शिक्षक और शिक्षार्थी
शिक्षक और शिक्षार्थी
यहां हम शिक्षक और शिक्षार्थी की कहानी बतायेगें कि कैसे दोनों के सम्बन्ध थे और कैसे समय की धारा में बदलते गये। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ शिक्षक है तो दूसरी तरफ शिक्षार्थी। शिक्षक का धर्म और कर्म है शिक्षा प्रदान करना और शिक्षार्थी का अर्थ है शिक्षा के अर्थ को ग्रहण करनेवाला।
यानि हम संक्षेप में कह सकते हैं कि एक देता है और दूसरा लेता है जब तक लेने वाला है तब तक देने वाला है और जब तक देने वाला है तब तक लेने वाला है।
शिक्षक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। शिक्षक एक ऐसा कुम्हार है जो अपनी शिक्षा के चाक द्वारा अनगढ़ मिट्टी को भी सुंदर मूरत प्रदान कर देता है या कहे एक ऐसा माली है जो अपनी सुंदर काट छांट से बढते पौधे को उपवन की शोभा बना देता है। जरूरी खादपानी दे उसके व्यक्तित्व को पूर्ण निखार देता है। जरूरत है तो इस बात की कि वह पौधा या वह मिट्टी स्वयं को उस गुरु के हाथों में पूर्ण रुप से सौंप दें और उसके अनुरूप ढल जाए जैसा वह ढालना चाहता है।
लेकिन इस सबसे पहले यह जरूरी है कि शिक्षक वास्तव में एक आदर्श शिक्षक हो जो अपने शिष्यों के सामर्थ्य को रखते हुए उसके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए ही यह सब करे। उसे उसके आंतरिक गुणों को पहचाने, इच्छाओं को जाने, विशेषताओं को समझे। शिक्षक की सफलता इसी पर निर्भर है कि उसने अपने शिष्य को पूरी तरह से जांच परख लिया है और उसी के अनुरूप ही उसको ढालने को तैयार किया है।
वास्तव में प्रकृति एक उत्कृष्ट शिक्षक है जो हमें बताती है कि निस्वार्थ देने का नाम ही शिक्षक का जीवन होना चाहिए। बदले में किसी तरह की कामना या चाह शिक्षक में नहीं होनी चाहिए वरना उसके कार्य स्वार्थप्रेरित कहलाएंगे।
एक समय था जो हमारे यहां गुरुकुल पद्धति थी, जहां बच्चे पढ़ाई के साथ साथ जीवन की व्यवहारिक बातें भी सीखा करते थे। स्वयं ही आश्रम की सफाई, खाद्य सामग्री जुटाना लकड़ी लाना गायब, गाय की देखभाल, साफ सफाई करना, दूर नदी से पानी लाना, शिक्षक की सेवा करना आदि आदि। वहां शिष्य में कोई आम या खास नहीं होता था। सभी समभाव से शिक्षा ग्रहण करते थे। जीवन के हर मोड़ पर जिन भी चीजों की जरूरत पड़ती है उन सभी के बारे में वह अपनी शिक्षा गुरुकुल में ही कर लिया करते थे। नैतिक मूल्य और संस्कृति सभ्यता की घुट्टी गुरू दैनिक जीवन के क्रियाकलापों के साथ पिला दियाकरते थे।
लेकिन वर्तमान में सिर्फ किताबी शिक्षा पर ही ज्यादा जोर दिया गया जिससे आने वाले जीवन में वास्तव में देश के नागरिकों को बहुत ही अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। हर कोई पढ़ लिखकर सोचता है कि उसे सरकारी नौकरी मिले, अच्छी नौकरी मिले। छोटे-छोटे काम, छोटे उद्योग धंधे छोटी-छोटी चीजें करना कोई भी पसंद नहीं करता। अब सरकार ने कुछ सालों से फिर कुछ व्यावहारिक रोजगार परक शिक्षा देने की प्रक्रिया शुरू की है जिसमें कुछ व्यावसायिक शिक्षा भी जोड़ी गई हैं। जो बच्चे पढ़ाई में ज्यादा उत्कृष्ट नहीं है उनको अपने रोजगार के लिए ज्यादा भागदौड़ या संघर्ष ना करना पड़े और वह आसानी से अपना जीवनयापन बिना किसी कुंठा के कर सके।
आज शिक्षक शिक्षार्थी के प्रति कठोर रवैया नहीं अपना सकता और ना ही आज के छात्र या उनके अभिभावक यह पसंद करते हैं। शिक्षक को एक सीमित दायरे में बांध दिया गया है और सही शब्दों में कहा जाए तो उनको मानसिक और आत्मिक तनाव में बोझिल बना दिया गया है। जहां उन्हें शिक्षा तो देनी है बच्चों को व्यवहारिक बातें भी बतानी हैं, सब कुछ करना है लेकिन छात्रों के ऊपर है कि उसको ग्रहण करें या ना करें।
यानि कि परिणाम तो देना है लेकिन परिणाम के पूर्ण प्रयास नहीं कर सकते। आज शिक्षक पर समाज के विभिन्न कार्य सिर पर डाल दिए गए हैं जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में भी गिरावट आ रही है और जिसका दोषी शिक्षक को ही बताया जा रहा है।
शिक्षक को बंजर भूमि के समान किया जा रहा है जिसमें उत्पादक तत्व छीन लिये गये हैं। ना ताड़ना है और ना कोई दण्ड देने का विधान। अब फसल सिर्फ खाद पानी से ही तो नहीं बढेगी। उसकी अच्छी पैदावार के लिये निराई गुङाई भी तो जरूरी है।
अंत में यही कहना चाहूंगी शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कार्य करें तो दोनों का ही जीवन सफल उत्कृष्ट और देश के हित में होगा। जब तक ये दुनिया है शिक्षक और शिक्षार्थी का रिश्ता सदैव रहेगा और उनकी कहानियां सुनने पढने को मिलती रहेंगीं।