मा जी ने कहा कि मै लिखित में दूँ कि जो उनकी बेटी के साथ हुआ, वो सब दोबारा नहीं होगा। अगर फिर से ऐसा हुआ तो इसकी ज़िम्मेदारी हम लोगों की होगी। बोलिये रजनी , क्या अपने बेटे पर भरोसा करके , काग़ज़ पर लिख कर हम दे सकते हैं शर्मा जी को?"

रजनी देवी चुप-चाप बैठीं सुन रहीं थीं.

फिर बोलीं "लेकिन आखिर बेटा तो अपना ही है न पाठक जी?......उसे हम लोगों ने पैदा होने के पहले दिन से बताया है कि इस लोकसभा सीट से वही सांसद होगा,.......बोलिये"

"रजनी, ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरा बेटा सांसद बने, मैं बिलकुल दिल से चाहता हूँ कि मेरे बाद इस विरासत को वैभव ही आगे बढ़ाये, लेकिन वो खुद तैयार हो तब न? वो कृष्णा बाबू का लड़का विजय,........मै क्या बोलूं रजनी?.........कार्यकर्ता और पार्टी के नेता उसे इतना ज़्यादा पसंद करते हैं जिसकी हद नहीं। जब कभी वो बोलने खड़ा होता है तो सब मंत्रमुग्ध होकर उसको सुनते हैं। पूरे अकबराबाद के सभी निर्वाचन क्षेत्रों में वो लड़का घूमता ही रहता है अपनी कार्यकर्ताओं की टोली के साथ, किसान, मज़दूरों की समस्याएं जो हमें भी पता नहीं होतीं , खोज कर लाता है वो। कभी-कभी मुझे लगता है कि क्या गलती हो गयी होगी हमसे , और ऐसा क्या किया होगा कृष्णा बाबू ने जो विजय उनको मिला और ये हमें। वैभव के लिए विजय को साइड करने से पार्टी कार्यकर्ता नाराज़ हो सकते हैं। "

"मै दुनिया का पहला बाप देख रही हूँ, जो अपने बेटे से ज़्यादा दूसरे के बेटे की तारीफ़ कर रहा है.......फिर मै क्या समझूँ? क्या ये लोकसभा सीट हमारे परिवार से छिन जाएगी?

पाठक जी फिर से दोनों पैर नीचे लटका कर और सिर सोफे के हेडरेस्ट पर रख कर, आँख बंद करके गहरी साँस छोड़ते हुए बोले "नहीं, ऐसा भी बेवकूफ नहीं हूँ मै। इतनी मेहनत से ये विरासत तैयार की है, ऐसे नहीं जाने दूंगा इसको,....." और फिर पाठक जी ने वह बोला जो ना तो वह बोलना चाह रहे थे, ना ही रजनी देवी सुनना चाह रहीं थीं। ये वह बात थी जो रजनी देवी के कानों को पिघले हुए शीशे जैसी लगने वाली थी "......मेरी काबिल बेटी होगी यहां से सांसद। "

इतना सुनना था कि रजनी देवी खड़ी होकर नागिन जैसे फुफकारने लगीं "क्या कहा आपने?......वो नागिन,........वो घटिया लड़की , वो कमीनी ,......वो मेरे बेटे का हक़ छीनेगी?" उनकी आवाज़ तेज़ होती जा रही थी "मै जानती थी.........यही बोलेंगे आप....... आपको हमेशा वही लड़की ही सबसे बेहतर लगी है। उसकी तारीफ करते आप नहीं थकते। आप चाहे कुछ कर लीजिये लेकिन इतना याद रखिये पाठक जी!......केवल मेरा बेटा वैभव होगा यहां से सांसद। केवल मेरी लाश पर चल कर ही वो दो कौड़ी की लड़की, वो घटिया , गंदा खून, सांसदी का पर्चा दाखिल करेगी। "

पाठक जी भी गुस्से में आ गए और चिल्लाते हुए खड़े हुए "तमीज से नाम लीजिये रजनी उसका !!.........इस घर की इज़्ज़त है वो......बेटी है वो हमारी।"

"आपकी बेटी है वो, मेरी नहीं!!..........वो घटिया, गन्दा खून ही है........उस वेश्या की औलाद है वो , जो मर कर भी हमारे बीच ज़िंदा है........ मै बार बार बोलूंगी,.........वेश्या की औलाद,.......घटिया, गन्दा खून है वो........" रजनी देवी चीख रहीं थीं।

पाठक जी की भी साँस फूलने लग गयी और अपनी जगह पर खड़े-खड़े ही वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। उनको गिरता देख कर रजनी देवी सुध-बुध खो बैठीं और ज़ोर से रोते हुए घर के नौकरों को बुलाने लगीं। उनकी चीख पुकार सुनकर सभी नौकर दौड़े-दौड़े आये और किसी तरह पाठक जी को उठाकर सोफे पर लिटाया और पाठक जी के तलवे और हथेलियां मलने लगे। रजनी देवी ने जल्दी से अपने पारिवारिक डॉक्टर को फोन लगाया "जी......डॉक्टर साहब, मै रजनी देवी पाठक,.........यहां अभी बात करते-करते पाठक जी अचानक बेहोश हो गए हैं......आप प्लीज़ जल्दी आइये।" फिर वो पाठक जी के पास गयीं और रोते हुए बोलीं "डॉक्टर बस आ ही रहें हैं.......बहुत जल्दी आ रहे हैं....बिलकुल चिंता न कीजिये। कुछ नहीं हुआ आपको। "

डॉक्टर मित्तल बिलकुल पास में रहते थे , अपने एक सहायक के साथ केवल ५-७ मिनट में आ गए। कुछ प्राथमिक उपचार किया और अब पाठक जी की हालत सामान्य दिख रही थी। रजनी देवी से उन्होंने कहा "ये कुछ दवाएं हैं, ज़्यादा नहीं हैं......उन्हें मंगवा लीजिये। " एक नौकर तुरंत दवा लेने निकल गया। डॉक्टर ने फिर रजनी देवी से कहा "भाभी जी , ध्यान रखियेगा कि पाठक जी को कोई मानसिक तनाव न हो.......कोई टेंशन न हो........ऐसी हालत में स्वास्थ्य बिगड़ता है और ख़तरा बढ़ जाता है। रजनी देवी ने 'हाँ' में सिर हिलाया। फिर डॉक्टर मित्तल निकल गए।

ये हाई-वोल्टेज झगड़ा जिस गीतिका की वजह से हुआ था और जिस पर पाठक जी जान छिड़कते थे, उसकी सच्चाई यह थी कि वह पाठक जी की एक सहायक, किरण कुमारी की बेटी थी जिसके पिता स्वयं पाठक जी ही थे। इस तरह से वह पाठक जी की नाजायज़ औलाद थी। इस सम्बन्ध के बारे में केवल पाठक जी, रजनी देवी और गीतिका ही जानते थे। बाक़ी दुनिया को इसका पता नहीं था, यहां तक कि पाठक जी के अति विश्वस्त सहयोगी, उनके राज़दार कृष्णा बाबू को भी नहीं। बाकी दुनिया और कृष्णा बाबू को भी , पाठक जी ने यह बताया था कि गीतिका अनाथ थी , जिसे उन्होंने अनाथाश्रम से गोद लिया था और अपने घर ले आये थे जबकि असल बात ये थी कि गीतिका के पैदा होने के बाद उसकी माँ ने उसे पाठक जी को सौंप दिया था और फिर खुदकुशी कर ली थी ताकि पाठक जी को समाज में मुँह दिखाने में कोई समस्या न हो , साथ ही उसे भी बेटी से अलग होने की तकलीफ और सारी उम्र 'बाहरवाली' या 'वेश्या' कहे जाने के तंज से निजात मिल जाए। समाज फिर भी एक बार मर्द को माफ़ कर देता है, मर्द से वह सवाल नहीं करता , लेकिन 'बाहरवाली औरत' के हिस्से में सिर्फ सवाल ही आते हैं जिनका जवाब भी ये समाज सुनना नहीं चाहता , उस औरत के हिस्से में केवल तंज ही आता है, जो कभी ख़त्म ही नहीं होता। समाज उस पर एक 'टैग' लगाता है और फिर जीवन भर , यहां तक कि मरने के बाद भी उसके साथ वह 'टैग' लगा ही होता है। उसकी ज़िंदगी तो मौत से भी बदतर हो जाती है। मर्द के साथ कोई 'टैग' नहीं लगता। वह मर्द होता है आखिर !!

लोक-लाज के भय से पाठक जी ने यह बात किसी को कभी बतायी नहीं कि असलियत कुछ और है और रजनी देवी की भी कम से कम इस बात के लिए तो ज़रूर तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने भी गलती से ये बात कहीं नहीं बोली। इसी की वजह से रजनी देवी हमेशा गीतिका को देख कर जलती-भुनती रहती थीं। उन्हें गीतिका से बेपनाह नफरत थी, और जब उन्होंने सुना कि पाठक जी उसे टिकट दिलवाना चाह रहे हैं तो रजनी देवी की सहन शक्ति जवाब दे गयी थी।

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