गप्पू (बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथा)
गप्पू (बाल मनोवैज्ञानिक लघुकथा)
ओ गप्पू !इधर आ!
मोनू की आवाज़ सुनकर गप्पू हँसता-हँसता मोनू की बगल में खड़ा हो गया।
क्यों बुलाया मुझे ? ताली बजाकर गप्पू अब उछलने लगा।
आज कुछ देर में मेहमान आने वाले हैं घर में ! उनके साथ एक महिला भी होगी।
अच्छा!
कहकर गप्पू अपने कपड़ों पर पड़ी धूल साफ करने लगा।
तू है बेवकूफ का बेवकूफ! मोनू बोला।
ओय गप्पू, तेरी बैंगन जैसी शक्ल, बंदर जैसी उछल कूद .....और...जहाँ देखो हर वक्त थूकता रहता है, तू तो कमरे में ही रहना, जब तक मैं बाहर आने को न कहूँ, तू अंदर ही रहना। जैसे ही मेहमानों के आने का वक्त हुआ, गप्पू घर के भीतर छिप गया।
पिता ने दूसरी शादी के लक्ष्य से लड़की वालों के समक्ष अपने मानसिक रुप से अपंग 6 साल के पुत्र गप्पू की हकीकत छिपाने के लक्ष्य से उसे मोनू के जरिये कमरे के भीतर छिपे रहने की हिदाय
त की थी। उन्हें यही बताया कि उसका पहली शादी से आठ साल का एक ही बेटा है।
मेहमानों की आवभगत हो रही थी। हँसी-ठिठोली से यकीन हो गया था कि रिश्ता तय हो गया। अचानक कमरे के बंद दरवाजे के पार एक मासूम सी सूरत महिला को नजर आई। वह बिना किसी से कुछ कहे, गप्पू को बाहर ले आई। गप्पू माँ-माँ कहकर उस सभ्य महिला की साड़ी के पल्लू को मुँह में दबा रहा था। पिता ने क्रोधित होकर झटके से गप्पू को महिला से अलग करने हेतु ज्यों ही अपना हाथ बढ़ाया, त्यों ही महिला के हाथों की पकड़ गप्पू के लिये और मजबूत होती चली गई और गप्पू के पिता के प्रति उसके मन में घृणा, आक्रोश एवं तिरस्कार ने जगह ले ली! महिला की आँखें गप्पू के पिता से यही कह रही थी कि काश !एक बार पूर्ण विश्वास करके सत्य कह देते! चल गप्पू, चल, मेरे साथ, आज से तू मेरा होनहार बेटा है।