शक्तिपुँज श्री गुरुगोबिंद सिंह
शक्तिपुँज श्री गुरुगोबिंद सिंह
22 दिसंबर, सन् 1666 को पटना साहिब में नवम् पातशाही गुरु तेग़बहादुर जी की धर्मपत्नी माता गुजरी के घर जन्मे सुंदर बालक गुरु गोबिन्द सिंह जी खिलौनों से खेलने की उम्र में कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। बहुभाषाविद गुरु गोबिंद सिंह जी को फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दशम ग्रंथ' लिखकर प्रसिद्धि पाई। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था---
"मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।"
गुरु गोबिंद सिंह को ज्ञान, सैन्य क्षमता और दूरदृष्टि का सम्मिश्रण माना जाता है। गुरु गोबिन्द सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए वीर काव्य और संगीत का सृजन किया था। खालसा को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये। पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की। वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।
सवा लाख से एक लड़ाऊँ
तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ ।।
उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शों के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। गुरु गोबिन्द सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत अपने चारो पुत्रों को समर्पित करके चुकानी पड़ी थी।
तेजपुंज, दशमेश पिता को
शत-शत नमन करूँ हर बार।
धर्म कौम की लाज बचाने,
वार दिये अपने पुत चार।
गुरु गोबिन्द सिंह जी के परदादा पाँचवें गुरु -गुरु अर्जन देव जी की शहादत ,दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह जी द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेग़बहादुर सिंह की शहादत एवं दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना और दो पुत्रों को सरहिंद के नवाब द्वारा ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया जाना इत्यादि घटनाक्रम में भी अडिग रहकर गुरु गोबिन्द सिंह संघर्षरत रहे। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी।
भाई कन्हैया सेवक प्यारा
करे घायलों का उपचार।।
खालस पंथ सजाया गुरु ने,
मानी थी दुश्मन ने हार।।
महान् कर्मयोगी गुरु जी ने ख़ालसा पंथ की नींव देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिये रखी थी। ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह। गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोबिन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था।
इतिहास इस बात का गवाह है कि गुरु गोबिंद सिंह जी भी पांच प्यारों के हुक्म को माना करते थे। पांच प्यारों ने गोबिंद सिंह को चमकौर किला छोड़ने का हुक्म दिया और उन्हें मानना पड़ा। पांच प्यारों ने फिर गोबिंद सिंह जी को टोका, जब गोबिंद सिंह इन की परख के लिए दादू की कब्र पर नमस्कार कर रहे थे। गोबिंद सिंह ने बंदा बहादुर को भी पांच प्यारों के संग भेजा गया, इतिहास में ज़िक्र है कि जब बंदा बहादुर प्यारों की उल्लंघना करता रहा तो बंदा बहादुर को सब कि बहादुर प्यारों की उल्लंघना करता रहा तो बंदा बहादुर को सब किले में छोड़ गए। गोबिंद सिंह और खालसा फ़ौज ने बहादुर शाह की मदद की और उसे शासक बनाने के लिए उसके भाई से लोहा भी लिया ।
पाँचे प्यारे साजे गुरु ने
जाति धर्म का न अहंकार।।
दो धारी तलवार का अमृत
पीकर बाँटा जग में प्यार।
सत्गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा महिमा में खालसा को "काल पुरख की फ़ौज" पद से निवाजा है ।तलवार और केश तो पहले ही सिखों के पास थे, गुरु गोबिंद सिंह ने "खंडे बाटे की पाहुल" तयार कर कछा, कड़ा और कंघा भी दिया ।इसी दिन खालसे के नाम के पीछे "सिंह" लग गया । शारीरिक देख में खालसे की भिन्नता नजर आने लगी । पर खालसे ने आत्म ज्ञान नहीं छोड़ा, उस का प्रचार चलता रहा और आवश्यकता पड़ने पर तलवार भी चलती रही ।
गुरु गोबिन्द सिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करने पड़े। औरंगज़ेब को लिखे गए अपने 'ज़फ़रनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है----
"चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत,
हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।"
अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्
य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिक्ख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।'ज़फ़रनामा' में स्वयं गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। अपनी कृति 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि---- मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।"
तेज पुंज ,दशम नानक श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने जनमानस में शक्ति भरने के लिए होला महल्ला की परंपरा आरंभ की थी।उन्होंने युद्ध-कौशल, युद्ध-अभ्यास में पारंगत करने के लक्ष्य से जनसमूह को सैन्य-शक्ति में परिवर्तित किया था। होला-महल्ला में “होला” शब्द खालसाई बोली से लिया गया है और “महल्ला” अरबी भाषा का शब्द जिसका अर्थ है -- आक्रमण ,अर्थात युद्ध-कौशल का अभ्यास।
होला-मोहल्ला पंजाब का प्रसिद्ध उत्सव है। सिक्खों के पवित्र धर्मस्थान श्री आनन्दपुर साहिब में होली
के अगले दिन से लगने वाले मेले को होला मोहल्ला कहते है। यहाँ होली पौरुष के प्रतीक पर्व के रूप में मनाई जाती है।तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में सिक्ख शौर्य, कला प्रदर्शन एवं वीरता के करतब दिखाए जाते हैं।
"वेख के आनंद आ गया ,
जी सोहनां लगिया आनंदपुर मेला।
गुरां दे दवारे आ गया ,
जी होके कम्म तों पंजाब सारा वेहला।।"
खालसा का निर्माण स्थल आनंदपुर साहिब में हर वर्ष नित नवल उत्साह के साथ संगत ट्रक, ट्राली,बस रेलगाड़ी,पैदल,मोटर साईकल आदि हरेक प्रकार के साधनों से केसरी और नीले दस्तार और चोला सजाकर होला मुहल्ला की पारंपरिक गुरु मर्यादा को बरकरार रखने एवं होली उत्सव का आनंद पाने के लिये पहुँच जाते हैं। आनंदपुर की नवेली दुल्हन की तरह सजावट की जाती है ।सर्वप्रथम किले आनंदगढ़ पर फूलों की वर्षा होती है। पाँच प्यारे नगाड़े बजाते हैं। "जो बोले सो निहाल" के नारों से धरती आकाश गुंजायमान होता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब की हजूरी में तख्त श्री केसगढ़ साहिब से आरंभ होकर विशाल नगर कीर्तन पारंपरिक ढंग से हरेक वर्ष की भाँति दुर्ग आनंदगढ़ से गुजरता हुआ हिमाचल की सीमा के निकट चरण गंगा स्टेडियम में संपन्न होता है ।------
बाजां वाला सत्गुरु, सानूँ है उडीकदा
छेती करो संगते जी ,समाँ जावै बीततदा
चल गुरु घर करने दीदारे,गड्डी च जगा मलियै
दिन होले ते मोहल्ले वाला आया, आनंदपुर चलियै।।
इस शुभावसर पर शस्त्रों से सज्जित गुरु के प्यारे सिंह साहिबान गतका खेलते, नेज़े बाजी करते, घुड़सवारी दौड़ प्रतियोगिता करते, मार्शल आर्ट के खतरनाक प्रदर्शन करके अपने उत्साह, वीरता एवं पराक्रम के साथ-साथ गुरु मर्यादा का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जिन्हें देखकर स्वत:ही तन मन से हरेक प्राणी गुरु रंग में सराबोर हो जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष सैकड़ों निहंग सिंह आते हैं जिनमें एक विशेष आकर्षण एवं प्रेरणा स्रोत श्री अवतार सिंह महाकाल नामक निहंग सिंह जी हैं। इन्होंने 2012 में गुरु कृपा से हेमकुंट साहिब की पैदल यात्रा की है।यह हर वर्ष 645 मीटर का दुमाला (जिसका वज़न 95 किलो/ 75 किलो) बाबा दीप सिंह जी के आशीष से पहनकर आते हैं।इनका लक्ष्य है कि युवक माँ-बाप की सेवा करें,गुरु मर्यादा में रहें,केश कत्ल न करें,गिदड़ की मानिंद जीवन न जीयें बल्कि गुरु के सिंह बनें।मनमत से दूर रहकर गुरमत में रहें।पंजाब में होली का विशेष आकर्षण और आनंद सही मायनों में आनंदपुर के होला मोहल्ले में शामिल होकर ही आता है।
गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह ने 9वर्ष की आयु में कश्मीरी पंडितों की रक्षा हेतु अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया।
आप हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे। 'तिलक' और 'जनेऊ' की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी।शक्ति के आराधक गुरु जी ने हिन्दी में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये हैं - सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचना पद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा लिखते थे। चंडीचरित्र की दुर्गासप्तशती की कथा की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं---
निर्जर निरूप हौ, कि सुंदर सरूप हौ,
कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
प्रान के बचैया, दूध-पूत के देवैया,
रोग-सोग के मिटैया, किधौं मानी महामान हौ?
विद्या के विचार हौ, कि अद्वैत अवतार हौ,
कि सुद्ध ता की मूर्ति हौ कि सिद्ध ता की सान हौ?
जोबन के जाल हौ, कि कालहू के काल हौ,
कि शत्रुन के साल हौ कि मित्रन के प्राण हौ?
गुरु गोविंद सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
दशम् ग्रंथ औ' विचित्र नाटक
मन भाये चण्डी दी वार।
कवि लेखक गोबिंद सिंह के
शब्दों में है नव उजियार।।
तीन सौ पचासवें गुरुपर्व
ने दूर किया मन अंधकार।
अकाल प्रभु युग सृष्टा गुरु की
करो "पूर्णिमा" जय-जय कार।।