Saroj Verma

Romance Tragedy

4.5  

Saroj Verma

Romance Tragedy

सावन का महीना...

सावन का महीना...

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ओ हीरामनी जिज्जी!

हाँ...मँझली भौजी, का हुआ, हीरामनी ने अपनी मँझली भौजी सियादुलारी से पूछा।

  हम कह रहें थे कि मण्डप सजने वाला हैं, दीपमाला को मण्डप के तले हल्दी तेल भी तो चढ़ेगा तो जरा पहले से ही सब तैयार करके रख लो, एक बड़े से बरतन में हल्दी घोलकर रख देतीं, जिससे उस समय हैरान ना होना पड़े, हम तो ना देख पाएंगे अपनी बिन्नो दीपमाला को ऐसे, उसे देखकर हम तो अपने आँसू नहीं रोक पाते, दो दिन बाद हमारी गुड़िया ससुराल चली जाएंगी, सियादुलारी बोली।

   ठीक है मँझली भौजी, तुम चिंता नाही करो, हम हैं ना, हीरामनी बोली।

 फाल्गुन महीना चल रहा था, हल्की गुलाबी ठंड थीं और दीपमाला की मण्डप की तैयारियाँ चल रहीं थीं और दीपमाला भी बड़े असमंजस में थीं कि एक बार तो मिली है वो लड़के से, जब वो उसे देखने आया था, उसने तो ठीक से नजर भर के उसे देखा भी नहीं, पता नहीं स्वभाव का कैसा है, इसी उधेड़बुन में दीपमाला उलझी हुई थी।

   शादी की रात भी आ पहुंची, दूल्हा फेरों के लिए मण्डप में आया और इधर से सजी संवरी दीपमाला ने भी मण्डप में प्रवेश किया, इतना बड़ा घूंघट कि कोई भी बहु का चेहरा ना देख पाएं, सिर्फ उसकी मेहंदी लगी हथेलियां और महावर लगे पांव ही दिख रहे थे, सारे नेगचार के बाद दीपमाला विदा होकर ससुराल आ गई, पराया घर, पराए लोग, जिन्हें अब उसे अपना बनाना था, सकुचाई सी बैठी थी, औरतों के बीच घिरी हुई, मुंह दिखाई की रस्म हुई और फिर कुलदेवी की भी पूजा हुई, सारे नेगचार निभाने में दो दिन लग गए।

    आज रात उसका अपने दूल्हे दिलीप से मिलन था और वो बहुत ही डरी और सहमी हुई थी, पड़ोस की ननद ने उसे तैयार करके सेज पर बैठा दिया, क्योंकि उसकी अपनी कोई ननद नहीं थीं केवल एक देवर था, परिवार में गिने चुने चार ही सदस्य थे।

   उस जमाने की बात है तब गांवों में बिजली नहीं हुआ करती थीं, रात हो चली थी इसलिए ठंड भी बढ़ने लगी थी, दीपमाला अपने दूल्हे का इंतजार करते करते सो गई, थोड़ी देर में कोठरी का दरवाजा खुला, दरवाजे की आहट से दीपमाला की आंख खुल गई और वो उठकर बैठ गई।

  दिलीप, दीपमाला के नज़दीक आया, दीपमाला तो मारे डर के चुप्पी साधे बैठी थी क्योंकि उसने कभी भी किसी अंजान लड़के से बात ही नहीं की थी, पांचवीं के बाद स्कूल भी छूट गया था, तो लड़के से बात करने का सवाल ही नहीं उठता।

  दिलीप ने कोठरी की दीवार से टंगी लालटेन निकाली और दीपमाला के बिल्कुल नज़दीक लाकर उसका घूंघट हटाया, दीपमाला का चेहरा ऐसी ठंड में पसीने पसीने था, वो बहुत ही डरी हुई थी, लेकिन बहुत ही खूबसूरत लग रही थी उसकी खूबसूरती देखकर दिलीप की आंखें चौंधिया गई।

   दिलीप ने दीपमाला का बुझा बुझा सा चेहरा देखा तो वो समझ गया कि दीपमाला को जरूर कोई बात परेशान कर रही है, उसने दीपमाला से उसकी परेशानी का कारण पूछा और दीपमाला ने कहा कि मैं आपको जानती भी नहीं तो...

   दिलीप सब समझ गया, बोला घबराओ मत, जब तक तुम मुझे दिल से ना स्वीकार कर लो, मैं तुम्हारे नजदीक नहीं आऊंगा, ये रिश्ता पहले मन से शुरू होना चाहिए, तन के लिए तो सारी उम्र पड़ी है, जब तुम्हारा मन मुझसे मिल जाएं तभी मैं तुम्हारे नजदीक आऊंगा, लेकिन एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि तुम मुझे बहुत पसंद हो और मैं जब तुम्हें देखने आया था तभी मुझे तुमसे प्रेम हो गया था और जब तुम्हें लगे कि तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया है, तब मुझे बता देना नहीं तो मुझे एक फूल ही दे देना मैं समझ जाऊंगा और अब तुम सो जाओ, आराम करो, मैं नीचे ज़मीन पर सो जाता हूं।

  और उस रात दीपमाला को लगा कि उसका पति सच में बहुत अच्छा है, कितनी अच्छी तरह उसने दीपमाला के मन को समझ लिया और मैं हूं कि....

  और कुछ दिनों में ही दिलीप और दीपमाला में अच्छी दोस्ती हो गई, दोनों अब एक थाली में खाना खाते, साथ में हंसते बोलते एक दूसरे की पसंद नापसंद पूछते और भी बहुत सी बातें करते लेकिन दोनों ने अभी एक-दूसरे का मन छुआ था तन तो अभी भी अनछुएं थे और इस तरह से दिलीप पन्द्रह दिन दीपमाला के साथ बिताकर फिर से पढ़ाई के लिए शहर चला गया और इधर दीपमाला को अब ससुराल में अच्छा नहीं लग रहा था दिलीप के बिना और ये बात दीपमाला की सास ने भांप ली और दीपमाला के मायके संदेश भिजवा दिया कि दीपमाला कुछ दिनों के लिए मायके में रह ले, दिलीप आ जाएगा तो फिर बुलवा लेंगे और दीपमाला मायके आ गई।

  जेठ मास में दिलीप के कालेज के इम्तिहान हो गए तो वो फिर गांव आ गया और दीपमाला की सास ने दीपमाला के देवर को भेजकर उसे फिर बुलवा लिया गया, अब तो गर्मी के दिन थे तो सब आंगन में ही सब चारपाई डालकर सोते और दीपमाला कोठरी के भीतर ही सोती, अब दिलीप और दीपमाला में बातें भी कम हो पातीं, दीपमाला को अच्छा नहीं लग रहा था दिलीप से ऐसे दूर दूर रहना लेकिन वो अपने मन की बात भला किससे कहें और ऐसे ही दिलीप के शहर जाने का फिर से समय हो गया, इस बार भी दोनों एक-दूसरे से अनछुए रह गए, दीपमाला अपना मन मसोस के रह गई, उसे कितनी सारी बातें करनी थी दिलीप से लेकिन कर नहीं पाई।

   आषाढ़ मास खत्म होने वाला था कि दीपमाला की मां ने बेटी को मायके बुलवा लिया क्योंकि शादी के बाद पहला सावन तो मायके में होता है और दीपमाला मायके आ गई, बारिश होती तो दीपमाला का मन रो उठता, उसे महसूस होने लगा था कि वो दिलीप को चाहने लगी है, लेकिन संकोच और शील ने उसके मुंह पर ताला लगा रखा था, उसने बहुत चिट्ठियां लिखी दिलीप को लेकिन भेजी एक भी नहीं, उसका मन अब दिलीप को देखने के लिए तरस रहा था, सावन की बारिश उसे रूला जाती और उसका अन्तर्मन तड़प जाता लेकिन अब दीपमाला का मन ना माना और उसने एक लिफाफे में सूखा हुआ गुलाब का फूल दिलीप के पास भेज दिया और चिट्ठी में सिर्फ इतना लिखा कि मैं मायके में हूं।

   दिलीप बहुत खुश हुआ और सब समझ गया कि दीपमाला अब मुझे पसंद करने लगीं हैं और दिलीप सीधा अपने ससुराल पहुंचा, दिलीप को देखकर दीपमाला के घरवाले बहुत खुश हुए और दीपमाला तो जैसे खुशी से झूम उठी।

   रात को बारिश बहुत तेजी से हो रही थी, दिलीप अपनी कोठरी में बिस्तर पर लेटा आराम कर रहा था, तभी दीपमाला कोठरी में आई और दिलीप के पैरों के पास बैठ गई, लालटेन की हल्की रोशनी कोठरी में फैली हुई थीं और लजाई सी दीपमाला, दिलीप के सामने बैठी थी और तभी बहुत जोर से बिजली कड़की और दीपमाला डरकर दिलीप के गले लग गई, तभी दिलीप हंस पड़ा और बोला मेरी बीवी तो बहुत डरपोक है।

   और तभी दीपमाला गुस्से से दिलीप के पास से हटते हुए बोली, जाइए मैं आपसे बात नहीं करतीं।

    दिलीप बोला, दूर क्यों जा रही हो, इतने दिनों से दूर ही तो थीं और इतना सुनकर दीपमाला फिर से दिलीप के गले लग गई और उस रात दिलीप और दीपमाला एक-दूसरे के इतने नजदीक आए कि सावन की बारिश उनके तन और मन को भिगो गई, ये था दीपमाला का शादी का पहला सावन का महीना ।



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