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Diwa Shanker Saraswat

Classics

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Diwa Shanker Saraswat

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पुनर्मिलन भाग १५

पुनर्मिलन भाग १५

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पुनर्मिलन भाग १५

 शाम का वक्त, जब गायें वनों से चरकर वापस आती हैं, उनके खुरों से उठी धूल आसमान तक उठती है। माना जाता है कि गोधूलि में नहाया व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसे ही एक काल में मथुरा से चला एक रथी नंदगांव की सीमा में प्रवेश कर रहा था। गोधूलि बेला में आगे का पथ कम ही दिख रहा था। लाखों गायों का समुदाय अपने रक्षकों के साथ उसी मार्ग से वापस आ रहा था। श्याम वर्ण पथिक को देख गायें हिनहिनाती हुई उसी रथ की तरफ बढ लीं मानों कोई बहुप्रतीक्षित दूर से दिख गया हो। गायों को सम्हालते रक्षक भी दूर से देख अति प्रसन्नता में उसी रथी की तरफ भागने से लगे। पर निकट पहुंच सभी ठिठक गये। दूर से कुछ धोखा हुआ था। श्याम वर्ण के बाद भी रथी उनका सखा और गायों का पुरा रक्षक श्याम न था। आशा एक बार निराशा में बदली तो सभी की आंखों से अश्रु निकल उनके गालों को गीला करने लगे।

 इतनी भीड़ से निकलने का मार्ग रथी को नहीं मिल रहा था। रथ रुक गया। फिर उसे पथ का भी सही ज्ञान न था। रक्षकों से आगे का पथ पूछना आवश्यक था।

 " भाइयों। नंदगांव का पथ किस तरफ है। क्या आप मुझे बता सकते हैं।"

 "हाॅ क्यों नहीं। हम सभी भी तो नंदगांव के ही वासी हैं। ये सारी गायें जिनकी संख्या नौ लाख से अधिक ही है, हमारे गोप समुदाय की हैं। हमारे मुखिया नंदराज बहुत दयालु हैं। सारे गोप उनका बहुत आदर करते हैं। आप हमारे गांव के अतिथि हैं। महोदय। क्या हम जान सकते हैं कि आप किस गोप से मिलने आये हैं। "

" भाइयों। मैं वसुदेव जी के भाई देवभाग का पुत्र उद्धव हूँ। मेरे चचेरे भाई जो कुछ ही दिनों में मेरे अभिन्न मित्र बन गये हैं, उन श्री कृष्ण का बचपन आप लोगों के ही सानिध्य में बीता है। सचमुच वह काल ही ऎसा था। उस आपत्ति के समय आपने हमारे भाइयों की जिस तरह रक्षा की, चाची रोहिणी को जिस तरह आश्रय दिया, उनका प्रतिउत्तर किसी भी तरह नहीं दिया जा सकता है। मुझे श्री कृष्ण ने ही आप सभी के हालचाल जानने के लिये भेजा है। "

 गोपों के आंखों से निकलते आंसुओं का प्रवाह आशा के पुनः उदय के साथ और बढ गया। इतने बड़े देश के राजकुमार होकर भी श्री कृष्ण हमें याद करते हैं। हमारी कुशल जानने के लिये उन्होंने अपने चचेरे भाई को भेजा है। फिर एक दिन वे जरूर ही इस धरती पर वापस आयेंगे।

 रक्षकों में युवा उत्साह के साथ गांव की तरफ भाग लिये। नंदबाबा और यशोदा रानी को सूचना देनी थी। आखिर श्री कृष्ण के भाई आये हैं। कुछ प्रोढ गोप उद्धव के साथ मार्ग दिखाते चलने लगे। गौ समूह भी अनुराग के साथ आगे आगे चलने लगा जैसे कि उनके पीछे खुद श्याम सुंदर आ रहे हों। अतिथि खुद श्री कृष्ण के कोई खास हैं, मूक गायें भी समझ गयीं। फिर उसी तरह से अनुराग प्रदर्शित करने लगीं जिस तरह श्री कृष्ण से स्नेह करतीं थीं। उद्धव की कुशलता में श्री कृष्ण की कुशलता परिलक्षित करने लगीं।

 वैसे गांव बहुत ज्यादा दूर न था। फिर भी वहां तक पहुंचने में देर लगी। गांव के बाहर ही नंदबाबा अन्य ग्रामीणों के साथ अतिथि के आगमन की प्रतीक्षा करते मिले। उद्धव ने नंदराज के चरण स्पर्श किये तो नंदराज ने उद्धव को उठाकर गले से लगा लिया। भावातिरेक में खुद रोने लगे। वैसे यह नंदबाबा और उद्धव की प्रथम बार भेंट हो रही थी। पर श्री कृष्ण के संबंध के कारण दोनों ही अपनत्व की श्रंखला में जकड़े से थे।

 गोपों ने रथ के अश्वों को रथ से स्वतंत्र कर दिया और उनके लिये चारा पानी की व्यवस्था कर दी। भूखे अश्व अपने भोजन में व्यस्त हो गये। कुछ गोप गायों को उनके बाड़े में बांधने लगे। आज गायें भी ज्यादा अधीर थीं। बाड़े से बार बार निकल बाहर आ रहीं थीं।

 

   उधर नंदराज विभिन्न वीथियों के मध्य से चलते हुए उद्धव को अपने आवास की तरफ ले जाने लगे। मार्ग स्वस्थ थे। उनपर जल का छिड़काव किया गया था। श्री कृष्ण विरह में अधीर गांव बालों की भीड़ साथ थी। 'कन्हैया कुशल से हैं' , मात्र यह एक वाक्य सुनने की अभिलाषा से गोप समुदाय साथ साथ नंदराज के घर की तरफ बढ रहा था।

 घर के द्वार के बाहर ही माता यशोदा मिलीं। उद्वव ने जैसे ही माता को प्रणाम किया, अधीर हो यशोदा रानी रोने लगीं। उनके आंसू उद्धव की पीठ पर गिरने लगे।

  "लल्ला। बस इतना बता दो कि मेरा लाला कैसा है। कभी हमारी याद करता है। इतना व्यस्त हो गया कि एक दिन के लिये भी वापस न आया। मुझे मैय्या मैय्या बोलकर मेरे पीछे पीछे घूमने बाला मेरा लाल, क्या आज भी मुझे मैय्या कहता है। जिस तरह हम उसकी याद में आंसू बहाते हैं, क्या कभी वह कभी हमारी याद में आंसू बहाता है। तुम उसके मित्र हो। मित्र से मन की दशा तो कहता होगा। क्या उसके याद में हमारी जरा भी स्मृति शेष है। हमारा लाला हमें याद करता होगा। वह कभी वापस आयेगा। बस यही आशा हमारे प्राणों की खेबनहार बनी हुई है। लल्ला। अगर हमारी आशा कुछ गलत है तो सच सच बतला दो। फिर इस शरीर में प्राणों को ढोने का क्या लाभ? लाला के बिना वैसे भी यह निष्प्राण ही तो है। सच सच बतला दो। कहीं हम व्यर्थ की आशा में तो हम जीवित नहीं हैं। हमारा लाला निर्मोही तो नहीं है। बस एक यही आशा प्राणों की रक्षा कर रही है। तो लल्ला। सच क्या है, साफ साफ बता दो। "

 उसके बाद विरह का जो वेग उठा, उसे शांत कर पाने की स्थिति महाज्ञानी उद्धव में न थी। बड़ी मुश्किल से नंदबाबा ने यशोदा रानी को चुप कराया। सभी प्रश्न अपने स्थान पर सत्य हैं। पर पहले अतिथि सत्कार का धर्म निर्वाह करना है। नहीं तो हमारा लाला यही समझेगा कि कहीं हम भी तो नहीं बदल गये। जो उसके भेजे उसके मित्र और भाई का स्वागत सत्कार न कर पाये। सत्य ही है कि प्रेम की डगर बहुत कठिन है। खुद का क्या पर प्रेमी के सम्मान का हमेशा ध्यान रखना ही होता है।

 क्रमशः अगले भाग में



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