शह और मात के पांच दिन
शह और मात के पांच दिन
महाभारत युद्ध शुरू हुए आज ग्यारहवाँ दिन था। परम प्रतापी पितामह भीष्म के धराशायी होने के बाद कौरव सेना की कमान गुरु द्रोणाचार्य के हाथों में थी। पितामह भीष्म युद्ध कला में बहुत निपुण थे। पर गुरु द्रोणाचार्य चालाकी और होशियारी में पितामह से बहुत आगे थे। सामने बाले की कमजोरी पढना उनके बायें हाथ का काम था। शत्रु पक्ष के हर योद्धा की कमजोरी उन्हें ज्ञात थी। अर्जुन की ताकत और कमजोरी का सही सही आकलन कोई कर पाया तो वह गुरु द्रोणाचार्य ही थे। अर्जुन की ताकत ही उनकी कमजोरी थी। अब पांच दिन के युद्ध में यह साबित होना था। तथा एक और बात कि शह और मात के खेल में गुरु द्रोणाचार्य कितने ही बड़े खिलाड़ी हों पर शत्रु सेना में एक उनसे भी बड़ा खिलाड़ी था। यों तो श्री कृष्ण ने युद्ध में अस्त्र न उठाने का प्रण लिया था पर पितामह भीष्म ने उन्हें अपनी युद्ध निपुणता से प्रण छोड़ने पर मजबूर कर दिया। पर अब जब गुरू द्रोणाचार्य जैसे चालाक कौरवों के सेनापति थे तो शह और मात की हर चाल का श्री कृष्ण ने ऐसा जबाब दिया कि जब पन्द्रहवें दिन द्रोणाचार्य वीरगति को प्राप्त हुए तब तक पाण्डवों की सेना का संख्या बल कौरवों से बहुत ज्यादा था।
सुबह सुबह महारथी कर्ण कवच पहनकर युद्ध के लिये चला तो कौरवों की सेना में अलग ही जोश दिखने लगा। यद्यपि पितामह जैसे महान योद्धा शर शैय्या पर लेट गये थे पर कर्ण और राजा भगदत्त जैसे महारथी युद्ध में शामिल हो गये थे। कर्ण को तो पितामह ने दस दिन युद्ध में आने नहीं दिया था। भगदत्त भी अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। गुरु द्रोणाचार्य ने कई बार कर्ण के पराक्रम की बुराई की थी। रण से पूर्व उसे महारथी न मानकर अतिरथी ही कहा था। पर जब खुद के ऊपर युद्ध की जिम्मेदारी आयी तो सबसे पहले कर्ण को ही याद किया। होनहार व्यक्तियों का कितना भी अपमान कर लो पर जरूरत के समय वही याद आते हैं।
आज अर्जुन के पराक्रम के सामने कौरवों में भगदड़ मच गयी। गुरु द्रोणाचार्य की योजना युधिष्ठिर को बंदी बनाने की थी। तो अर्जुन का सामना कर्ण ने किया। आज पहले ही दिन कर्ण ने अपनी ताकत दिखा दी। जब कर्ण के तीर से अर्जुन का रथ तीन हाथ पीछे हटा तो खुद भगवान कृष्ण उसकी तारीफ करने से खुद को रोक न सके। कर्ण के तीरों से अर्जुन की पताका पर बैठे महाबली हनुमान विचलित हो गये। हनुमान की क्रोधित नजर से कर्ण डर गया। कुछ भी हो कर्ण जैसा पराक्रमी वीर बहुत कम होते हैं।
द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को परास्त कर गिरफ्तार करने ही बाले थे कि अर्जुन आ पहुंचे। अर्जुन के सामने गुरु द्रोणाचार्य का मनोरथ पूर्ण नहीं हो पाया। शह मात के खेल के पहले दिन श्री कृष्ण ही विजयी रहे।
महाभारत युद्ध का बारहवां दिन :
गुरु द्रोणाचार्य ने स्पष्ट कह दिया कि अर्जुन को जीत पाना असंभव है। गुरु की यह बात कर्ण को पसंद नहीं आयी। अर्जुन को युद्ध से अलग कर फिर युधिष्ठिर को वंदी बनाने की योजना बनी। कर्ण खुद अर्जुन से युद्ध को तैयार था। पर द्रोणाचार्य ने सांग नरेश के पुत्रों को अर्जुन को चुनौती देने के लिये कहा। सांग राजकुमार न तो दिव्यास्त्रों के जानकार थे। वीरों की श्रेणी में उन्हें रथी ही माना जाता था। पर हर तरह के हथियार चलाने में निपुण थे। ऐसे वीरों को अर्जुन के सामने भेजने की नीति किसी को समझ नहीं आयी। पर यही द्रोणाचार्य की सबसे बड़ी चाल थी। अर्जुन को उसी की ताकत से हराना। अर्जुन को उसकी अच्छाई से मजबूर कर देना। अर्जुन का निश्चय कि वह किसी भी दिव्यास्त्र के अनजान से साधारण अस्त्रों से ही युद्ध करेंगे और गांडीव धनुष का प्रयोग भी नहीं करेंगें, इस गहरी चाल का सार था। सांग कुमारों ने अपना वचन निभाया। साधारण अस्त्रों से युद्ध करते हुए अर्जुन को पूरा दिन लग गया। और गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को हराकर गिरफ्तार कर ही लिया था।
"अर्जुन। तुम अभी अपना देवदत्त शंख बजाओ। इतनी जोर से कि पाण्डव सेना तक ध्वनि पहुंचे।"
श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने अपना शंख बजाया। शंख की ध्वनि सुन कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। चारों तरफ - अर्जुन आ रहा है, की आबाजें आने लगी। गुरु द्रोणाचार्य व कर्ण अपनी सेना को ही नहीं सम्हाल पा रहे थे। अर्जुन के आने की खबर सुन पाण्डव सेना में अजीब उत्साह आ गया। अर्जुन जब तक आये तब तक तो कौरव सेना भाग चुकी थी। शह और मात के खेल का दूसरा दिन भगवान कृष्ण के नाम रहा।
महाभारत युद्ध का तेरहवां दिन :
आज गुरु द्रोणाचार्य ने ऐसी योजना बनाई जिसे सोचना भी किसी के बस की बात नहीं। सांग देश के शेष राजकुमारों ने प्रतिज्ञा की कि आज युद्ध में अर्जुन को शाम तक वापस नहीं जाने देंगें। अपने प्राण भी तब तक नहीं त्यागेंगे जब तक काम पूरा न हो जाये। निश्चित ही ऐसा हुआ भी।
युद्ध में चक्रव्यूह रचा गया। अर्जुन की अनुपस्थिति में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोड़ने की जिम्मेदारी उठाई। लोककथाओं के अनुसार अभिमन्यु ने चक्रव्यूह की शिक्षा माता के गर्भ में सीखी थी। यह भी संभव है कि अभिमन्यु ने उस दिन अपने पिता की जिम्मेदारी उठाई व प्राण देकर भी अपनी जिम्मेदारी निभाई। युद्ध की सबसे दुखद बात थी कि अभिमन्यु का सामना सात महारथियों ने किया और अंत में निहत्था होने पर उसका वध किया। प्रथम दृष्टया शह और मात के खेल में द्रोणाचार्य जीतते नजर आते हैं। पर इसी दिन कौरव सेना के कई महावीरों जिनमें खुद गुरू द्रोणाचार्य व महारथी कर्ण भी था, की मृत्यु की नींव रखी गयी। युद्ध नियमों के अनुसार जो निहत्थे का वध करे, उसका वध भी निहत्था होने पर भी किया जा सकता है। अन्यथा द्रोणाचार्य व कर्ण का वध संभव ही नहीं था। गुर द्रोणाचार्य की अभिमन्यू पर बौखलाहट बाद में कौरवों की हार का कारण बनी।
महाभारत युद्ध को चौदहवां दिन :
अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली कि सूर्यास्त से पूर्व या तो जयद्रथ का वध करूंगा या खुद जलती अग्नि में प्राण त्याग दूंगा। गुरु द्रोणाचार्य ने कमल के आकार का अजीब व्यूह बनाया। जिसकी नाल में जयद्रथ था। जयद्रथ की हिफाज़त खुद भगवान कृष्ण की नारायणी सेना के सैनिक कर रहे थे। व्यूह में केवल अर्जुन भीम व सात्यकि प्रवेश कर पाये। इस दिन कौरव सेना का सबसे अधिक संहार हुआ। अर्जुन को रोक पाने में सभी असमर्थ थे।भीमसेन ने दुर्योधन के कई भाइयों को एक ही दिन में मार डाला। दुर्योधन की नीतियों का विरोधी रहा व द्रोपदी चीरहरण का विरोध करने बाला इकलौते कौरव विकर्ण ने भीमसेन को रोका। युद्ध में विकर्ण मारा गया। फिर भीमसेन को रोकने के लिये चीन के राजा महारथी भगदत्त को भेजा गया। भगदत्त ने भीम और भीम की सहायता के लिये आये घटोत्कच को भी हराया। फिर अर्जुन से युद्ध में राजा भगदत्त मारा गया। वह भी तब जब श्री कृष्ण के कहने से अर्जुन ने भगदत्त का चश्मा काट दिया।
शाम तक अर्जुन व्यूह की कमल नाल तक पहुंच गये। पर अपने निश्चय के अनुसार फिर गांडीव छोङकर साधारण धनुष से नारायणी सेना से लड़ने लगे। सांग वीरों ने तो दो पुरे दिन अर्जुन को उलझा रखा था। इस तरह द्रोणाचार्य की योजना पूर्ण होनी ही थी। पर भगवान कृष्ण की चतुराई से जयद्रथ खुद सुरक्षा घेरे से बाहर आ गया और मारा गया। शह और मात के खेल में चौथा दिन पुरी तरह भगवान कृष्ण के नाम रहा।
महाभारत युद्ध के चौदहवें दिन की रात्रि :
अपनी असफलता से गुरु द्रोणाचार्य व्यथित हो गये। पितामह भीष्म व द्रोणाचार्य में यही अंतर था। जहाॅ भीष्म आलोचनाओं पर भी संयम नहीं खोते थे, वहीं द्रोणाचार्य विचलित हो जाते थे। चौदहवें दिन की हार के बाद द्रोणाचार्य ने सबसे बड़ी गलती की। जिससे पूरा युद्ध पाण्डवों के पक्ष में हो गया। उत्तेजना में गुरु द्रोणाचार्य ने प्रतिज्ञा कर ली - अब जब तक एक भी पाण्डव या मैं जीवित हूं, युद्ध चलता रहेगा।
फिर पहली बार रात में युद्ध हुआ। श्री कृष्ण अर्जुन को शिविर में ले चले और घटोत्कच से बोलते चले - पुत्र। द्रोणाचार्य ने रात में भी युद्ध की घोषणा कर दी है। तुम्हारे पिता और चाचा पहले ही बहुत थके हुए हैं। तुम महाबली हो। अब तुम्हारे अलावा किस पर विश्वास करूं।
सचमुच रात्रि युद्ध में घटोत्कच अजेय बन गया। राक्षसों की शक्ति रात में बहुत बढ जाती है। बहुत सारी कौरव सेना का अंत कर जब घटोत्कच वीरगति को प्राप्त हुआ तब तक न केवल कौरवों की सेना पाण्डवों से आधी रह गयी अपितु कर्ण की अमोघ इंद्र शक्ति भी उसके पास नहीं थी। शह और मात के युद्ध में श्री कृष्ण ने द्रोणाचार्य को हर तरह से हरा दिया।
महाभारत युद्ध का पन्द्रहवा दिन :
गुरु द्रोणाचार्य विगत दिन की असफलता से इतने हताश हो गये कि साधारण सैनिकों के प्रति दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। सप्तर्षियों के धिक्कार के बाद भी जब उन्होंने अपना हठ नहीं छोड़ा तो भगवान कृष्ण की योजना अनुसार अश्वत्थामा की मृत्यु की झूठी बात बताकर उनसे अस्त्र रखवा दिये। निहत्थे द्रोणाचार्य का वध धृष्टद्युम्न ने किया। धृष्टद्युम्न के इस कृत्य से युधिष्ठिर व अर्जुन भी बहुत नाराज थे। पर भगवान कृष्ण ने याद दिलाया कि धृष्टद्युम्न ने कोई अधर्म या युद्ध नीति के विपरीत काम नहीं किया है। निहत्थे अभिमन्यू का वध करने के कारण द्रोणाचार्य भी निहत्थे होने पर भी वध्य हैं। पांचवे दिन भी शह और मात के खेल का पलड़ा भगवान कृष्ण का ही भारी रहा। अभिमन्यू वध में शामिल होने के कारण सत्रहवें दिन कर्ण भी अर्जुन के हाथों निहत्था होने पर भी मारा गया।
इस तरह पांच दिनों के युद्ध में निहत्थे होने के उपरांत भी भगवान श्री कृष्ण ही युद्ध के हीरो थे।
दिवा शंकर सारस्वत 'प्रशांत'
