तीज
तीज
सुबह से हल्की हल्की फुहार गिर रही थी, बरसात लगभग जाने को थी। मौसम बहुत खुशनुमा था। आज बाहर कुछ ज्यादा ही चहल-पहल लग रही थी, सजी संवरी औरतें, मेहंदी रची हुई हथेलियां, मांग में सीधी लकीर बनाता सिंदूर, चूड़ियों से भरी कलाइयां। किसी की हरी तो किसी की लाल किसी ने बांधनी साड़ी बांध रखी थी तो किसी ने चुनरी, कितनी खुश थी यह सभी औरतें। बालकनी में खड़ी अवनि यह सब देख कर सोचने लगी, कितनी मासूम होती है ना हम औरतों की भावनाएं, छोटी-छोटी बातों में ही अपनी खुशियां तलाश लेते हैं, अपने आप को बहला लेते हैं, ये तीज त्यौहार सबके अंदर एक अलग ही उमंग भर देते है। पर क्या हम औरतों की ख़ुशी बस इतनी ही है ? कभी कोई हमसे क्यों नहीं पूछता कि हमारी ख़ुशी किसमें है ? या फिर परिवार और सामाज में हम औरतों कि ख़ुशी कोई मायने ही नहीं रखती।
"अरे दीदी बालकनी में क्या कर रहे हो?" तभी कमली ने अवनि का ध्यान भंग किया!
" अरे कमली तुम आ गयी चल फटाफट चाय पी ले फिर काम में लगना है",
"अरे दीदी कैसी बातें कर रहे हो आज चाय तो क्या मैं पानी भी नहीं पियूंगी आपको पता नहीं क्या आज तीज है आज मेरा व्रत है।"
" व्रत ! किसके लिए ?" अवनि ने थोड़ा चौंक कर कहा था।
"अपने पति के लिए दीदी और किसके लिए", कमली ने उत्तर दिया।
"कौन सा पति, वही जो तुझे और बच्चों को छोड़ कर चला गया और एक बार पलट कर देखा तक नहीं कि तू किस हाल में है ? बच्चों को कैसे संभाल रही है ?"
अवनि के इस प्रश्न से कमली थोड़ा उदास हो गयी थी, मन वेदना से भर आया था, बाहर का मौसम भी बदलने लगा था, बादल और काले हो गए थे, हवाओं ने अपना रुख़ बदल लिया था, मानो कोई तूफ़ान आने वाला हो। एक तूफ़ान कमली के अंदर भी उठ रहा था कमली ने थोड़ा संभलकर कहा, नही दीदी मै उस पति के लिए उपवास रखा है जिससे माँ बाप से ब्याह दिया और हर हाल मे निभाने वाली परम्परा की गठरी मेरे सिर पर रख दी , जिसे पूरी जिंदगी ढोना है। भावनाओं के अलग प्रवाह में थी कमली, बोलते बोलते रुआंसा हो गयीं थी, आँखे नम और लाल हो आयी थी, कमली मानो आज सारे सैलाब तोड़ देना चाहती थी। मन हुआ उसे समझाऊँ पर कमली ही बोल पड़ी, "दीदी ये जो मंगलसूत्र है न वो हम औरतों की सुरक्षा भी है और हमारी मज़बूरी भी, गले में मंगलसूत्र हो तो ऐय्याश नज़रे हमारा पीछा नहीं करती, और न हो तो सब अपनी जागीर समझते है। और फिर दीदी माफ़ करना, पर आप भी तो साहब जी के लिए उपवास रखते हो जब कि वो तो सर्फ नाम के लिए घर पर रहते है।"
कमली आज एक अलग ही रूप में नजर आरही थी, बारिश ने भी जोर पकड़ लिया था हवा के साथ पानी की बूंदे खिड़की से अंदर आने लगी थी। "बोलो न दीदी क्य ये ऐशो आराम की जिंदगी दे देने से पति का फ़र्ज़ पूरा हो जाता है क्या ? कह दो कि इस जिंदगी में घुटन नहीं है।" कमली ने खिड़की बंद करते हुए कहा था। कमली के शब्द अवनि के कानो में मानो गर्म शीशे की भांति पिघल रहे थे,अवनि मौन पाषाण की मानिंद सब सुन रही थी। कमली ने फिर बोलना शुरू किया। "दीदी ऐसे चुप मत रहो आपकी और मेरी परिस्थिति में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। मुझे तो कम से कम इतना तो सुकून है कि मेरा पति एक बार में मुझे छोड़ कर चला गया और मैंने इस सच को स्वीकार कर लिया है, पर आपके पति तो साथ होकर भी साथ नहीं है, क्या मै नहीं देखती आपकी तरसती आँखों को, साहब जी कभी कभी एक दो महीने पर घर आते भी है तो सिर दिखाने के लिए की वो आपके पति है, कभी पूछते भी नहीं कैसी हो ? क्या मै इस चुभन को नहीं समझती ? फिरभी आपने व्रत रखा है न ? हम औरतों की जिंदगी ऐसे ही दिखावे से चलती है दीदी। हर हाल में मुस्कुराना आपको भी है, मुस्कुराना मुझे भी है। तो क्यों न सिर्फ मुस्कुराया जाए ? दीदी इस घुटन भरी जिंदगी से बाहर आओ, आसमां बहुत बड़ा है उड़ने के लिए थोड़ी सी खुली जगह हमें भी मिल जाएगी। अवनि, कमली को अपलक निहारती रही, आज उसे ऐसा लग रहा था जैसे कमली इसकी कामवाली न होकर उसकी दोस्त है। अरे दीदी ऐसे क्या निहार रहे हो, मैट्रिक पास हूँ, थोड़ी बहुत भावनाओं कि समझ मुझमे भी है!"
अवनि ने उठकर उसे गले लगाया और बोल पड़ी तू तैयार होकर बच्चों को लेकर यहीं आजाना साथ में पूजा करेंगे। दोनो की अश्रु धारा बह निकली, दोनों एक हल्की सी मुस्कान के साथ मानो ये तय किया हो की इस बनावटी ख़ुशी से बाहर आकर खुद के लिए जियेंगे। बाहर बरसात भी थम चुकी थी, हवाओं ने भी मंद गति पकड़ ली थी, आसमां भी धीरे धीरे साफ होने लगा था।
