नियति (लघुकथा)
नियति (लघुकथा)
झाड़ू लगने की सर-सर ध्वनि कानों को अपनी ओर खींच रही थी। बच्चों की पतंगबाजी करते हुये आवाज़ें उनके मन की प्रसन्न अवस्था का उद्दघोष करने के साथ हल्की स्मित मुख पर बिखरा देता था। गली से गुज़रते वाहनों का शोर भीतर तक आक्रोश की भावना भर देता था। सामान खरीदने व बेचने की लालसा में चार पैसा कमाने को उद्वेलित व्यक्ति की स्थिति देखते ही करुणा का मन आये दिन पसीज उठता था। पर खुद के सवालों में उलझी करुणा को समझ नहीं आ रहा था कि उसकी समस्या बड़ी हैं या इन लोगों की। अपने ही आप से बातें करती वह सोच रही थी कि यह लोग तो अपने अपनों के लिये कुछ करने की भावना से घर से निकले हैं। किसी को घर की
जिम्मेदारी निभानी है, किसी को अपने गंतव्य तर पहुँचना है। फिर मैं क्यों बेवजह इन सबसे दुखी हो रही हूँ। मैं अपनी खीझ, अपनी झुंझलाहट इन पर क्यों निकालती हूँ। अचानक करुणा को पास की औरतों का स्वर सुनाई देता है। हमें नहीं चाहिए गुब्बारे!नहीं चाहिए!हमारे बच्चे बड़े हो गये हैं! गुब्बारेवाला अपनी पीपनी बजाता ऐसे आगे बढ़ रहा था जैसे वह शहंशाह हो और वे औरतें उसकी प्रजा! करुणा को जीवन का यथार्थ समझ आ गया कि अपनी नियति के हम स्वयं जिम्मेदार है। जीवन जीने का ढंग बदल लिया जाये, जो हमारे पास है उसी में प्रसन्नचित्त रहें तो कर्म पथ पर सवार नौका सुभाग्य की मंजिल पर स्वत: पहुँच जायेगी।