रेस …
रेस …
वह हमेशा से ही तेज कदमों से चला करती थी।मैं हमेशा से ही उनको डायनैमिक पर्सनैलिटी की मालकीन कहा करता था। एक बार उन्होंने मुझे पूछ ही लिया, “क्या देखकर आप मुझे यह डायनैमिक पर्सनैलिटी के किताब से नवाज़ते है…
एकबारगी तो मैं सकपका गया, लेकिन फौरन ही संभलकर बोला कि आप तेज कदमों से चलते हैं तो एक कॉंफिडेंट और बोल्ड लुक तो दिखायी देता ही हैं लेकिन साथ में आपके फ़ास्ट एक्शंस में भी पर्सनालिटी का डायनामिज़्म दिखता हैं।”
हम दोनों एक मल्टीनेशनल कंपनी के कॉर्पोरेट ऑफिस में काम करते हैं। साथ काम करते हुए हम दोनों में एक ट्रस्ट डेवलप हो गया था। हम दोनों गप मारते थे…एक दूसरे से शेयरिंग भी होती थी। एक प्योर फ्रेंडशिप…बीइंग प्रोफेशनल इंजीनियर्स हमने कभी काम के दौरान न कोई अन ड्यू एडवांटेज लिया और ना ही कभी मेल फीमेल किया…
लेकिन मेरा बैकग्राउंड कभी इस तरह का नहीं था। किसी छोटे शहर से इंजीनियरिंग के लिए बाहर जाना…और वापस किसी कॉस्मोपॉलिटन शहर में कॉर्पोरेट की इस तरह की हाय प्रोफाइल वाली नौकरी…
अचानक से वह दो चोटी वाली लड़की एकदम बदल गयी…अटायर चेंज्ड …. बोलचाल चेंज्ड…पर्सनैलिटी चेंज्ड…अपने हार्ड वर्क और प्रोफेशनल एटीट्यूड से वह आगे बढ़ती गयी। गाँव में आना जाना तो था लेकिन छुट्टियों में भागमभाग ही होती थी। बस इधर आना और चले जाना…
लेकिन इस बार काफ़ी सालों के बाद गाँव आना हुआ। अचानक लोकल बाज़ार में स्कूल की एक क्लासमेट मिल गयी। उसने तो मुझे नहीं पहचाना बल्कि मैंने ही उसे आवाज़ दी। “आप सुनीता हैं ना? सुनीता शिंदे?” “हाँ …लेकिन आप कहते कहते वह रुक गयी और मेरा नाम लेकर मुझे भी वही सवाल किया… हम दोनों मुस्कुराने लगे। थोड़ी देर हमने बात किया और एक दूसरे का हालचाल, कहाँ रहते हो? क्या करते हो टाइप से सवाल जवाब करते हुए एक दूसरे का मोबाइल नंबर लेकर और वादा करते हुए की दोबारा लंबी बातचीत के लिए मिलते है हमने विदा ली।
घर आकर स्कूल डेज की कितनी सारी बातें मुझे याद आने लगी थी। वह दिन भी क्या दिन थे। एकदम बेफिक्री वाले दिन… दे वर द गोल्डन डेज़ ऑफ़ लाइफ़ सोचते हुए मैंने उसे फ़ोन किया और कल मिलने का टाइम फिक्स कर लिया।
हम उसके घर में मिले। शादी के बाद वाला उसका घर… मुझे फिर फिर कर उसके पुराने घर की यादें…और उन बेफ़िक्री वाले स्कूल के दिनों किसी रील की तरह ही लग रहे थे। वह बेहद गर्मजोशी से मिली। और भी हमारे स्कूल फ्रेंड्स की बातें करते वक्त उसे भी मलाल हो रहा था की किसी का भी कोई कांटेक्ट नहीं हैं…
वापसी में मैं पता नहीं कितने ख़यालों के साथ घर आयी…मेरा सब कॉन्शियस माइंड पता नहीं क्यों कंपैरिज़न कर रहा था…उसका स्टेटस…मेरा स्टेटस… वह एक छोटे शहर की हाउस वाइफ… मैं बड़े शहर के एक कॉर्पोरेट ऑफिस में काम करने वाली फाइनेंशियल इंडिपेंडेंट वुमन…उसकी वे घरेलू टाइप की बातें…उसका सादा पन और मेरा न चाहते हुए भी बीच बीच में आने वाला सोफ़स्टिकेटेड बिहेवियर…मेरी बातें वर्किंग लेडीज वाली…उसकी बातें घर गृहस्थी वाली…
न जाने क्यों मुझे वह ठहरी हुयी सी लगी… और मैं भागती हुयी…तेज क़दमों से भागती हुयी…अंधाधुंध दौड़ में भागती हुयी … रैट रेस… हाँ, वही वही कॉर्पोरेट वाली रैट रेस… बस सबको पछाड़ते हुए आगे जानेवाली रैट रेस… अपने एथिक्स और प्रिंसिपल्स की परवाह किए बग़ैर हमे भागने को मजबूर करती रैट रेस …
