समर्पित
समर्पित
आज वेलेन्टाइन डे के उपलक्ष में युवा-श्रोताओं के लिए खास वार्तालाप रखा गया है।
वार्तालापकार ने भरे हॉल में अपनी बात का कुछ यूँ प्रारंभ किया...
"एक वो ज़माना भी हुआ करता था, जब इश्क आदत नहीं, इबादत हुआ करता था। ब्रेकअप्स तो तब भी होते रहते थे, ज़िन्दगियाँ फिर भी चलती रहती थीं, पर मूव ऑन करने में पूरी पूरी ज़िंदगी निकल जाती थी। ज़माना कोई भी रहा हो, ये इश्क कभी जुनूँ, कभी ज़ज़्बा, कभी दिल्लगी, कभी दर्द, कभी नासूर ,कभी नज़ाकत, कभी गुनाह, कभी सज़ा, कभी ख़्वाब, कभी ताबीर, कई रूप धर के अपने जलवे दिखाता रहता है। बहुत कम होते हैं, जो इस जलवे के ज़रिए, ख़ुदा का नूर देख लेते या उसे पा लेते हैं।
शोमा शायद उन्हीं में से थी। उसके तो नाम से ही चाँद की किरणें झलक रहीं थीं। उजला नाम, उजला तन और चाँद से भी बढ़कर बे दाग़ ! मासूमियत से निखरा हुआ चेहरा, सहज स्वभाव और मीठा लहजा.. कुल मिला के शोमा, यानि पारिजात के फूल, चुलबुली तितली, एक ऐसी हकीक़त, जिसका सपना हर कोई संजोता था।
मंदार भी बच नहीं पाया उसकी मोहिनी से,जब पहली बार यूनिवर्सिटी कैम्पस में उसे देखा था ! मंदार, एक आकर्षक व्यक्तित्व, बोलती हुई आँखें, हँसने हँसाने पर मजबूर कर दे ऐसा ज़िन्दा दिल स्वभाव। कोई क्यों कर उस पर फ़िदा ना हो ?
प्रेम देवता के लिए खेला रचाने के वास्ते शोमा और मंदार आदर्श जोड़ी थे। तीर चला दिया, और दोनों इस मीठे से नश्तर से जख़्मी हो गए।
फिर तो वही होता चला गया जो हर प्रेम कहानियों में होता है। मिलना, मिलते रहना, लाइब्रेरी में, लेबोरेटरी में, कैम्पस के बागीचे में, केफे में, शहर के बाहर लॉन्ग ड्राइव पे, बारिशों की धुआंधार में, सिनेमा हॉल के अंधेरों में ..।
मंदार जान छिडकता था उस पर। दुनिया से बगावत की बातें करता था। शोमा अपने आप पर ग़ुरुर करने लगी। सतरंगी सुखों का समय अपने चरम पर था। दोनों के परिवार एक ही समाज के थे, तो दोनों के संबंधों को स्वीकृति मिलने पे भी कोई कठिनाई नहीं थी।
कहानीकार ने एक नज़र श्रोताओं पर डाली। सबके चेहरे पर साफ अनुमान था, इस परीकथा के अंत के बारे में।
"कहानी यहां पूरी हो जानी चाहिए, न?" श्रोताओं की ओर सवाल फेंका। चेहरों पर जवाब साफ था;' हाँ !और आगे हो भी क्या सकता है ?बड़ी घिसी पिटी आम बात है ।'
उनके मन को भांपते हुए दौर जारी रखा :"कहानी यहीं से शुरु होती है।
प्यार का ख़ुमार बे शुमार था, तभी एक दिन अचानक शोमा को फोन आता है : "हमारा मिलन असंभव है। माँ ने ज्योतिषी से पूछा, अगर हमारा मेल हुआ तो मेरी मृत्यु हो सकती है, ऐसी हमारी ग्रह दशाएँ हैं। मैं तो ये सब बातों को नहीं मानता, पर माँ है कि, मेरी बिल्कुल नहीं मानती। तुम्हारे साथ तो नहीं जी सकूँगा, तुम्हारे बिना भी कैसे जी पाऊंगा !? भूल सको तो ठीक, वरना, मीठी सी याद बनकर ज़रूर एक दूजे में रहेंगे । अब हम नहीं मिलेंगे।अपना ख्याल रखना ।"
इतना पक्का रिश्ता, एक बिन आधार भूत मुद्दे पर, कच्चे धागे की तरह, एक फोनकॉल से, टूट सकता है क्या? तोड़ा जा सकता है क्या ?..आज तक खुद को यह सवाल कर रही है !
इस बात को बीस साल हो गए हैं। शोमा आज चालीस के आसपास है। बाहर से वैसी ही सहज, मिलनसार, अच्छी ख़ासी नौकरी, अपना घर। भीतर से टूटी हुई ,तन्हा, खाली, अभी भी, बिखरे हुए मल्बे को समेटने की कोशिश में !
उड़ती उड़ती खबर मिली थी कि, मंदार ने उसी साल विवाह कर लिया था। दो बच्चे भी हैं, खुश है। पीछे मुड़कर देखने की फ़ुरसत या ज़रूरत नहीं है उसे ।
शोमा आज भी धूली हुई किरन है। उसे जीवन साथी बनाने के लिए कइयों की मंशा आज भी है।पर मसला ये है कि, शोमा अब अलग ही मुकाम पे है। मुहब्बत ने तोहफ़े में जो तनहाइयां, जो दर्द दिए हैं, उसे निभाए जा रही है। उसका मानना है कि, शादी का तो पता नहीं, पर इश्क सिर्फ एक बार होता है, जो हो चुका। ये अलग बात, के साथी गलत निकला,पर अब तो उसका भी मलाल नहीं।
उस सफ़र से चलते, मंज़िल ना सही, पर खुदाई नूर को तो पा लिया ! शोमा के लिए वही नूर, सारी ज़िंदगी के लिए काफ़ी है।
क्षण भर ठहर के,
".....आज के ज़माने में इसे नादानी, दिवानगी समझी जाती होगी, पर मुझे फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब मैं वो जोगन हूँ, जो उस रिश्ते को नहीं, उस शख्स को भी नहीं, पर स्वयं इश्क को समर्पित हो चुकी हूँ । जी हाँ , वह शोमा मैं हूँ।"
तालियों का सम्मान देते हुए, युवा-श्रोतागण अचंभित और आर्द्र है, कि क्या इतना समर्पित हो कर भी कोई रह सकता है? रहना चाहिए?!?