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पंछी

पंछी

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कुछ बीस दिन हुए होंगे हमें हमारे नए फ्लैट में शिफ्ट हुए। मुम्बई जैसे भीड़ और शोर से भरे शहर में हमें बड़ी बाल्कनी वाला फ्लैट मिला... पश्चिम में, सीधे नेशनल पार्क के जंगल की ओर खुलनेवाला।

पौ फटते ही जंगली पेड़ों की, ओस भीगी मिट्टी की एक विशेष सुगंध घर में धँस आती है और ढेर सारे पंछियोंं के स्वर एकजूट होके हमें जगाते हैं। सुबह इन हरियाली को आंख भर देख, बाल्कनी में शेखर के साथ कुछ देर बैठना, मेरा नित्यक्रम हो गया है अब।

मेरे इस हवा महल में दिन चढ़ते ही तोते, चिड़िया, कोयल और जंगल के कई पंछियों का कलरव, कल शोर बनके दिनभर मनमर्ज़ी करता रहता है।

बाल्कनी के सामने झाड़ी में छिपी एक बस्ती है। दिनभर तो पंछियोंं का अविरत शोर चलता रहता पर दोपहर ढलते ही बस्ती में से न जाने कितने बच्चे सामने वाली कच्ची सड़क पे आ धमकते और चिल्लमचिल्ली से सर दुखा देते हैं। उनका खेलना कम और उधम मचाना ज़्यादा रहता है। देर रात तक इनकी आवाज़ों को झेलते-झेलते शुरू में तो झुंझलाहट सी भी होने लगती थी, पर अब कानोंं को आदत हो गई है।

पर, दो चार दिनों से कुछ अलग सा और खाली क्योंं लग रहा है? सुबह तो वैसी ही जगती है। पंखवाले नन्हे मेहमानों की चहचहाहट कानों को वैसे ही व्यस्त रखती है... बाल्कनी में बंदर भी कभी-कभी सहपरिवार सलामी देने आ जाते हैंं। फिर भी,.. कुछ है... जो... नहीं है।
...क्या है, क्यों है, पकड़ में नही आता! शाम को सन्नाटा और उदासी क्यों छा जाते हैंं?
अरे हाँ, याद आया! जून आ गया है ना!
तभी वह घमासान शैतानी करती सड़क चुप हो गयी है, और वो गलाफाड़ बतियाते, नंगे पैर भागदौड़ करनेवाले सारे पंछी अपने पिंजरे में चले गए, सड़क और कानों को सूनापन दे के...
स्कूल जो शुरू हो गया होगा!
हाँ... इन सुबहवाले पंछियो के मज़े हैं, जिनके रूटीन में कोई फ़र्क नही हैं।
इन्हें कहाँ जून महिना लागू होता है... है ना?


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