प्यार बट्टे आधे अधूरे
प्यार बट्टे आधे अधूरे
"देख के नहीं चल सकते क्या ?अंधे हो ?"
अपने साथ ज़मीं पे अपनी बिखरी हुई चीज़ों को सम्भालते हुए वह बरस पड़ी।
"जी, माफी चाहता हूँ पर मैं ..." उसके शब्द तो सामने से आती हुई तेज़ रफतार से, गले में ही दब गए।
"हाथ भी नहीं बँटा सकते ?दया नाम की चीज़ ही नहीं."
अब पारा थोड़ा उतरा, पर झुंझलाहट तो वैसी ही थी।
"लड़की देखी नहीं कि इनको तो बस, बहाना चाहिए !..कौन मुँह लगे इन से ! संगीत क्लासके लिये देरी न होती, तो मज़ा चखाती..समझते क्या हैं ये लोग, क्या हम कमज़ोर हैं।"
"अरे पर मेरी बात तो..."
"नहीं आप जो समझ रही हैं ऐसा..."
ये सब वह बोल ही नहीं पाया क्योंकि वह उसकी गुस्सैल ,पर सितार के तार सप्तक के निषाद जैसी आवाज़ से सम्मोहित हो चुका था।
काफी देर तक वहीं खड़ा रह गया। फिर तंद्रा टूटी- "संगीत क्लास ? ऐसा ही कुछ बोली थी वह..अच्छा तो वह भी ? तब तो पता लगा ही लूंगा, ये सितार की झँकार है कौन ?.."
और संगीत विद्यालय की और चल दिया।
पियानो लेसन देते हुए उसके कान और ध्यान बगल वाले कमरे से गूंज रही आवाज़ पे ज्यादा थे।
"वही है..वही आवाज़। गाते हुए तो ये आवाज़ और भी चुम्बकीय लगती है। आवाज़ शहद है तो वो भी शायद.." उसने अपने गॉगल्स ठीक किये। बाल सँवारे।
बाजूवाली क्लास खत्म हो गयी। वह लपक के बाहर आ गया। वो खनक किसी के साथ बतिया रही थी। पास जा के बोल पड़ा- "हेलो ! आप के साथ अनजाने में टकराने के लिए माफ़ी चाहता हूँ।"
"अरे ? आप यहाँ तक पहुंच गए ?"
"क्या मीनाक्षी ,तुम भी ! ये तो यहाँ के नए पियानो टीचर है, बहुत अच्छे हैं...अभिजीत सर !" सहेली ने उसे हल्के से डाँट दिया।
"हम्म, तो मीनाक्षी नाम है उसका, मीनाक्षी.. सुंदर आँखों वाली।" अब तो मन ही मन वह और खींचता चला गया।
" न..नहीं ! मेरा वो मतलब नहीं था..आई मीन, सॉरी ... म..मुझे पता नहीं था कि, आप हो ..सॉरी सर।"
सितार अब थोड़ी थोड़ी सूर में आने लगी !
और फिर क्या था ! रोज़ ये पियानो, सितार की क्लास खत्म होने का इंतज़ार करता और बातों की छुटपुट सरगम बनती रहती।
फ़ोन पे पहले इधर उधर की, फिर धीरे-धीरे सिर्फ अपने दिल की बातें कहने और सुनने का सिलसिला शुरू हो गया।
"मुझे झरनों की आवाज़, बादलोंकी गर्जन बहुत पसंद है।"
"और मुजे सिर्फ तुम्हारी आवाज़..." वो कहता और ये शरमा जाती।
"शादी क्यों नहीं की अब तक ?" उसने पूछा।
"मुझे ऐसी लड़की की तलाश है, जो मुझे अपनी नज़र से दुनिया दिखाए। मैं उसकी आँखों से दुनिया देखूँ ताकि मैं फिर से किसी से टकरा न जाऊँ।"
"मज़ाक अच्छी कर लेते हो।" फ़ोन के दूसरे छौर पर झरना खिल-खिल कर के हँस पड़ा। अभिजीत कुछ कह पाये उससे पहले ही सामने से आवाज़ आयी।
"मुझे भी ऐसा ही कोई चाहिए जो मेरा हाथ थाम के चले ताकि मैं भी फिर कभी लड़खडा़ के गिर न जाऊँ।"
एक चुप्पी सी छा गयी दोनों तरफ से। दोनों को मानो अंदेशा होने लगा था कि उनके क़दम खुदबखुद एक नए रास्ते पर मुड़ रहे हैं, जहाँ से वे पहले कभी नहीं गुज़रे थे। ये जो पहले पहल के एहसास थे, दोनों की समझ से कुछ-कुछ परे थे, तो कुछ-कुछ पकड़ में आ रहे थे।
अभी और थोड़ा खुलना और थोडा बताना और जानना बाकी था। बस, पहल कौन करे उसी का इंतज़ार था।
और बेबसी ने दिल की बात ज़ुबाँ पे लाने का इल्ज़ाम ले ही लिया।
आख़िरकार पहली बार कॉफी पे मिलना तय हुआ। वक़्त से पहले वह केफ़े पे अपनी जगह बनाने जा पहुँची।आज धड़कनें कुछ ज़्यादा ही तेज़ थी। लहू सारा, चेहरे पे धंस रहा था। आसपास के लोगों का और वेस्टर्न सोफ्ट म्युज़िक का हल्का सा शोर भी उसे सोच में डूबने से नहीं बचा पाया।
"तेरी खुशबू का पता करती है, मुझ पे एहसान हवा करती है.." लंबी साँस ले कर जब कोई धीरे से बोला तब उसे ख़याल आया कि अभिजीत आ गया है।
चौंक कर वह बोली- "कब आये ? पता ही नहीं चला।"
"क्यों ? सामने ही तो बैठा हूँ दस मिनट से।
"वो कुछ उलझ सा गया पर हँसके बोला.."बस, तुम्हारी खुशबू के सहारे चला आया।"
" कमाल है..! "मीनाक्षी कुछ सोच में पड़ गई पर उसे झटक कर धीरे से बोली- "अच्छा, मज़ाक छोड़ो। मैंने ऑलरेडी कॉफ़ी आर्डर की है। तब तक ..हम, ..कुछ कहने वाले थे।"
बिना रूके अभिजीत ने कह डाला, मानों इस क्षण की प्रतीक्षा कब से हो- "तुम्हारी आवाज़ से मुझे प्यार हो गया है। पहली दफ़ा जब टकराये थे तभी से और फिर बस होता ही गया...तुम से। आवाज़ इतनी खूबसूरत है तो तुम भी. .. ! देखो,मुझे ठीक से तारीफ़ करनी नहीं आती। खुद ही समझ जाओ।"
वह मोम बनके पिघलती गई।
"मीनाक्षी। इस नाम से भी मुझे महोब्बत है।"
"मुझे भी..अभिजीत ! "उसने भी दबे से होंठ खोले।"..पता नहीं कब से। पहली बार..ये सब महसूस कर रही हूँ, तुम्हारी बदौलत।"
वह खुशी से छलक उठा- "यकीन नहीं होता, मुझ जैसे आदमी को तुम पसंद करती हो।"
"मुझे भी यकीन नहीं होता कि तुम मुझे जानते हुए भी पसंद करते हो।" वह भी भीने स्वर में खिल उठी।
टेबल पर आ चुकी कॉफी की सुगंध और अभी-अभी हुए इज़हार~इकरार से दोनों तर हो गए।
"मीनाक्षी, मेरा सौभाग्य है कि तुम मुझे दुनिया दिखाओगी अब।"
सहसा एक चुप्पी... जैसे बात को पकड़ने की कोशिश चल रही हो।
"और तुम भी तो मेरा हाथ थाम के चलोगे ना,अभिजीत ? ताकि मैं फिर से गिर न जाऊँ।"
फिर एक चुप्पी..जैसे इस बात का कयास निकालने की कोशिश चल रही हो।
पर तभी, कॉफी के कप रखते वक्त हाथों का यूँ ही टकराना और ऊँगलियों का छूना ऐसा लगा जैसे उस छुअन में सारी बातें, सारी उलझनें हवा बनकर उड़ गईं हो और दोनों बह चले हों।
केफ़े में लोगोंं का शोर और म्युज़िक वोल्युम कम हो गया तब जा के ख़याल आया काफ़ी समय हो चूका था।
हाथ हटाकर धीरे से मीनाक्षी बोली.."अब चलें ?"
जैसे ही वे उठ कर जाने लगे, तभी दोनों के कानों ने एक साथ परिचित सी आवाज़ सुनी ..वही स्टिक की ठकठक, जिस आवाज़ के सहारे उनकी ज़िन्दगी चलती थी, जो आवाज़, होश सँभाला था,तब से उनकी आँखें बन चुकी थी !
"ओह्ह, तो क्या वह भी मेरी तरह ?"..दोनों यकायक एक सन्नाटा महसूस करने लगे, जिस में सब कुछ साफ़ साफ़ समझ में आने लगा था।
कैसे पता न चला आज तलक ?
"अपनी आँखों से दुनिया दिखाए ऐसी लड़की..."
"...हाथ थाम के चले ऐसा कोई..."
"...तेरी खुशबू का पता करती है..खुश्बू के सहारे चला आया..." .
"..क्यों ? सामने ही तो बैठा हूँ..."
"..हम कमज़ोर है क्या ?"..."अंधे हो क्या ?...दिखाई नहीं देता..?"
.."मेरा सौभाग्य है मुझ जैसे को तुमने पसंद किया..."
"...मुझे जानते हुए भी पसंद करते हो..."
अब ज़हन बार बार हर एक वाक़या दोहराने लगा।
केफ़े से बाहर निकलने तक की ख़ामोशी सब बयाँ कर चुकी थी। दोनों को एक दूजे की स्टिक की ठकठक आवाज़, अब उल्टी दिशा में, एकदूजे से धीरे-धीरे दूर जाती सुनाई देने लगी थी।
न वो उसकी आँखें बन सकती थी, न वो उसका हाथ थामे लड़खड़ाने से बचा सकता था....।