Dr. A. Zahera

Drama Tragedy Inspirational

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Dr. A. Zahera

Drama Tragedy Inspirational

परिक्रमा!!

परिक्रमा!!

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उनका अपना तो कोई नहीं था इतनी बड़ी दुनिया में सिवाय तुर्वी के जिसे उन्होंने मां की तरह पाला था। आज उनकी नौकरी का आखरी दिन था। प्रधानाचार्या के पद से सेवानिवृत जो हो रही थीं। अपनी बत्तीस साल की नौकरी में उन्हें कभी अकेलेपन का एहसास ही नहीं हुआ था। लेकिन आज उन्हें यही डर सता रहा था की अब वो अकेले कैसे रहेगी। तुर्वी भी तो नहीं है यहां। अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने दिल्ली चली गई है। दिवाली पर ही मौका मिलता है आने का और इस बार तो मुश्किल ही है क्योंकि आखरी साल है पढ़ाई का। इन्हीं सब खयालों में गुम थी जब विद्यालय का पूरा स्टाफ उन्हें विदाई देने उनके कक्ष में गुलदस्ते, माला और उपहार भेंट ले कर आ पहुंचा। सबने उनके साथ गुज़ारे पल को याद करते हुए नम आंखों से उन्हें विदाई दी। सबका धन्यवाद करते हुए नम आंखों से विद्यालय को निहारते हुए उन्होंने घर की ओर प्रस्थान किया।


ये है डॉ नीलिमा जिनका शहर में बड़ा नाम है। अपने सामाजिक कार्यों के चलते भी बड़ी ख्याति पाई उन्होंने। उनका जीवन हमेशा ही प्रेरणा का एक स्त्रोत बना रहा। जब से इस शहर में आईंं थीं और विद्यालय में पद संभाला तब से लोगों और बच्चों और खास तौर पर महिलाओं में बड़ी प्रचलित हो गईं। स्वभाव की बड़ी अच्छी और बातों की धनी महिला थीं। एक गोद ली हुई बच्ची तुर्वी के साथ ही रहती थीं। लेकिन कुछ वर्षों से अकेले ही रह रही थीं जबसे बेटी पढ़ने दिल्ली चली गई तब से। उनके चेहरे पर हमेशा एक मुस्कान और संतोष का भाव होता। पता नहीं ऐसा क्या पा लिया था जो हमेशा पूर्णता का आभूषण पहने रहतीं। लेकिन जीवन की डगर इतनी आसान भी नहीं होती की सीधे सीधे चले चलो और रास्ते मिलते जाएं। हर किसी के जीवन में कभी न कभी तो कठिन मोड़ आते ही हैं, कड़े फैसले भी करने पड़ते हैं तब कहीं धुंधले रास्ते साफ़ नज़र आते हैं। नीलिमा को देख के ऐसा बिलकुल भी नहीं लगता था की उन्होंने कठिन मोड़ और पथरीले रास्तों का सफर तै किया है और अपने दिल में तूफान समेटे हुए हैं। ये तो सिर्फ वो और तुर्वी ही जानते थे। शादी नाम के तूफान ने नीलिमा का जीवन अस्त व्यस्त कर दिया था।


विद्यालय से घर के रास्ते का सफर तय करने के दौरान उनके जीवन के लंबे सफर की कुछ यादों की बौछार दिल और दिमाग पर पड़ने लगीं तब जवानी का वो दौर साफ साफ दिखने लगा जो वक्त की धुंध में छिप सा गया था।


नीलिमा अपनी पढ़ाई पूरी कर ही चुकी थी की विवाह का प्रस्ताव आया और चट मंगनी पट ब्याह हो गया। घर बार और लड़के में कोई कमी नही है, पैसे वाले इज्ज़तदार लोग हैं ऐसा कह के नीलिमा के रिश्तेदारों ने रिश्ता तय करवा दिया। 


बहोत सारे सपने सजाए, जब वो ब्याह कर पति के घर आई तो वहां का माहौल देख के महसूस हुआ जैसे उसके सपनों में ग्रहण लग गया हो। पढ़ी लिखी होना जैसे उसका सबसे बड़ा दोष था, आधुनिक खयालात और सुलझी सोच रखनेवाली नीलिमा की परिवार में कोई अहमियत नहीं थी। पिता की सरकारी नौकरी सबकी लालच का कारण थी। पति ने जीवन भर कोई काम नहीं किया था और अब इस बात की अकड़ थी की सरकारी नौकर का इकलौता दामाद है, काम करने की क्या ज़रूरत है। ससुराल में सास ससुर देवर भाभी के साथ दो ननदें भी थीं वो भी उतनी ही दिमागी थीं। 


कितनी ही बार उसने चाहा की पति से अपने दिल की बात कहे लेकिन पति महोदय अलग ही नशे में खोए रहते। नीलिमा ने अक्सर अपने लिए गलत शब्दों का उपयोग होते सुना पर अनसुना कर रह जाती। धीरे धीरे उसे महसूस हुआ की पति उससे प्रेम ही नहीं करते, उसके साथ किसी भी तरह के एहसास से जुड़े ही नहीं हैं। हमेशा धन दौलत और पैसों की बात ही होती। एक सुखी वैवाहिक जीवन के सपने हर लड़की देखती है नीलिमा ने भी देखे थे लेकिन .... वैसा कुछ भी नहीं था जैसा उसने चाहा था। अपनी ज़रूरतों के लिए जब पति से पैसे मांगती तो वो खाली जेब दिखा देता। ननदें कहतीं, " क्यूं जी ! तुम्हारे पिता की दौलत खत्म हो गई है क्या?" सास कहती "चार पहिए वाली गाड़ी देने को कहा था ...... वो भी नहीं मिली।"


एक दिन जब उसने अपने ज़ेवरों का बैग खोला तो लगा उसके ज़ेवर धीरे धीरे कम हो रहे हैं। उसमे कई चीज़ें गायब मिलीं। अपने स्त्री धन को समेट कर चोरी छुपे नीलिमा ने उन्हें बैंक के लॉकर में डाल दिए। किसी को भी इसके बारे में नहीं बताया। ये सारी बातें उसके कोमल हृदय में परत दर परत जमने लगीं। हर एक बात उसके दिल पे गहरा आघात कर जाती और नए ज़ख्म बनाती जाती। 


उसे ऐसा लगने लगा जैसे वो किसी पिंजरे में क़ैद हो गई हो। उसके माता पिता के दिए संस्कार उसे किसी भी तरह का ग़ैरमामुली कदम उठाने से रोक रहे थे। इन सब हालातों के बीच नीलिमा को एक दिन अपने अंदर एक जीवन के पनपने का एहसास हुआ बात जांच के बाद पुख्ता भी हो गई। उसकी खुशी की कोई सीमा ही नहीं रही। सोचा वक्त और घर में नन्हे मेहमान के आने की खुशी सब कुछ बदल देंगे। अपनी खुशी को जब नीलिमा ने अपनी सासू मां से बताया तो मानो उनको सांप सूंघ गया हो। बिना कुछ बोले उन्होंने खामोशी की मुद्रा ग्रहण कर ली। पति ने भी कुछ खास खुशी और जिज्ञासा ज़ाहिर नहीं की। लेकिन अगले ही दिन सास ने बड़े प्रेम भाव से नीलिमा को उसके मायके ये कह के रवाना कर दिया की वहां देख भाल ठीक तरह से हो जायेगी। 

दो महीने किसी तरह बीते ही थे की अचानक नीलिमा की तबीयत खराब होने लगी। पति को बुलाती, फोन करती लेकिन कभी भी ननद और सास उसकी बात उसके पति से नहीं करवाती। नीलिमा ने जिद्द पकड़ ली की अब अगर अस्पताल जाऊंगी तो पति के साथ। पिता को उसका दुख देखा न जाता। कई बार उसकी सास और ससुर से बात कर चुके थे लेकिन जैसे की उन लोगों ने कसम खा ली थी नीलिमा को न लाने की क्यूंकि चार पहिए की गाड़ी और दामाद के नाम बैंक में रकम का चढ़ावा नहीं चढ़ाया था। नीलिमा का दुख और तकलीफ मां से देखे नहीं जाते थे। पिता पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति थे। समाज में लड़की का पिता सबसे निरीह प्राणी होता है क्यूंकि उसे अपने जीवन की जमा पूंजी के साथ साथ बेटी को भी ऐसे अनजान भेड़ियों के हवाले करना पड़ता है। लेकिन नीलिमा के पिता उनमें से नहीं थे। शिक्षा के साथ साथ अपनी सोच को हर हालत में उत्तम रखने की बेहतरीन परवरिश दी थी सो नीलिमा ने भी वैसा ही किया। उसने अपना मन बना लिया की अब वो उस घर में नहीं जायेगी और ना ही उन लोगों से कोई वास्ता रखेगी। इन सब के बीच उसका बच्चा कोख में ही मर गया। तीसरे महीने के गर्भ में ही उसकी ममता बेबस हो गई और नीलिमा ने अपने बच्चे को खो दिया। तकलीफ़ और दुख उसके हृदय को छलनी किए देते थे। लेकिन फिर उसने किस्मत से शिकायत करना ही छोड़ दिया और अपने आप पर भरोसा कर कदमों को आगे बढ़ा दिया। जब दर्द और तकलीफ हद से पार हो जाते हैं तो फिर एहसास का माद्दा बहुत कम हो जाता है। 

पति से अलगाव के बाद नीलिमा ने पूर्ण रूप से आत्मा निर्भर होने का फैसला कर लिया। पढ़ाई को जारी रख कर उसने खुद को नीलिमा से डॉ नीलिमा में बदल दिया। बेटी की खुशियों में ग्रहण लग गया इन खयालों ने नीलिमा के पिता को परेशान कर दिया और वो दुनिया से चल बसे और कुछ ही महीनों बाद उसकी मां ने दुनिया को अलविदा कह दिया। नीलिमा एकदम अकेली हो गई। रिश्तेदारों की झूठी और बनावटी सहानुभूति उसे रास नहीं आ रही थी, वो फिर भी ख़ुद को अकेला ही पाती। लेकिन कुछ ही महीनों के बाद अकेलेपन से लड़ने की जंग खत्म हो गई जब उसे अच्छे विद्यालय में नौकरी मिल गई वो भी दूसरे शहर में।अपने पिता की संपत्ति को सहेज कर घर से बाहर कदम निकाल कर अपनी मंजिल की ओर निकल पड़ी। उस दिन के बाद से नीलिमा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।


अपनी नौकरी के पहले ही दिन जब वो अपने विद्यालय पहुंची तो अपने नाम की तख्ती लगी देख कर उसे अपने आप में एक नई ऊर्जा का एहसास हुआ। एक सकारात्मक माहौल दिखा और अपने जीवन के नए अध्याय की शुरुआत की।

 

समय का चक्र घूमता रहा ... नई तकनीक, विज्ञान की नई नई खोज और आधुनिकता दुनिया को बदलने की राह पर दौड़ाने लगे। आगे नहीं दौड़ पाई तो समाज की घिसी पिटी सोच, लड़कियों की किस्मत!! जहां चांद और दूसरे ग्रहों पर दुनिया जा रही थी अपना ऊंचा स्थान बना रही थी वहीं अब भी भ्रूण हत्या, दहेज के लिए उत्पीड़न, लड़कियों को शिक्षा के लिए मनाही जैसे दोगले मापदंड उनको पाताल की और धकेल रहे थे। 


अपने जैसी जब उसने कई नीलिमाओं को देखा तो एक संकल्प किया, "मैं इनकी मां बनूंगी, इनकी किस्मत लिखने का मौका इनको दूंगी।" दहेज के लालच की शिकार लड़कियां, गरीब अनाथ बच्चियों और विधवा महिलाओं को जिनका कोई सहारा नहीं था उनके लिए नीलिमा ने अपने पिता की संपत्ति से एक ठिकाना बनाया जिस का नाम 'अपना घर' रखा। 

उनकी शिक्षा से लेकर आत्मनिर्भर बनाने तक का ध्यान रखा। वो सबकी मां थी। वो मन ही मन अपने माता पिता को नमन करती और उनका अनेकों धन्यवाद करती की उनकी सोच और परवरिश की वजह से आज वो समाज के कोढ़ को साफ कर पा रही है। अपना घर के बाद नीलिमा ने सोच रखा था की नौकरी से फुरसत पाकर वो लड़कियों का एक छोटा सा स्कूल भी खोलेगी जिसमें गरीब और अनाथ बच्चियां पढ़ सकेंगी। ये उसका हमेशा से सपना रहा था।  

जब अपनी यादों की बस्ती से वो बाहर आई तो देखा घर आ गया था। गाड़ी से जैसे ही वो बाहर निकली उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तुर्वी सामने फूलों की माला लिए खड़ी थी। मां को देखते ही माला उसके गले में डाल कर उसके गले लग गई और बोली " मां अब तो मेरे साथ चलना होगा और मेरे ही साथ रहना होगा। मैं तुम्हें लेने आई हूं।" इस पर नीलिमा ने कहा "चाहती तो मैं भी थी बेटा .... लेकिन जब तक जीवन है तब तक मैं इन जरूरतमंद बच्चियों के जीवन को उज्ज्वल करती रहूंगी। उनके इर्द गिर्द परिक्रमा करती रहूंगी जिससे ये ज्ञान, शिक्षा और ऊंची सोच की रोशनी एक से दूसरे तक पहुंचती रहे। जिस दिन मैं इसमें सफल हो जाऊंगी उस दिन मेरी परिक्रमा पूरी हो जायेगी।" ये सुन कर तुर्वी की आंखें भीग गई और वो अपनी मां के गले लग गई।


आज के समय में भी बहुत सी ऐसी घटनाएं हमारे सामने से हो कर गुजरतीं हैं लेकिन हम सिर्फ उन्हें होते हुए देखते हैं। लड़कियां आज भी अपने जीवन की डोर पुरुषों के हाथ में दे कर खुद को ज़लील और रुसवा करतीं हैं। समाज दोहरे मापदंडों का प्रतीक है जहां वो बेटी बचाओ या पढ़ाओ का नारा बुलंद करता है वहीं अगर किसी बेटी के साथ अन्याय होता है तो मूक दर्शक भी बन जाता है। शिक्षा तब कामयाब होती है जब वो हमारी सोच में पनपती है और अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए सशक्त करती है।



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