पत्थर पर दूब
पत्थर पर दूब


पलंग पर बैठी सौम्या विकास के बालों को सहला रही थी और विकास, सौम्या के उभरे पेट को वात्सल्य भरी नजरों से देख रहा था।
बहुत उथल-पुथल के बाद, वीरान पड़े दोनों के जीवन में फिर से मधुमास छा गया, आपस के स्पर्श में गर्माहट की पुनरावृत्ति होने लगी।
शादी के सात साल बाद घर में रौनक आया। सौम्या गर्भ से थी, दोनों बहुत खुश दिख रहे थे। सौम्या ने लजा कर आहिस्ता से पूछा, “विकास गेस करो, बेटा होगा या बेटी ?”
“बताता हूँ। नहीं..नहीं पहले तुम्हें बताना पड़ेगा, लेडीज फर्स्ट। हा..हा..” विकास हँसते हुए बोला।
सौम्या की सहजता और सम्पूर्णता उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी। वह मुसकराते हुए बोली, "विकास, हमलोग तो सचमुच निराश ही हो गये थे! माँ भगवती की असीम कृपा और विज्ञान का चमत्कार जो हमारे घर-आंगन में किलकारी गूंजेगी। हमारे लिए यह पत्थर का दूब ही है। कितने चौखट पर हमने माथा टेका और कितने डाक्टरों के द्वार खटखटाये !
मुझे तो बस...एक हँसता-खेलता, नन्हा-मुन्ना चाहिए। जिसके पदार्पण से आँगन महक उठे। दिन भर मैं उसकी मासूमियत पर फ़िदा होती रहूँ और तुम्हें भी उसके साथ सुकून मिले। चलो, अब तुम्हारी बारी, बताओ जल्दी से।”
“बेटा हो या बेटी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता ! सब अपने भाग्य से ही आते हैं, हम तो केवल माध्यम हैं। सच तो यही है कि दोनों के बिना सृष्टि अधूरी है। अच्छा, तुम ही बताओ, बेटा को जन्म देने वाली एक बेटी ही होती है न ?” कहते हुए विकास सौम्या को अपनी बाहों में भर लिया ।