Savita Negi

Tragedy

3.2  

Savita Negi

Tragedy

शकुंतला

शकुंतला

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उसने अपने मन को मनाया की चल कुछ दिन हो आती हूँ नहीं तो कब देखना शहर की रौनक एक तो बेटा जिद कर रहा वरना आजकल के बच्चे कहाँ पूछते। ब्वारी(बहु) ने भी बोला था फोन में की आ जाना। बुढ़ापा तो अपना मुँह खोले खड़ी ही है और धीरे- धीरे सेहत चुस्ती फुर्ती , याददाश्त सबकुछ निगल रही...चली ही जाती हूँ इस बार और शकुन्तला मन बनाकर गाड़ी में बैठ गयी।

थोड़ी दूर ही पहुंचे होंगे कि उसको ऐसी रींग (चक्कर) लगी कि गर्दन खिड़की से बाहर और भभक भभक कर खाया पिया सब उड़ेल दिया। पहाड़ी रास्तों के मोड़ो से पेट में मरोड़ उठनी ही हुई। उल्टी के बाद अब मूंडरू (सर दर्द) की बारी थी और सारा दोष कमबख्त डीजल का था उसकी बास सीधे मुंड ( सर ) में बैठ जाती है न । उसने साड़ी के पल्लू से ही सर बांध लिया और कोसने लगी खुद को 'ले घूम शहर अब, क्यों तैयार हुई आने के लिए?' रास्ते भर न कुछ खाया न पिया बस सर बांध कर पिछली सीट में लेटी रही और पूछती रही 'रे बूबा कब आएगा तुम्हारा दिल्ली।'

गाड़ी जैसे जैसे ढलान उतर रही थी उसका पहाड़ और पहाड़ की हरी भरी खूबसूरती पीछे छूट रही थी साथ ही टूट रहा था उसका मन जो चिंता में डूबा था कि उसके पीछे पुंगडियो ( खेत ) में लगी गुदड़ी, चचिंडा, ककड़ी अब वो बिल्लू और सुल्लू तोड़ ले जाएंगे, पूरे गाँव में ये ही दो तो आवारा हैं। दिन भर यही काम ठहरा इनका किसकी पुंगड़ी में क्या लगा है इनकी नज़र पड़नी चाहिए और शाम तक चीज़ गायब। कोई काम धाम करते नहीं थे बस कभी- कभी आस पास कोई सड़क वड़क बन रही हो तो ये भी लेबरी कर आते थे और जो पैसे मिलते थे रात को दारू में उड़ा देते थे। जंगल से घास लकड़ी तक लाने का काम भी इनकी बीवियों का ही हुआ।

सुल्लू बिल्लू दोनों उसके बेटे विक्रम के दोस्त ही थे लेकिन देखो आज विक्रम शहर में अच्छी नौकरी करता है और ये दोनों ऐसे ही रह गए ,पढ़ाई में मन नही लगता था शुरू से ही। इसी वजह से बस ये दो ही थे पूरे गाँव में बाकी सब गांव छोड़ उसके बेटे की तरह रोज़गार के चलते शहर जा बसे।

दिल्ली की सड़कों में गाड़ियों की रफ्तार और भीड़ से उसको घबराहट होने लगी । गगनचुम्बी इमारतों को बड़ी बड़ी आँख कर देखने लगी। मन ही मन बुदबुदाने लगी ' हे राम जी कैसे रहते लोग यहां न हरियाली न कुछ, चारो तरफ तेज रफ़्तार गाड़ी..कहाँ भाग रहे होंगे सब । कितनी जल्दी है सबको। सड़क किनारे पेड़ तो लगे है लेकिन क्या करना उन पेडों का सब धूल से ढके है ,शहरों की नीरसता उनपर भी झलक रही है।

उसके बेटे का अपार्टमेंट् भी आ गया । गाड़ी से उतरी तो भी उसका सर घूम रहा था । लिफ्ट में घुसते ही उसने झपाक से बेटे को कसकर पकड़ लिया। पहले ही गाड़ी में इतना चक्कर आता है अब ये उंद - ऊब ( ऊपर नीचे ) जाने वाली मशीन, बताओ !! बहुत घुटन हो रही थी उसको लेकिन डर के मारे नहीं बोला बेटे को। लिफ्ट से बाहर आते ही उसने लंबी सांस ली कि चलो जान बच गयी।

अंदर जाते ही पोते पोती और बहू ने सेवा लगाई। जिन्हें देखकर उसकी थोड़ी थकान कम हुई। मन ही मन सोच रही थी शायद टिक जाऊंगी कुछ दिन तो यहाँ । बहु ने तुरंत चाय बना दी । दो घूँट बाद ही उसका मन नहीं हुआ पीने को । कहाँ से अच्छी लगती चाय ..चूल्हे की चाय और गैस में बनी चाय में फ़र्क तो होगा ही न ऊपर से चीनी भी दिखाने को डाली थी, बल नहीं खाते इतनी वरना शूगर हो जाएगा।

धीरे- धीरे खुद को 1250 स्कुऐर फुट के फ्लैट में ढालने की जी तोड़ कोशिश करने लगी क्योंकि बेटे ने साफ बोल दिया था आदत डाल यहीं रहने की।

उसकी बूढ़ी आँखे बालकनी से खुले आसमान को ताड़ती रहतीं। और सोचती की आह! उसके पहाड़ का आसमान कितना नीला था । यहां की धूल भरी हवा में वो खुशबू कहाँ जो उसके पहाड़ की धुली हुई हवा में थी। 

पेड़ पौधों के नाम पर दो चार गमले रखे थे बालकनी में। नीचे पार्क में कुछ महिलाओं को घूमते देखती तो उसे अपनी गांव की सबसे पक्की सहेली सरस्वती याद आ जाती की आह! कैसे जाते थे वो दोनों घास लेने वहीं लड़की इकट्ठा करके चूल्हा जलाते और चाय का आनंद लेते थे। गप्पे थीं कि खत्म ही नहीं होती थी। सरस्वती उसकी तब की सहेली है जब वो ब्याह कर इस गांव आई थी। उंससे दो महीने पहले ही सरस्वती का ब्याह हुआ था। हमउम्र भी थे और घास लकड़ी खेत का साथ भी हुआ। अपना सुख दुःख और सास की चुगली भी कर लेते थे।

जिंदगी के उतार चढ़ाव में दोनों ने एक दूसरे का पूरा साथ दिया।

बेटे के यहाँ तो उसका मुँह जैसे सिल गया होगा। अब बहु से भी इतनी क्या बात करती वो भी बस मतलब की बात ही करती थी। बेटा सुबह ऑफिस चला जाता और रात आठ बजे आता । थका रहता थोड़ी देर बैठकर वो भी सोने चला जाता। दोनों बच्चे भी पढ़ने वाले हुए दिन भर अपने अपने फ़ोन लैपटॉप में घुसे रहते।

डब्बे जैसे घर में हरकने फरकने ( हिलने डुलने ) की भी जगह नहीं थी..आह! उसके गाँव का घर कितना बड़ा था । जहाँ मर्ज़ी पसर जाओ। एक टाइम तो सोने की जगह नहीं मिलती थी।

इतना बड़ा परिवार हुआ करता था ,संयुक्त परिवार की बात ही अलग होती है।

दिन जैसे बीत रहे थे उसका मन उतना ही अपने गाँव और अपने घर के लिए तड़फ़ उठता । और क्यों नहीं तड़फता अपनी जिंदगी के इतने साल निकाले हैं उस घर में। उसकी दीवारों को गेरू, मिट्टी और गोबर के साथ अपना प्रेम मिलाकर उसकी लिपाई से मजबूत रखा है। कोने में जलते चूल्हे की फैली रोशनी और धुंए में उसके हाथों ने न जाने कितनों को बैठाकर खिलाया है। वही कोने में देवता की ठाह में दिया जलाकर सभी की खुशहाली की कामना की है। उसे बन्द करके आना उसके लिए इतना आसान नहीं था।

उसके तांबे के गागर जिसका पानी निकालकर उल्टे रख आई थी उसका इंतज़ार कर रहे हैं और धारे में जाकर अपनी प्रेयसी पानी की मीठी धारा से मिलने को बेताब हैं। आले में रखा लालटर्न जलने के लिए तडफ़ रहा , एक वो ही तो है जिसकी रौशनी अंधेरी रात में इस बात का एहसास दिलाती है कि ये घर अभी पूरा खाली नहीं हुआ , अभी शकुंतला जिंदा है। उसकी दथड़ी (घांस काटने का औजार) भी बेजान सी वहीं चौक में एक कोने में पड़ी है।

एक समय ओबरे ( गाय भैंस बांधने की जगह ) में से गाय भैसों की आवाजें आती रहती थी। धीरे धीरे परिवार के बुजुर्ग गुजरने लगे और बच्चे नौकरी के लिए शहर जाने लगे तो ओबरे भी खाली होने लगे।

उनकी देख रेख के लिए लोग तो चाहिए ही न गांव में।

पति के गुजरने के बाद उसने भी गाय भैंस नहीं रखी। उसके साथ कोई था नहीं । उसके घर के बाकी कमरों में धीरे धीरे ताले लगते गए। उसके बाद गाँव के घरों में ताले लगते गए। वजह सबकी एक ही थी ,कुछ गुजर गए कुछ ने समझौता किया और घर छोड़कर बच्चों के साथ जाने में भलाई समझी । सरस्वती और शकुंतला से गाँव नहीं छोड़ा गया। वो दोनों एक दूसरे का सहारा बन अकेले ही अपने घरों को रौशन करते रहे हैं।

 जो कुछ नहीं कर पाए वही गांव में रुके है । हरा भरा गांव अब वीरानी की गर्त में डूबा रहता है। शाम होते ही ऐसा लगता है कि सभी पूर्वज ताले लगा देखकर अपनी तिबारी में बैठने तो जरूर आते होंगे और घरों की दुर्दशा पर रोते भी होंगे।

उसकी तड़फ़ धीरे धीरे बढ़ रही थी गांव जाने को । उसका मन बिल्कुल नहीं लग रहा था शहर में । सीधा बोल नहीं पाई बेटे को तो रोज कुछ कुछ बहाने बनाती जैसे " बरसात शुरू हो गयी घर की छत भी कहीं कहीं से रिसती है तो सब सामान खराब हो जाएगा । देवता की ठाह में भी कबसे दिया बाती नहीं हुई , पित्र नाराज हो जाएंगे ऐसे घर में ताला लगाकर नहीं जाना चाहिए। तेरे पिता कभी शहर नहीं आये इसलिए ही कि उन्हें घर बन्द कर जाना अच्छा नहीं लगता था अब ताला लगा देख उनकी आत्मा भी तड़फ़ रही होगी।

उसकी दिनरात की रट से तंग आकर आखिकार उसका बेटा उसे गांव छोड़ने को राजी हो गया । गाँव जाने के नाम से ही उसके चेहरे में रौनक छा गयी। जाना दो दिन बाद था लेकिन वो अपनी लटटी पट्टी समेट कर झोले में भरने लगी।

एक सूती साड़ी और चप्पल उसने अपनी सहेली सरस्वती के लिए भी मंगाई थी । अब शहर आई थी तो खाली हाथ कैसे जाती।

वो दिन भी आ गया जब वो अपने पहाड़ अपने गांव की तरफ़ जाने के लिए गाड़ी में बैठ गयी। उसके बेटे ने भी एक हफ़्ते की छुट्टी ली थी । जैसे जैसे पहाड़ दिखने लगे उसकी सिकुड़ी नसों में खून दौड़ने लगा। मन ही मन कसम खा रही थी कि चाहे कुछ हो जाये अब दुबारा शहर नहीं जाएगी अंत तक गाँव में ही रहेगी।

घर पहुँचते ही सबसे पहले उसने हाथ मुँह धोकर देवता की ठाह में दीया जलाया और सरस्वती के लिए लाया सामान अलग कर खुशी से उसको देने उसके घर चली गयी। मन में हँस रही थी कि उसे देखकर सरस्वती हैरान हो जाएगी। जैसे ही वो सरस्वती के चौक में पहुँची तो तिबारी में गाँव के कुछ लोग जमा हो रखे थे। कुछ आशंकाओं के साथ वो सरपट सीढ़ियाँ चढ़ी और पूछने लगी कि क्यों इकट्ठा हो।

"बीती रात सरस्वती छज्जे से गिर गयी, बारिश भी थी, अंधेरे में ठीक से देख नहीं पाई होगी और पैर फिसल गया। पूरी रात ऐसे ही ठंडी में पड़ी रही । वो तो सुबह बिल्लू ने देखा तब उठाकर लाया। हालत तो ठीक नहीं थी , आस पास बड़ा हॉस्पिटल भी नहीं था । कुछ सरस्वती की ज़िद की वो कहीं नहीं जाएगी ,बस उसके बेटे को आने दो। बेटा मुंबई में रहता था उस तक खबर पहुँचा दी थी। उसका इंतजार कर रहे थे सब लोग।

शकुंतला ने उसके लिए लाई साड़ी और चप्पल का पॉलिथीन वहीं बाहर एक कोने में रख दिया और उससे मिलने गयी । सरस्वती को बेसुध बिस्तर में लेटा देख उसे एक बारी को लगा कि वो भी किसी दिन ऐसे ही......

वो सरस्वती के सर में हाथ फेर रही थी साथ ही पल्लू से अपने आँसू पोंछ रही थी , एक ये ही तो उसकी हमदर्द थी।

सरस्वती को बीच बीच में होश आता तो लड़खड़ाती आवाज़ में बस अपने बेटे के बारे में पूछती कि वो पहुँचा की नहीं । शकुंतला उसे ढाढस बांधती की बस पहुँचने वाला होगा।

रात्रि के दूसरे पहर में सरस्वती देह त्याग कर दूसरी दुनिया में चली गयी , बेटे को देखने की इच्छा अधूरी ही रह गयी । मानो शकुंतला के शरीर का आधा हिस्सा भी खत्म हो गया हो। कुछ दिनों तक उसने ठीक से खाया भी नहीं , न ही ठीक से सोई होगी। एक और घर में ताला लग गया।

शकुंतला चूल्हे के पास सरस्वती की याद में उदास बैठी थी तभी उसके बेटे ने समझाना शुरू किया...

तुझे इस पित्र घर की पड़ी है मेरे बारे में भी सोच न, तुझे कुछ हो गया तो इन पितरों का सारा श्राप मुझे लगेगा। गांव वाले और रिश्तेदार सब मुझे कोसेंगे की माँ को नहीं देखा ,उसे अकेले मरने के लिए गाँव में छोड़ दिया। मैं अपनी नौकरी, गृहस्थी यहाँ नहीं शिफ्ट कर सकता लेकिन तू मेरे पास आ सकती है। कल को बीमारी है तो मैं अच्छे से तेरी देखभाल तो कर सकूँगा ....सोच रात भर कल सुबह मैं निकल रहा हूँ मन बना ले और चल मेरे साथ।

रात भर वो करवट बदलती रही और सोचने को मजबूर थी कि सरस्वती की आख़री रट बेटे को देखने की अधूरी ही रह गयी कम से कम वो बेटे के साथ रहेगी तो उसकी गोद में प्राण तो त्यागेगी। यहाँ आस पास न अस्पताल न कुछ।

ये खूबसूरत पहाड़ कुछ दिन घूमने फिरने के लिए तो मोहक जगह लगती हैं लेकिन यहाँ की कठिन परिस्थितियों में रहने वालों के बहुत बदसूरत पहलू भी हैं। उन कठिन परिस्थितियों को उत्तराखंड के गाँव में घूमकर देखा जा सकता है। जहाँ गांव के गांव वीरान पड़े हैं, खेत बंजर ।

शकुंतला जैसी अनेकों स्त्रियों को अपना मन मार कर अपने पूर्वजों के कई सौ साल पुराने घरों को ताले लगाकर जाना पड़ रहा है। और वो कभी हरे भरे गाँव अब भुतिया गाँव कहलाने लगे हैं।

शकुन्तला ने भी अपनी परिस्थिति को समझा और सुबह बेटे के साथ जाने के लिए तैयार हो गई । भारी मन से अपने सालों पुराने घर को अश्रुपूर्ण विदाई देते हुए उसने भी ताला लगा दिया।

धन्यवाद



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