दीनू
दीनू
बसंत अपने पुरे सवाब पर था। ओस के मोती खेतों में बिखरे हुए थे, आसमान में धवल चाँदनी फैली हुई थी, इस दूधिया चाँदनी में पिले पिले सरसो के फूल साफ देखे जा सकते थे।खेत के बीचो बीच बने मचान पर लेटे दीनु कभी खुला आसमान निहरता तो कभी अपने लहलहाते खेतों को, जाने किसको ढूढ़ता था। तारों से बातें यूँ करता मानो रोज की बीती उन्हें सुना रहा हो। क्या सच में वो तारों से बातें करता था या चार साल पहले गुजरे चुके अपने बाबा को उनमे तलाशता था, वो सबकुछ बताना चाहता था जो वो बाबा के जीते जी कभी बता ही नहीं पाया। कितना गैर जिम्मेदार था मै, कभी समझ ही नहीं पाया बाबा की उम्मीदों को उसदिन कितनी पीड़ा हुई होगी न उन्हें। अभी माँ को गुजरे कुछ ही महीने हुए थे, जाने से पहले हमारा ब्याह कर गई थी, देख दीनु बेला अच्छी लड़की है ब्याह कर ले, मेरी बीमारी का कोई ठिकाना नहीं है, कब आँखें बंद हो जाए कुछ पता नहीं, अरे शरदा क्यों किसी लड़की की जिंदगी ख़राब कर रही हो, एक निकम्मे के पल्ले बांधकर।
कितनी बार समझाया है ये शहर की ज़िद्द छोड़ दे, कौन देगा इसे शहर में नौकरी पढाई तो हुई नहीं शाहबज़ादे से अब कम से कम खेती में ही हाथ बटा दे अपनी धरती सोना उगलेगी सोना लगभग खीझते हुए कहा था बाबा ने। आप ही उगाओ सोना हमे नहीं जाना खेतों पर, कहकर वहाँ से चला गया था मै बिना ये सोचे कि उनपर क्या गुजरेगी। माँ की बीमारी को देखते हुए हमारा ब्याह बेला से हो गया, बहुत ही सुशील और गुणी थी बेला, आते ही पूरा घर संभाल लिया। माँ और बाबा दोनों ही खुश थे पर बेला की देखभाल भी माँ को नहीं बचा पायी, माँ ने आँखें मूंद ली थी।
कुछ दिन बाद मैंने भी शहर जाना तय किया बेला ने बहुत समझाया कि बाबा को मेरी जरुरत है वो अकेले हो जाएंगे पर उस वक़्त मै कुछ भी सुनना समझना नहीं चाहता था अंततः मै शहर आगया बाबा स्टेशन आए थे मुझे छोड़ने, मेरे बैग में कुछ पैसे भी रख दिए थे जो मुझे शहर पहुँच कर पता चला था। बहुत धक्के खाये शहर में पर नौकरी नहीं मिली हर जगह मेरा अनपढ़ होना आड़े आ जाता तब बाबा का ख़याल आता कि कितना सही कहते थे अच्छी जिंदगी जीने के लिए पढ़ना जरुरी है पर जैसे उनकी बातें न मानने की मैंने कसम खा रखी थी, इधर बाबा भी बीमार रहने लगे थे, बेला ने कई बार ख़बर भिजवाई थी कि गाँव आजाओ बाबा अकेले हो गए है पर मुझ पर तो शहर का अलग ही धुन सवार था। शहर में दो महीने हो गए थे कोई नौकरी नहीं मिली जैसे तैसे मजदूरी करके दिन गुजार रहा था धीरे धीरे बाबा की बातें समझ में आने लगी थी उन्हीं दिनों गाँव से आए बिरजू ने बताया कि बाबा ने खाट पकड़ ली है और मुझे भी गाँव और बाबा की बहुत याद आरही थी तो मै गाँव चला आया।
बाबा का हाथ पकड़ कर बहुत कुछ कहना चाहता था, उनसे क्षमा याचना करना चाहता था पर शब्द नहीं निकल पा रहे थे तभी बाबा ने कहा दीनु बेटा कुछ नहीं रखा शहर में अपने गाँव में भी रोटी है, अपने खेतों में सोना है जो मेहनत तु शहर में कर रहा है उसके आधा भी खेतों में करेगा तो तेरा भंडार भरा रहेगा, इतना कहकर बाबा भी चल बसे। अब मेरे साथ सिर्फ बाबा की नसीहत और बेला की समझ थी मैंने भी बाबा का कहा गाँठ बाँध लिया खूब मेहनत की और देखते ही देखते घर खलिहान अनाजों से भर गए। आज सबकुछ है मेरे पास पर कुछ खालीपन सा है, मन के अंदर एक तूफान सा उठता है एक मलाल हमेशा रहता है बाबा से कुछ न कह पाने का, उनको न समझ पाने का मन ही मन रोज क्षमा मांगता हूँ इस उम्मीद से कि जहाँ भी होंगे मुझे सुन रहे होंगे। भोर की पहली किरण निकल चुकी थी किरण की रौशनी में ओस के मोती चमकने लगे थे, सरसो के पिले फूल भी नई सुबह का स्वागत कर रहे थे, बेला भी चाय लेकर मचान पर आचुकी थी, मेरी लाल पड़ी आँखों को देखर समझ चुकी थी कि आज फिर पूरी रात बाबा से बात हुई है।
