Laxmi Dixit

Tragedy

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Laxmi Dixit

Tragedy

प्रिय डायरी परंपराएं

प्रिय डायरी परंपराएं

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 कोरोना धर्म -जाति,गरीब- अमीर, पापी- पुण्य आत्मा कुछ नहीं देखता। इसने सबको एक ही लाइन में खड़ा कर दिया है। एक साधारण व्यक्ति और असाधरण व्यक्ति में कोई भेद नहीं किया।

बीते दिन हिंदी सिनेमा के दो महान सितारे अपने चोले को त्याग कर आनंत की यात्रा पर निकल गए। दोनों की मृत्यु कैंसर से हुई। एक कम आयु में ही दुनिया से रुख़सत हो गया तो दूसरा अपने पोते- पोती को गोद में खिलाने की हसरत को लेकर।

अभिनेता इरफान खान ने अपने जीवन में बहुत संघर्ष देखा। फिल्मी पृष्ठभूमि का ना होकर भी उन्होंने हिंदी सिने जगत में अपना एक मुकाम़ हासिल किया। लेकिन जब उनकी किस्मत का सितारा आकाश की बुलंदियों पर चमक रहा था, तभी उन्हें पता चला कि उन्हें न्यूरो- एंडोक्राइन कैंसर है। जिससे उन्होंने काफी संघर्ष किया, लेकिन उबर नहीं पाए ।


सिनेमा के चॉकलेट बॉय कहे जाने वाले स्वर्गीय ऋषि कपूर ने अपना एक्टिंग करियर बाल कलाकार के रूप में अपने पिता की मूवी 'मेरा नाम जोकर (1970 )' से ही शुरू कर दिया था और अभी तक एक्टिंग से संन्यास नहीं लिया था । हालांकि उनकी आखिरी फिल्म 'शर्मा जी नमकीन' उनके आकस्मिक निधन के कारण अधूरी रह गई।


 दो महान कलाकार जिनके हजारों फैंन हैं, जब दुनिया से विदा हुए तो उनकी अंतिम यात्रा में जाने के लिए उंगलियों पर गिने जा सकने वाले, मात्र मुट्ठी भर लोग ही शामिल हुए। और उन्हें भी सरकार से अनुमति लेनी पड़ी और वह भी इस शर्त पर मिली की अंतिम यात्रा में शामिल होने वाले सभी लोगों के मुंह पर मास्क और हाथों में दस्ताने होंगे।


कौन आया , कौन गया कुछ पता नहीं। सबके चेहरे ढके हुए थे। दिलों में अपने से बिछड़ने का दर्द था, लेकिन उसे व्यक्त करने के लिए कोई अपनों से लिपट कर रो भी नहीं सका। क्या कभी पहले ऐसा सुना था, देखा था कि बेटा पिता को मुखाग्नि दे और उसके मुंह पर मास्क और हाथों में दस्ताने हों। पंडित जी भी मुंह पर मास्क लगाए मंत्रोच्चार कर रहे हों। सड़कें खाली हों पर बेटी अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए भी ना पहुंच सके। लेकिन इस कोरोना काल ने सब कुछ दिखा दिया।


 कोरोना ने कैसे मानव की संवेदना को बंधक बना लिया है। कहते हैं ,अंतिम समय में पुत्र, पिता की चिता को मुखाग्नि देता है लेकिन कोरोना ने इस सनातन परंपरा को भी तोड़ दिया है। आज के इस दौर में बेटा अपने पिता के शव को लेने से इसलिए इंकार कर देता है क्योंकि उसकी मृत्यु कोरोना से हुई थी ।आज कोरोना से ग्रसित लोगों का अंतिम संस्कार भी प्रशासन द्वारा ही हो रहा है।


आधुनिकता की दौड़ में अंधों की तरह भागते मनुष्य को कोरोना ने ना सिर्फ संवेदनहीन, बल्कि कर्तव्यहीन भी बना दिया है । कोरोना संकट में चाहे पुण्य -आत्मा हो या पापी सब की अंत्येष्टि पुलिस के पहरे में ही हो रही है। अमीर हो या फ़कीर आज जनाजे़ में शामिल होने वाला भी कोई नहीं ।


कोरोना ना केवल हमारे स्वसन तंत्र पर प्रहार कर रहा है बल्कि हमारे मस्तिष्क पर भी कर रहा है। कोरोना के भय ने हमारे दिमाग में घर कर लिया है और हमारी भावनाओं को बंधक बना कर अपने पंजों में जकड़ लिया है। एक लॉकडाउन घर के बाहर है और एक हमारे भीतर भी चल रहा है - हमारी संवेदनाओं पर।


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