हौंसला
हौंसला
"बुआ... बुआ... लीजिये मुँह मीठा कीजिये... मुझे डिजाइनिंग के अच्छे कालेज में दाखिला मिल गया", प्राची चहकती हुई बोली।
प्रतिमा ममता भरी निगाहों से प्राची को देखती रही और विचारों में डूब गई।
प्रतिमा के बचपन से यह सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित परिवार उनका पड़ोसी था जिनके आंगन की चिरैया थी प्राची। उसी के सामने जन्मी नन्ही चिरैया अब उड़ने को तैयार थी। प्रतिमा प्राची से ज्यादा उसके माँ-पापा के लिए खुश थी। वो जब भी मायके जाती मां उन लोगों का जिक्र जरूर करती... कभी कभी तो फोन पर भी बताती थी।
प्राची के होने के 2-4 साल तक सब सही था फिर अचानक वक्त ने करवट ली और इस परिवार पर परेशानियाँ टूट पड़ी। क्या मानसिक, क्या आर्थिक और क्या सामाजिक... कुछ नहीं छूटा। प्राची के दादा-दादी और मां-पापा एक कोना पकड़ते तो दूसरा कोना छूट जाता।
कहते है ना "विनाश काले विपरीत बुद्धि" प्राची के मां-पापा गलती पर गलती करते जा रहे थे। दुनियाभर पर दोषारोपण... ना किसी की सुनते ना ही कुछ समझते थे।
कुछ समय के बाद मां ने बताया कि अब उन लोगों के बुरे वक्त का ज्वार उतरना शुरू हो गया है... प्राची के मां-पापा ने अब मिल कर, डट कर परिस्थितियों का सामना करना शुरू कर दिया... प्राची को शहर के सबसे नामी विद्यालय में दाखिला मिल गया था... बेहतरी के अथक प्रयास होने लगे थे। प्राची की मां ने खुद को मेहनत में झोंक दिया, अपनी जरूरतों को समेट लिया। पुरुषों की तो जरूरतें वैसे ही सीमित होती है।
"बुरे वक्त में तो साया भी साथ छोड़ देता हैं", यह कहावत सच साबित हो रही थीं। भरे पूरे सयुंक्त परिवार ने सहायता करना तो दूर, कन्नी काटना शुरू कर दिया था। बस प्राची के दादी-दादू उनके अटूट सहारे बने रहे।
समाज की, परिवार की परवाह किये बगैर वृद्ध दंपत्ति ने अपने बच्चों का हौसला बनाये रखा। जब भी कभी उनकी हिम्मत टूटतीं वे उन्हें संभाल लेते।
आज उस मेहनत का फल सामने था...
आज दुष्यंत कुमार की ये पक्तियां सही साबित हो गयी थी...
"कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो..."