सौतन औरत भी है
सौतन औरत भी है
मैं आज सुबह से ही एक विचार को लेकर उधेड़बुन में थी।विचार भी अजीब सा की सपने जब हमारी आकांक्षाओं का प्रतिबिंब मात्र होते है तो हम उनको लेकर इतने उलझे से क्यों होते है?
इसी सोच में थी कि काम वाली बाई माला ने चाय का कप थमाया, और मेरे पास बैठ गयी।
"दीदी एक बात कहनी थी"
"हां बोलो"
"दीदी सुबह हम सपना देखे कि..."
"अरे नहीं,अभी इसी पर सोच रही थी...अच्छा ख़ैर छोड़ो बताओ क्या देखी!"
" वो दीदी......ऐसा था कि...अच्छा दीदी..सपना अच्छा है या बुरा कैसे जानते हैं?"
"तुम अभी नहीं बताना चाहती तो रहने दो, हम फिर कभी सुन लेंगे"
"...सौतन का पिटना देखे हैं हम "
"अरे! "
"चाहते तो थे कि मरी किसी दिन अच्छे से कूटी जाय.. मर जाय सड़ जाय लेकिन..."
"लेकिन? लेकिन क्या...?"
"बहुत बेज्जती देखे, सारे मर्द दुर्गति कर ...राम राम।"
"ओह..पर तुम तो चाहती थी न की उसे सजा मिले"
"अब चाहते तो थे पर .....करमजली औरत भी तो है!"
"हम्म...जाने दो ...सपना था वो।"
"ओ ही तो? सपना भोर में देखे हैं ,सच हो गया तो?"
"हहहहह क्या चाहती हो तुम? मैं क्या कहूँ?"
"कुटान तो हो... जम के हो पर ....दुर्गति न हो"
"ओके ,जाओ नहीं होगा"
"कइसे?"
"तुम मुझे बताई हो न, औरत को सपना सुनाओ तो पूरा नहीं होता।"
"ए दीदी तब तो उस डायन की खाट खड़ी न होई..."
"हहहह तुम भी अजीब हो माला , इतना गुस्सा है तो जाकर जोर से, दो हाथ तुम ही लगा दो।"
" जाय दो दीदी, मरद वहां मुहँ न मरिहैं तो कहीं और ..."
मेरा चाय का खाली कप लेकर माला चली गयी।मगर माला का सपना और बातें मेरे विचारों में उधेड़बुन को इंसानी शक्ल दे चुकी थीं।
जो नजरें चुराते हुए फुसफुसा रहा था "इंसान होना ही सपनो में उलझाता है।"