शिद्दत
शिद्दत
ओक्टुबर नवम्बर की ग़ुलाबी ठंड थी, मै ऑफिस में बैठा कॉफ़ी की पहली ही सीप ली थी कि पिऊन ने दस्तक दी, सर कोई मिलना चाहता है, नाम पूछा तो पता चला पहचान के है, सो अंदर बुला लिया l शर्मा जी के अंदर आते ही मैंने उठ कर उनका अभिवादन किया l और बताइये शर्मा जी कैसे आना हुआ, चाय कॉफ़ी कुछ लेंगे मैंने कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा था l तब तक मेरा ध्यान भी नहीं गया था कि उनके साथ कोई है l अभी मै नजर डालता इससे पहले शर्मा जी बोल पड़े अभिनव जी ये इशिका जी हैं, इसी बिल्डिंग में डांस क्लास डाल रहीं हैं, कल उसी की पूजा है तो आप आइएगा l ये यहाँ किसी को जानती नहीं इसलिए मै साथ आया l शर्मा जी लगभग एक सांस में सब बोल गए थे, मेरी नजर इशिका पर टिकी रही, ऐसा मानो हया और सादगी की मूरत मेरे सामने हो, गहरी आँखे, लम्बे बाल कभी कानो में डाले झुमके से अठखेलियाँ कर रहे थे तो कभी गालों से शरारत कर रहे थे,उन बालों से बेवज़ह ही रस्क होने लगा l अच्छा अभिनव जी हम चलते हैं, आप जरूर आइएगा, इतना सुनते ही मै ख्यालों से बाहर आया और जी जरूर आऊंगा कहकर एक हल्की सी मुस्कान लबों पे आगयी, प्रतिउत्तर में उन्होने भी मुस्कुरा दिया l मै ऑफिस के बाहर तक छोड़ने गया, वो ओझल होते गए और मै निहारता रहा और दिल से आवाज़ आयी इश्क़ है क्या.... नहीं न ? सिर को झटकते हुए हौले से एक चपत लगायी थी और अनायास ही कदम बालकनी के तरफ मुड़ गए थे, दूर कही से जगजीत सिंह की दिलक़श आवाज कानो में मिश्री घोल गयी... उनसे नजरें क्या मिली रोशन फिजाएं हो गयी, और वो समझे नहीं ये बेख़ुदी क्या चीज है...l
आज लंच भी स्किप कर दिया था मन नहीं था कुछ खाने का एक अजीब से एहसास से मन प्रसन्न था यूं ही अचानक कॉफी की तलब हुई तो ऑफिस लॉक कर कैफे पहुंच गया और पसंदीदा कैफेचीनो मंगाई कॉफी के कप पर बने हार्ड को देखकर एक अजीब सी मुस्कान फिर से फैल गई, दिल ने फिर कहा इश्क है क्या.. नहीं न ? कॉफी खत्म करके बाहर देखा तो मौसम भी घर जाने का इशारा कर रहा था, रात पूरी तरह शाम को अपने आगोश में ले चुकी थी हल्की ठंड का एहसास बदन में हो रही सिहरन से पूरी तरह महसूस हो रही थी l मुझे भी काम करने का भी मूड नहीं था तो घर जाने की तैयारी करने लगा, बैग उठाया और कार में जा बैठा कार में बैठते ही वही जगजीत सिंह की मखमली आवाज में गजल लगाई, होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है... और धीरे से कार घर के रास्ते पर ले लिया अभी कुछ दूर ही आगे गया था कि एहसास हुआ कि ठंड थोड़ी बढ़ने सी लगी है सड़कों पर पूरी तरह सन्नाटा था, अंधेरा पूरी तरह से रोशनी को निगल चुका था l माहौल थोड़ा डरावना सा था जाने क्या होने वाला था, थोड़ा आगे बढ़ा तो देखा रास्ते पर बस का इंतजार करती हुई इश्क खड़ी थी मेरा मतलब है इशिका खड़ी थी l दिल प्रसन्नता के साथ एक फिक्र से भी भर आया, यह फिक्र क्यों हुई थी मुझे जाने क्यों दिल घबरा रहा था l मैंने कार रोककर उसे लिफ्ट ऑफर की इश्क ने सकूचाते हुए मना किया शायद एक अजनबी से लिफ्ट नहीं लेना चाह रही थी l मैंने फिर से आग्रह किया मैम प्लीज बैठ जाइए मैं आपको ड्रॉप कर दूंगा अंधेरा हो चुका है बस मिलना मुश्किल है l थोड़ी सी घबराई हुई इश्क कार के पीछे वाली सीट पर बैठ गई, मैंने भी ग्लास को सही करते हुए गाड़ी आगे बढ़ा दी मैं मिरर में इश्क को देख पा रहा था वो पलकें झुकाए बहुत ही सादगी से बैठी हुई थी शायद उसे ठंड भी लग रही थी मैंने तुरंत ही कॉफी के लिए पूछा उन्होंने ना में सर हिला दिया l कार धीरे-धीरे अपनी गति से खाली सड़क पर दौड़ रही थी मैंने पूछा आपको कहां तक जाना है उन्होंने कहा एयरपोर्ट रोड पर आशियाना अपार्टमेंट, मैं चौक गया अरे मैं भी तो वही रहता हूँ कभी देखा नहीं आपको उन्होंने कहा बस पिछले हफ्ते ही शिफ्ट हुए हैं l मैं सिर्फ उन्हें सहज करने के उद्देश्य से बात किए जा रहा था थोड़ी ही देर में घर आ गया मैंने पार्किंग में कार पार्क की और उनसे पूछा कौन से विंग में रहते हैं चलिए मैं आपको छोड़ देता हूं, नहीं नहीं मैं चली जाऊंगी आप परेशान ना हो इतना कहकर इश्क तेज कदमों से चली जा रही थी और मैं बस देखता ही रहा l वह ए विंग की तरफ गई थी मेरा घर बी विंग में था उसे जाते हुए देख कर फिर कुछ चुभा फिर दिल ने कहा इश्क है क्या... नहीं ना ? सिर झटकते हुए मैं भी घर की तरफ हो लिया l
घर आकर सोफे पर लगभग आधे लेटा सा बैठ गया बैग एक तरफ रख कर कुछ सोच विचार में मन अजीब सी भावनाओं से घिरा हुआ था समझ नहीं आ रहा था ऐसी बेचैनी क्यों हो रही है हाथ मुंह धो कर कपड़े बदल मैं बालकनी में आ गया गुलाबी ठंड अपने पूरे शबाब पर थी मैंने एक हल्की हाफ स्वेटर डाल रखी थी l आसमां पर देखा तो चांद आधा था अपार्टमेंट की बाउंड्री के अंदर एक छोटा सा गार्डन था जिसमें हरी दूभ पर चांदनी रात में ओस की बूंदे साफ चमक रही थी मानो आसमां मोती लुटा रहा था और उस ओस से धारा अपनी प्यास बुझा रही थी धवल चांदनी चारो तरफ बिखरी हुई थी पर मेरा मन एक अजीब सी भंवर में गोते खा रहा था मैं बार-बार ए विंग की तरफ क्यों देख रहा था, क्या ढूंढ रहा था मै, मेरी आंखें क्या तलाश कर रही थी, शायद इश्क ?पता नहीं यह बेचैनी क्यों थी ? एक झलक देखने की या उस चेहरे को समझने की मैंने फिर से एक नजर ए विंग की तरफ दौड़ाई कहीं एक बालकनी में माध्यम सी रोशनी जल रही थी, वहीं बालकनी में तुम खड़ी थी इश्क l वही खुले बाल वही लखनवी कुर्ता धवल चांदनी में तुम कितनी निर्मल लग रही थी l मानो चांद की रोशनी छन कर सीधे तुम्हारे चेहरे पर आ रही थी मैंने आज दो चांद के दीदार किए थे एक आसमां पर और एक तुम्हारी बालकनी में l शायद ठंड कुछ ज्यादा बढ़ गई थी तुमने अपनी हथेलियों को रगड़ कर अपने चेहरे को स्पर्श किया था मैं यूं ही जड़वत जाने कब तक तुम्हें निहारता रहा तुमने अब बालकनी की लाइट ऑफ कर दी थी तुम जाने लगी थी l मैं कराह उठा मन था तुम्हें रोक लू तुम्हें पास बिठाकर पूछूं, इश्क तुम कौन हो ? पर मन का कहा कहां हो पाता है तुमने बालकनी का पर्दा लगाया और तुम चली गई थी l मैं अभी भी जाने किस आशा से तुम्हारी बालकनी की तरफ देखे जा रहा था दूर कहीं घंटाघर ने 12:00 बजने का इशारा किया था उसकी आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की मैं भी बालकनी से हॉल में आ गया।