रेवती नक्षत्र की कहानी
रेवती नक्षत्र की कहानी
एक अत्यंत ही विद्वान ऋषि रितवाक थे। उनका पुत्र रेवती नक्षत्र के चौथे चरण गंडांत में पैदा हुआ। मुनि ने उसकी परवरिश करी परन्तु वह पुत्र अत्यंत ही दुष्ट था। अपने माता - पिता का भी वह बालक आदर नहीं करता था। शिक्षा में भी उसका मन नही लगता था। माता - पिता भी उससे परेशान रहते थे। एक विद्वान का पुत्र इतना कुपुत्र क्यो है ? यह सोचकर महर्षि रितवाक सदा दुखी रहते और वह एक दिन अपने पुत्र को अपने साथ लेकर महर्षि गर्ग के पास गए।
महाऋषि गर्ग को विनम्र प्रणाम कर रितवाक बोले - ''गर्गजी ! मेरा यह पुत्र अत्यंत ही दुराचारी है। मैं समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों है ? क्या मैंने कोई पाप करा है जिसके कारण मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हुआ है ? मैंने अपने गुरु की सेवा में तत्पर रहकर विधिपूर्वक वेद अध्ययन किया। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके उचित रूप से विवाह की विधि संपन्न की। स्त्री के साथ रहकर सदा ग्रहस्थ आश्रम का पालन करा फिर मुझे ऐसा कुपुत्र क्यों मिला क्या पिछले जन्मों का दंड मुझे इस जन्म में मिल रहा है वेदज्ञ महरिशी कृपया कर मेरी इस जिज्ञासा को शांत करें "।
रितवाक की बात सुनकर महर्षि गर्ग ने कहा - " वत्स ! तुम्हारे पुत्र के कुपुत्र होने में किसी का कोई दोष नहीं है। इसमें ना तो तुम्हारे पुत्र का दोष है और ना ही तुम्हारा अथवा तुम्हारी स्त्री का। तुम्हारा पुत्र रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में पैदा हुआ है। जो भी इस नक्षत्र के चौथे चरण में जन्म लेता है उसके साथ ऐसा ही होता है "। तुम भगवती शक्ति की आराधना करो , वही तुम्हारे कष्टो को हरेंगी "।
महा ऋषि गर्ग जी की बात सुनकर महा ऋषि रितवाक क्रोध में भर गए और उन्होंने रेवती को श्राप दिया कि रेवती नक्षत्र आकाश से गिर जाए। मुनि के शाप के कारण रेवती नक्षत्र एक पर्वत पर गिरा जिसका नाम रेवती के नाम पर रैवतक नाम पड़ा। तब से उस पर्वत की शोभा और भी अधिक पड़ गई । यो रेवती को शाप देने के पश्चात मुनिवार ऋषि गर्ग जी के कथा अनुसार भगवती जगदंबा की आराधना करके सुख और सौभाग्य से संपन्न हो गए।
रेवती नक्षत्र के गिरने से पर्वत पर एक अत्यंत सुंदर कन्या रेवती का जन्म हुआ। वह अत्यंत गुणों वाली थी। ऐसा लगता था मानो साक्षात देवी लक्ष्मी इस संसार में आई है। रेवती के तेज से प्रकट होने वाली कन्या पर जब महर्षि प्रमुच की दृष्टि पड़ी तब महा ऋषि प्रमुच रेवती को अपने घर ले गए और कन्या का नाम रेवती रखा। और अपनी पुत्री की भांति धर्म पूर्वक रेवती का पालन पोषण करने लगे। जब रेवती विवाह योग्य हो गई तब महर्षि प्रमुच नर अग्नि देव का घोर तप करा और उनसे वर मांगा कि मेरी पुत्री का कोई अच्छा पर हो तब अग्निदेव ने महा ऋषि को यह आश्वासन दिया कि रेवती का पति सदा धर्म में तत्पर रहने वाला , पराक्रमी सूर्य वीर प्रिय भाषा तथा युद्ध में पीछे ना हटने वाला होगा और इसके पति का नाम राजा दुर्दम होगा।
तभी राजा दुर्दम भी शिकार खेलने के बहाने ऋषि प्रमुच के पास आ गए और जब सारी बाते उन्हें पता लगी तब महाराज रेवती से विवाह के लिए प्रसन्न हो गए परन्तु रेवती ने शर्त रखी कि मेरा विवाह रेवती नक्षत्र में ही हो तब महर्षि प्रमुच ने अपनी पुत्री को समझाया तब पुत्री बोली - पिताजी ! आप अपने तपोबल से रेवती नक्षत्र को पुनः स्थापित कर दीजिए अन्यथा मैं विवाह नही करूंगी"। तब अपनी कन्या की इच्छानुसार रेवती को महाऋषि प्रमुच ने पुनः नक्षत्र मंडल में स्थापित कर दिया।
फिर दुर्दम और रेवती का विवाह हुआ व रेवती के गर्भ से पाँचवे मनु रैवत की उत्पति हुई।