प्यारी बुआ
प्यारी बुआ
बस, स्टॉप से चल चुकी थी।कितने दिनों के बाद मैं ननिहाल जा रही थी। शोध कार्य और पी एच डी के चलते तीन-चार साल तो
वैसे ही घर से निकलना नहीं हो सका था या कहूँ कि शायद ये तो केवल बहाना था उसके भी बहुत पहले से नहीं जा पाई थी। इतनी व्यस्तताओं में भी मेरा गाँव छोटी -मोटी फुरसतों में कहीं न कहीं से आवाज लगा देता।
नानाजी, नानीजी, रेवती मासी के अतिरिक्त एक और शख्सियत थी जो मुझे वहाँ खींचती थी और वो थीं प्यारी बुआ।
दरअसल वे माँ की चचेरी बहन थीं सो इस लिहाज़ से मौसी थीं पर मेरे बड़े होकर रिश्ते समझने से पहले ही वे अपने तीन चार नन्हे भतीजे-भतीजियों से घिर गईं और वे सब बुआ-बुआ कहकर उनके आगे-पीछे होते रहते छुट्टियों में एक मैं भी उनके काफिले में जुड़ जाती बिल्कुल उनकी नकल करते हुए बुआ-बुआ कहती।
कई बार समझाने पर भी बाज न आई ।जो मुँह पर चढ़ा सो चढ़ा। बुआ बोला सो बोला। नानाजी थे पक्के शिव भक्त सो उन्होनें बुआ का नाम बड़े प्यार से शिवप्यारी रखा था पर वह प्यारी हो कर रह गया और मेरे लिए प्यारी बुआ। उनका स्वरूप तो जैसे निगाहों में हमेशा बसा रहता। निकलता सा गेहुआ रंग,त्वचा पर प्राकृतिक सौंदर्य की सलोनी सी चमक,बोलती-सी काली कजरारी गहरी आँखे , कमर तक गुँथी हुई काले चमकीले बालों की चोटी और ऊँची-पूरी छरहरी काया।
बस अपनी रफ्तार से चल रही थी। और उससे भी ज्यादा रफ्तार से यादें किसी फिल्म की रील की तरह चल रहीः थी।नानी के इस गांव में राजे रजवाड़ों के प्रतीक अभी भी विद्यमान थे। यहाँ हमारे परिवारों का पूरा एक मोहल्ला था। नानाजी जमीदारों के खानदान के थे। राजे रजवाड़ी तो कब से मिट गए परंतु अभी भी दबदबा और शान बाकी थी।
हमारे घर के सामने ही प्यारी बुआ का परिवार था। उनके पिताजी को गांव में सभी राय साहब बुलाते थे।प्यारी बुआ बचपन से ही कुछ अलग थीं। उनके बात करने का तरीका, रहने का सलीका सदा मेरा मन मोह लेता था। यही कारण था कि अपने घर के सामने से जो उनकी दालान दिखाई देती थी उस पर मैं कई बार एकटक देखती रहती थी शायद उनकी एक झलक दिख जाए। जाने को तो मैं कभी भी उनके पास जा सकती थी और जब भी मौका मिलता जाती भी थी पर वह भी बहुत व्यस्त रहती थी। गाँव के बिल्कुल अंतिम सिरे पर राय साहब ने अपनी पाँच बीघा ज़मीन विद्यालय बनवाया था वे अपना अधिकतर समय वहीं बिताती थी। कभी-कभार आते-जाते यदि मुझ पर उनकी नजर पड़ गई तो मुस्कुरा देती और मेरी खुशी का पारावार न रहता।
"जिस-जिस को जो भी खाना-पीना हो दस मिनट में खा पी लो... इसके बाद बस राजपुर में ही रुकेगी।" कंडक्टर की इस आवाज़ ने विचारों को रोक दिया।
इस स्टाप के बाद करीब तीन घंटे की यात्रा में गांव, नदी, नानी का स्नेह और प्यारी बुआ की गहरी गहरी आंखें... मन,मस्तिष्क पर छाई रही।
दिलावर मुझे बस पर लेने आ गया था यह खेत की चौकीदार मुझे देखकर ही उसकी आंखों में आंसू आ गए ,"इस बार कितनी देर लगा दी लल्ली आने में?"
बस यही प्रेम तो इस गांव की तरफ बार-बार खींचता है मुझे।
नानी नानू रेवती मौसी और तीन चार नन्हे
बच्चों ने मुझे आंगन में घेर लिया। घर में तो जैसे त्यौहार हो गया। समय तो यहाँ जैसे पंख लगा कर उड़ जाता है। आते-जाते कितनी ही बार मैंने प्यारी बुआ को देखना चाहा। सामने उनके हवेली नुमा मकान में जहाँ शांति दिखाई देती थी वहाँ कुछ लोगों की आवाजाही दिखाई दे रही है ।लेकिन वो मुझे दिखाई नहीं दीं।
सुबह-सुबह जब मैं पीछे के बाड़े में सब्जियों के मंडप के नीचे बैठी थी वहीं रेवती मौसी तेल लेकर मेरे सर में लगाने लगी।
" मौसी प्यारी बुआ दिखी नहीं।"
" हां भैया हम तुम्हारी रास्ता देख देख कर मरे जा रहे थे पर तुम्हें तो लगन लगी है प्यारी बुआ की।" रेवती मौसी कुछ कुढ़ कर बोली
"अरे नहीं मौसी ऐसी बात नहीं है...।" मैंने उनकी जलन को भाँप लिया।
"राय साहब के यहां राजरानी की तरह रह रही है और क्या बताएं उनके बारे में... बड़े लोग हैं कौन पूछ सकता है उनसे कि क्या कर रही हैं कहां जा रही हैं ।" रेवती मौसी के उस प्यार भरे गुस्से को मैं समझ रही थी।
"लल्ली तू इधर आ जा आज मैं तुझे बताती हूं...।" शायद बरसो से नानी के इसी स्वर का इंतजार कर रही थी।
"पचहत्तर बरस की नानी की आंखों में परिवार की हर घटना की गवाही कैद थी। आज पहली बार प्यारी बुआ से संबंधित बात करने की उत्सुकता देखी।
"लल्ली तू हमेशा उसके बारे में पूछती है...आज पहली बार बोल रही हूं बेटा...अपने पिता का पूरा कारोबार संभालती है वो... उसका रहना, उठना, बैठना, लोगों से व्यवहार करना सब इतना सलीके का है कि जितने भी लोग उससे मिलते हैं फिर उसकी ही बात करते हैं। तूने कई बार पूछा है कि बुआ कितनी भली लगतीं हैं उनको तो कोई राजकुमार भी ब्याह कर खुद पर इतरा सकता है फिर...
तो सुन लल्ली... कुए वाले मुंशी जी को जानते हैं न उनका बेटा देव जब बाहर से पढ़ कर आया था... ऐसा लगता था गांव में कोई राजकुमार आ गया है...बहुत ही प्यारा बच्चा उतना ही संस्कारी। पिता की इच्छा थी कि यही गांव की इतनी बड़ी खेती संभाल ले। पिता जितना खूंखार बेटा उतना ही नरम... आखिर उसनें यहीं
की बागडोर संभाल ली , क्योंकि पिता की बात कभी उसने टाली नहीं।
प्यारी तब विद्यालय को ठीक कर रही थी।
बस इसी दौरान कहीं दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। सच बताऊं बेटा...ऐसा लगता था मानों देवताओं ने जोड़ी बना दी हो।
अपनी शिवप्यारी बच्चों सी निश्छल है बचपन में ही मां को खो बैठी है इसलिए पिता कुछ ज्यादा ही ध्यान देते। जब उन्हे इस बात की भनक पड़ी तो उन्होंने किसी के कहने सुनने की परवाह नहीं की बेटी पर इतना यकीन था कि बेटी जो करेगी अच्छा ही करेंगी। और वह भी हर काम दिल से करती इसमें भी गहराई से दिल लगा बैठी। मुंशी ने यहाँ पर भी अपनी क्रूरता का परिचय दिया। बेटे को बिना बताए पुजारी की भांजी से देव की शादी तय कर आए। बिना मां बाप की बेटी मामा संग रहती थी। देव पिता का विरोध नहीं करना चाहता था। और कोई कुछ समझ पाता इसके पहले तो देव के लगन लग गए।"
" हे भगवान...प्यारी बुआ... ने कैसे संभाला होगा खुद को।" मेरा मन उनके लिए भीग गया था। उनकी गहरी काली आंखें मेरी निगाहों में घूम गई।उनकी पलकें जब तब लगता कोई दर्द छुपाए हैं ...शायद यही हो।
"हाँ बेटा ... मैं खुद उसकी आँखों को देखने का ताब न ला सकी। सोने जैसी चिरैया है... इतने सच्चे दिल से वह जुड़ चुकी थी कि फिर खुद को अलग करने की जंग अकेली लड़ती रही। वैसे ही वह कम बोलती थी इसके बाद तो...लगता है बरसों की खामोशियाँ ओढ़ ली है उसने । दिन भर काम में झोंक दिया कभी किसी से कोई शिकायत नहीं।विवाह के लिए उस दिन के बाद एक गाँव में रहते हुए भी देव ने कभी उसे देखा न उसने देव को। कहते हैं न समय अपनी चाल से चलता है... मुंशीजी की संपत्ति दो-तीन गांव में है उस दिन उन्होनें जमीन जायदाद के किसी विवाद में देव को मामला समझने भेजा और वहां वह जमीन के विवाद में से जीवित बचकर नहीं आ सका। पूरे गाँव में सन्नाटा छा गया था।
प्यारी बुआ ने फिर खामोशी ही ओढ़ ली।"
" मैंने कल भी उनसे मिलने की कोशिश थी, पर उनके घर में मुझे कुछ भीड़ दिखाई दे रही है आजकल।" मै दम साधकर सुन रही थी।जाने क्यों उनके लिए मन भर आया था।
"हाँ बेटा... यह जो भीड़ तो देख रही है उनके घर... सुनेगी तो हैरान हो जाएगी। देव के पिता नहीं रहे...उसकी पत्नी के माता पिता पहले से ही नहीं थे सो वह दोनों बच्चो और उसकी पत्नी को अपने घर लिवा लाई है, सुना है बच्चों का नाम भी अपने विद्यालय में लिखवा दिया है।"
"हे भगवान...।" मेरे मुँह से इतना ही निकला।
नानी इतना कहकर बिना कुछ कहे पल्लू से आंखें पोंछती हुई अंदर की ओर चली गई।
लौटने से पहले बुआ से मिलने जाना ही था। मुझे देखकर बच्चों सी चहक गईं।
"अरे लल्ली...कितने दिनों बाद आई रे!"
उनके निश्छल चेहरे पर बच्चों-सी मुस्कुराहट थी।
कुछ देर उधर इधर कई बातो के बाद जब चलने को थी तो सारी हिम्मत इकट्ठी कर पूछ बैठी,
"बुआ ...जिसने इतना बड़ा धोखा दिया ... उसके साथ ऐसा क्यों?" मैं पूछने के लिए अधीर थी सो खुद को लाख रोकने के बाद भी अपने आप को यह पूछते पाया।
थोड़ी देर हम दोनों के बीच कुछ पलों तक सन्नाटा छाया रहा।ज़िंदगी में पहली बार बुआ से कोई प्रश्न पूछा था।
"लल्ली ...कभी कोई वादा ही नहीं था...फिर धोखा कैसे...।"
"बुआ...।" बोलते हुए मेरे स्वर काँप रहे थे
"मैंने उन्हें अपना माना था लल्ली...तो।" वे बोलीं।
"तो क्या बुआ...।" मुझे लगा मेरी आवाज कुछ भारी हो गई थी।
"तो फिर उनकी ज़म्मेदारियाँ भी तो अपनी हुई न...।"
उनकी गहरी-गहरी काली आँखें झिलमिला रही थीं।
"और आना लल्ली...।"
मैंने रुखसत होते हुए सुना...पर मुड़कर देखने की हिम्मत न कर सकी।
