बदलता मौसम

बदलता मौसम

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लाली के कदम आगे नही बढ़ पा रहे थे....

"मेरा जीवन इसी हवेली में अन्दर बाहर करते कटा है। रसोईघर से पकवानों की सौंधी सौंधी खुश्बू, बागीचे मे बड़े बड़े शानदार कार्यक्रम और लोगो का हुजूम....यही तो यहाँ की पहचान हुआ करती थी और आज यह सन्नाटा....कितना मुश्किल समय है ठकुराइन के लिए। कितनी भव्य हवेली हुआ करती थी, हजारों लोगों का सहारा, सैकड़ों की आस, आज खण्डहर में बदलती जा रही है।" व्यथित लाली अपने आप से बोली।

ठाकुर साहब के देहांत के बाद ठकुराइन अकेली पड़ गयीं। उनके बेटे का दिल गाँव से उकता चुका था तो विदेश की राह पकड़ ली और ब्याह कर वहीं बस गया था।

ठकुराइन अपनी हवेली और अपना स्वाभिमान छोड़ कर विदेश जाने को कतई तैयार नही हुई थी। कुछ दिनों मे छोटी बिटिया आने वाली है, तो उसके आवभगत मे कोई कमी न रहे इसलिए ठकुराइन ने लाली को बुलावा भेजा था।

"रसोईघर मे कुछ पीतल के बर्तन निकाले है...बेकार पड़े हैं, कुछ काम नही आते। जरा चुपचाप से इन्हें बेच आ..और देख, सोच समझ कर सौदा करना ..." आते ही ठकुराइन ने दबे शब्दों मे लाली से कहा था।

पर लाली रसोई घर के बाहर से ही लौट आयी..

"ठकुराइन... बर्तन ही नही, इत्ती बड़ी हवेली भी कुछ काम नही आती...खण्डहर हुए जा रही है। मेरी मानो तो स्कूल खोल लो इस हवेली में...सरपंच जी जगह देख रहे है स्कूल के वास्ते....हवेली की रंगत लौट आयेगी।" 

ठकुराइन जड़ बनी सुन रही थीं, अपनी एकमात्र राजदार एवं शुभचिंतक लाली की सलाह को..

"उजड़े बागीचे सिर्फ पलाश के फूलों से नही, नन्ही नन्ही मुस्कानो से आबाद हो जाऐंगे... बच्चों के शोरगुल और शरारतों से विरानी हवेली चमन हो जायेगी। सबसे बड़ी बात, आप का अकेलापन तो दूर होगा ही, ये बर्तन भी घर पर ही रहेंगे....अरे!!स्कूल के बच्चों का खाना जो बनेगा इनमें..." लाली ने ठकुराइन की लाज रखते हुऐ कहा।

ठकुराइन की आँखें पुराने दिनों की चहलपहल और खाने की सौंधी महक को याद कर चमकने लगी..

"हाँ लाली...रख दे बर्तन अंदर और चल...ठाकुर साहब की हवेली को पुनः जीवित करते हैं..."


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