Laxmi Dixit

Drama

3.8  

Laxmi Dixit

Drama

भूरा

भूरा

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 तीन दिन हो गए कहीं वो ...नहीं, यह नहीं हो सकता। हे ईश्वर ! उसकी रक्षा करना, उसे ठीक कर देना। ना जाने ,ऐसे कितने ही विचार कुदाले मार रहे थे निया के दिमाग में और आएं भी क्यों नहीं । पिछले तीन दिनों से भूरा निया की गली से गुजरा नहीं था। एक माह पुरानी दोस्ती थी दोनों की।


 पांच अप्रैल को, घर के दरवाजे की चौखट पर दीया जलाने के लिए जब निया ने दरवाजा खोला था तो भूरा वहीं निढाल पड़ा हुआ था, अपना सिर जमीन पर रखे। दरवाजे को खोलने की आहट हुई तो उसने अपनी पलकें उठाईं और पुनः झुकाकर  पहले जैसी अवस्था में पड़ा रहा ।


लगता है यह बहुत भूखा है तभी तो दरवाजे की आहट हुई लेकिन पहले की तरह ना तो उठा और ना अपनी गर्दन उठाई ।निया मन ही मन सोच रही थी पिछले दस दिनों से निया देख रही थी ,भूरा उसके दरवाजे पर लेटा रहता था लेकिन दरवाजा खोलने की आहट होती तो अपनी गर्दन जरूर उठाता था । यूं तो निया, भूरा कुत्ते को पिछले चार सालों से ,जबसे उसने होश संभाला था अपने घर की गली से गुजरते देखती थी ।जब भी भूरा निया को देखता तो एक नज़र उसकी ओर डालता हुआ सामने से निकल जाता था ।लेकिन भूरा की वो एक नज़र जैसे कुछ कहती थी निया से, जिसे वो आठ साल की बच्ची अब तक समझ ना पाई थी।


 "मां, यह तो बहुत भूखा लग रहा है, इसके शरीर में इतनी भी शक्ति नहीं कि उठ कर खड़ा हो जाए या अपनी गर्दन उठाएं " , निया ने मां से कहा। "हां बेटा, पिछले दस दिनों से महामारी कोरोना के कारण देश में लॉकडाउन चल रहा है ,"मां बोली। तो क्या मां, निया कुछ बोली नहीं लेकिन उसकी आंखें मां ने पढ़ लीं। मां ने आगे कहा ,"बेटा हम इंसान तो घरों में बंद हो गए हैं लेकिन यह निरह जानवर जो हमारे ही फेंके हुए खाने पर पलते हैं, अब कहां जाएं।" "इन्हें खाने को कुछ भी नहीं मिल पा रहा है क्योंकि सारे बाजार ,सामाजिक गतिविधियां रुक गई हैं। इनका हाल बुरा है।" "तो क्या मां भूरा मर जाएगा ,"मां की बात बीच में काटते हुए निया ने प्रश्न किया और कहते - कहते निया की मासूम आंखों से झरना बह निकला।


 निया ने ही तो उस कुत्ते का नाम भूरा रखा था। चार साल से भूरा से जैसे कोई अनकहा रिश्ता बन गया था उसका । "नहीं; तुम किचन में जो तोष का पैकेट रखा है, वह ले आओ" - मां ने प्यार से निया से कहा। निया हिरणी की तरह कुदाले मारती हुई गई और पलक झपकते ही तोष का पैकेट ले आई। मां ने तोष का पैकेट खोला और निया से भूरा के सामने तोष रखने को कहा। भूरा ने तोष वैसे ही लेटे - लेटे खा लिए और फिर उठकर चला गया। तब से यह सिलसिला यूं ही जारी था ।


फिर एक दिन जब निया भूरा को तोष खिला रही थी तो उसने देखा भूरा के शरीर पर चोट का एक बड़ा सा निशान था। "लगता है इसे किसी ने मारा है," मां ने कहा। तब तक भूरा ने तोष  खाई और चला गया । भूरा रोज़ तोष खाने आता तो था लेकिन उसकी चोट का निशान दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। तोष खाते हुए भी वह बीच में बार-बार अपनी चोट को चाटता रहता था। उसकी हालत देखकर निया को बहुत दुःख होता था। लेकिन वह कर भी क्या सकती थी । लॉकडाउन ने सब कुछ गतिहीन कर दिया था ,सिवाय भूरा की चोट   के निशान के जो बढ़ता जा रहा था। भूरा चिड़चिड़ा होता जा रहा था ।अब वह एक बार भी निया की ओर नहीं देखता था ।बस अपनी चोट को चाटता रहता और तोष खा कर चला जाता।


लेकिन पिछले तीन दिनों से भूरा नहीं आया था । निया रोज दरवाजे पर उसका इंतजार करती और थक कर दुःखी मन से लौट जाती। कहीं चोट के कारण भूरा मर तो नहीं गया? वह कभी नहीं आएगा? बस इस खयाल से ही  निया की आंखें भीग जाती थी।


उस दिन भी दरवाजे पर भूरा का इंतजार करते-करते जब निया थक गई तो भीतर आकर चुपचाप बैठ गई। तभी मां की आवाज आई-"निया, जल्दी आओ।" दरवाजे पर मां बुला रही थी। निया दौड़ कर गई तो देखा भूरा खड़ा है ।वह सरपट किचन की तरह लपकी और तोष का पैकेट ले आयी। भूरा ने तोष खाई। "यह क्या भूरा की चोट तो भरने लगी , निशान काफी कम हो गया है , देखो ना मां"- निया खुशी से झूम उठी। मां ने हामी में सिर हिला दिया। "लगता है तीन दिनों में कोई जादू हो गया है," मां बोली। मां के होठों पर मुस्कान थी ।इस बार भूरा तोष खाकर तुरंत गया नहीं, बल्कि जमीन पर लोट -लोट कर लाड़ दिखाने लगा और फिर दुम हिलाते हुए निया को निहारता रहा, जब तक निया की मां ने दरवाजा लगा नहीं दिया।


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