Dr. A. Zahera

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4.8  

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झूठ का सच!!

झूठ का सच!!

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सच बार बार झूठ की ओट से झांक झांक कर अपने होने का प्रमाण दे रहा था लेकिन झूठ हर बार सच को छुपाने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था।क्या फ़र्क पढ़ता सच अगर अपने आपको साबित कर ही देता तो? वो अनगिनत झूठ की भीड़ में वैसे भी कहीं खो ही जाता। यही तो होता आया है और शायद यही होता रहेगा। मैने आज एक सच को लड़ते देखा, हारते देखा और असहाय मरते देखा है, एक खूबसूरत शक्ल, ठेढ़े मेढ़े दांव पेंचवाले झूठ के आगे।

उसने पूछा "ये तिलमिलाहट कैसी? ये बौखलाहट कैसी? तुमने तो विकास के नाम पर अपने झूठ को सच बना तो दिया! तुम्हारे पास सब हथियार थे अपनी बात को मनवाने के और मेरे पास?? मेरे पास थी.... ये जमींदोज़ होती धरोहर, धुंधली पड़ती सृष्टि, ये फूटे छाले नुमा गढ्ढे, अस्तव्यस्त सी ऋतुएं, मटमैली जलधाराएं..... मरते विलुप्त होते जनजीवन.... मैने अपने सच को कई बार बताया लेकिन .....


तो लो मनुष्य! तुम्हारे सुंदर विकास के झूठ के नीचे मेरा दर्द से आहत और घायल शरीर अंतिम सांसे लेते पूरी तरह दब चुका है। मैं सृष्टि हूं एक जीता जागता सच ! लेकिन ये जो विकास और आधुनिकता के झूठ का जो झुझुना तू बजा रहा है वही तुझे एक दिन अपने कदमों तले रौंदेगा।" कहते हुए उसने अपनी बात ख़त्म की और जोशीमठ की तबाही उजागर हो गई।


सृष्टि का वो दम तोड़ता सच आज जग ज़ाहिर हो गया और इंसान के विकास का झूठ जीत कर भी हार गया।



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