मेहंदी
मेहंदी
"सच ! कितनी सुंदर मेहंदी बनाती हो तुम।" सुहानी ने अपनी सजी हुई हथेली को देखते हुए कहा।
मेहंदी बनाने वाली वह युवती हल्के से मुस्कुराई और उसने सुहानी की दूसरी हथेली थाम ली।
उसके कुशल हाथ फिर हरी-हरी मेहंदी सजाने लगे।
"जितना तुम्हारे बारे में सुना था...सच में तुम उतनी ही सुंदर मेहंदी लगाती हो.. भई तुम्हारा तो अपॉइंटमेंट लेना पड़ा मुझे...।"
" हाँ दीदी... त्योहार के समय कुछ ज्यादा ही काम हो जाता है... किसको हाँ कहूँ किसको मना करूँ ....इसलिए पहले जो बुला लेते हैं वहाँ ही जा पाती हूँ फिर मना करना पड़ता है।" वह कुछ संकोच से बोली।
" बचपन से ही बनाती हो?"
"नहीं .... कम उम्र में शादी हो गई थी...इस बड़े शहर में पति के साथ आई...वो मजदूरी करते थे।"
"तो तुझे भी मजदूरी करना पड़ी होगी?"
"नहीं... उन्होंने मुझसे मजदूरी कभी नहीं करवाई... मुझे मेहंदी बनाने का शौक था... उन्होनें ही मेरा नाम मेहंदी सीखने की क्लास में लिखवाया। खुद मेहनत कर मेरी फीस भरी... उसके बाद तो जगह- जगह से मुझे ईनाम मिले...कई सर्टिफिकेट भी मिले।"
"अरे वाह...!"
"तुम्हारी तो मेहंदी की क्लास भी बहुत चलती है।"
" हाँ उनके जाने के बाद... मैंने क्लास खोल ली।"
" उनके जाने के बाद मतलब...?"
" हाँ दीदी...दो साल पहले वो नहीं रहे।" उसकी आँखों में दर्द छलक आया था।
"ओ हो! ये तो बहुत बुरा हुआ...
हे भगवान! अब मैं समझी... कि त्योहार के दिन तुम्हारी हथेली में मेहंदी क्यों नहीं...।"
"हथेली पर नहीं दिख रहा...पर दीदी मेरे पास तो उनके बाद भी उनकी ही मेहंदी का रंग है।"
