साक्षी

साक्षी

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"सोच लो वैदेही, वन में रहना आसान नहीं होगा, तुम सुकुमारी और पथरीला मार्ग, अपार कष्ट होगें। न भोजन का पता होगा ना ही सिर पर छत होगी",गहन काली रात्री की निस्तब्धता मे राम ने सीता को फिर से समझाने का प्रयत्न किया।


"राज कुमार, कल की भोर एक नया अध्याय लिखेगी। आप राजकुमार से पुरुषोत्तम बनने की राह पर बढ़ेंगे। पितृ आज्ञा का उदाहरण बनना है आपको, अयोध्या का ही नहीं सम्पूर्ण भारत का भाग्योदय करना है। नियति ने सब निर्धारित कर रखा हैं। भूमिसुता को पथरीली राह का भय नहीं है, अपने जन्म को सार्थक करना है। मुझे आपकी अर्धांगिनी होने को सिद्ध करना है। हम सुख दुःख के साथी है, थोड़े से कष्टों से डर कर मैं इस जीवन को यूँ ही नष्ट नहीं कर सकती। आपके हर कदम पर साथ चलना है मुझे।"

"लेकिन, सच तो यहीं है की मुझे ही वनवास का आदेश मिला है तुम्हारा जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।"


"श्रेयस्कर नहीं होगा, नहीं नहीं, ये तो अत्यंत शुभ होगा। पति सेवा भूलकर मैं महल में रहूँ, ये सही नहीं होगा। मैं आपकी हर यात्रा मे साथ रहूँगी, मैं "राजकुमार राम" से "मर्यादा पुरुषोत्तम राम" बनाने वाली आपकी यात्रा की साक्षी बनना चाहती हूं, सहयात्री बनना चाहती हूं.....

भगवान श्री राम भी जगत जननी के इस अकाट्य तर्क को नहीं काट सके!!



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