टापू पर जन्नत !
टापू पर जन्नत !
हुं...! तो बच्चों क्या कर रहे हो आप सब लोग? बोर हो रहे हो ना? चलो तुम सब की बोरियत को छू मंतर करते हैं और एक कहानी पेश करते हैं। सब अपने अपने मोबाइल, लैपटॉप, सारे गैजेट्स एक तरफ रख दो और ज़रा ध्यान से इस कहानी को सुनो जिसका नाम है टापू पर जन्नत। हें! ये कैसी कहानी है? टापू पर भी कभी जन्नत हो सकती है? अरे! यही तो सारा मामला है तो चलो कहानी शुरू करते हैं।
दीपू, रानू , शोभित , रोहन , जग्गी और जौहर बड़े पक्के दोस्त थे और कक्षा नौ के छात्र थे.... अरे ! मतलब स्टूडेंट्स थे। गर्मी की छुट्टियां लग चुकी थीं
सब की प्लानिंग थी कि इस बार खूब गेम खेलेंगे और यू ट्यूब पर मिल कर एक चैनल बनाएंगे जिससे की वो पैसा और नाम दोनो बना सकें। इसी फिराक में सब मिलजुल कर हमेशा दीपू के घर सुबह सवेरे चले आते और देर शाम अपने घर को लौट जाते। एक शाम दीपू के मां बाबा खूब नाराज़ हुए। उसके दोस्तों के जाने के बाद वो उसपर खूब गुस्सा हुए। " ये क्या दिन रात तुम लोग मोबाइल, लैपटॉप में मगन रहते हो? बाहर की दुनिया तो जैसे भूल ही गए हो? छुट्टी होने का ये मतलब तो नहीं कि दिन रात एक जगह पड़े रहो और मोबाइल लैपटॉप में आंख गाड़े रहो!" दीपू की मां ने गुस्से में दीपू से कहा। "और क्या करें मम्मी हमलोग? कुछ नया करने की सोच रहे हैं और नया करने के लिए एकसाथ रहना पड़ेगा एकसाथ काम करना पड़ेगा। और इससे आप लोगों को क्या मतलब? छुट्टी में ही तो कर रहे हैं। आइंदा मुझे ऐसे मत डांटीएगा, आप क्या जाने ये सब , पुराने ज़माने के हैं न आप लोग इसलिए ऐसा सोचते हैं। मैं जा रहा हूं सोने।" दीपू ने बड़ी बद्तमीज़ी से अपने मां बाबा से बात की और सोने चला गया। दीपू के मां बाप दुखी होकर वहां से चले गए।
अब अगली सुबह......
अगली सुबह दीपू अपने दोस्तों के साथ समंदर की बीच पर निकल पड़ा। दीपू और उसके दोस्तों का घर समंदर से कुछ किलोमीटर ही दूर था। वो अक्सर इस बीच पर आया करते थे। लेकिन जब भी आते तो ये प्लान बनाते की मार्शल अंकल की बोट वो किसी दिन लेकर समंदर की सैर करने जायेंगे बिना उनको बताए नही तो वो जाने नहीं देंगे। मार्शल एक अधेड़ उमर का आदमी था जो अपनी बोट की मदद से मछलियां पकड़ता था और उन्हें बेच कर ही उसका गुज़ारा होता था, इसलिए वो अपनी बोट किसी को भी नही देता था, वो उसे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी थी।
लेकिन आज जब दीपू और उसके दोस्त बीच पर पहुंचे तो उन्हें खाली बोट दिखी। मार्शल का कहीं पता नहीं था। " अरे वाह यार!! आज मौका अच्छा मिला है। क्या कहते हो तुम सब? मार्शल अंकल नहीं हैं, बोट भी खाली पड़ी है, सुबह का टाइम है समंदर की सैर करके दोपहर तक वापस आ जायेंगे।" जग्गी ने चहकते हुए सबसे कहा। सब जग्गी की बात से खुश हो गए और अपनी मंजूरी देते हुए बोट पर सवार हो गए। दीपू की टोली के पास खाने पीने का थोड़ा सा सामान था जैसे कुछ केले, पानी और जूस की बोतलें, बिस्किट और कुछ चिप्स के पैकेट। वो तो सब बीच पर पिकनिक मनाने आए थे इसलिए इतना सा ही खाना पीना साथ लाए थे। जोश में भरे सारे लड़के बोट पर सवार होते ही उसकी केबिन में जा घुसे और उसके इंजन को चालू कर दिया। शोभित ने कुछ देर बोट को संभाला फिर वो केबिन से बाहर आकर सबके साथ बैठ गया। सब बच्चे समंदर के बीचों बीच खुद को पाकर बहोत खुश हुए जा रहे थे। थोड़ा कुछ खाना पीना करके बैठे बैठे ही उन्हें गहरी नींद आ गई। कहानी आगे बढ़ाने से पहले एक सवाल। क्या तुम सब ये जानते हो बच्चों की समंदर में सात लाख से भी ज़्यादा प्रजातियां वास करती हैं ? और जिनमे से अभी तक कितनी ही प्रजातियां खोजी ही नहीं गई हैं। तो देखो कहानी के माध्यम से एक जानकारी भी साझा हो गई। चलो अब कहानी को आगे बढ़ाएं....
दीपू और उसके दोस्तों की जब आंखें खुली तो उन्होंने क्या देखा ? उन्होंने देखा की शाम हो चुकी है और मौसम खराब हो चुका है। समंदर में तूफान आया हुआ है। पानी में ऊंची ऊंची लहरें और समंदर की डरावनी आवाज़ें उन सबका दिल दहला दे रही थी। धीरे धीरे अंधेरा और तूफान दोनो ही बढ़ता चला गया। उनकी बोट की दिशा लहरों की वजह से बदल चुकी थी। आगे की तरफ बढ़ने की बजाए बोट दाईं तरफ को पलट गई। ये बात दीपू और उसके साथियों को पता नही चल पाई क्योंकि उनका कंपास गिर के टूट चुका था। तूफान और तेज़ होता जा रहा था जिसकी वजह से बोट का सेल फट चुका था। सभी बच्चे बुरी तरह से डर गए थे। तभी एक बड़ी सी तेज़ लहर ने उनकी बोट के कई टुकड़े कर दिए। अंधेरी रात… लहरों की भयानक आवाज़.... चारो तरफ पानी ही पानी बहोत खतरनाक मंज़र था। बोट की लकड़ी के टुकड़ों को सबन मज़बूती से पकड़ रखा था।दीपू और उसके दोस्त लकड़ी के टुकड़े के सहारे सारी रात समंदर में हिलकोरे लेते रहे। सुबह होते होते तूफान शांत हुआ। लेकिन जब बच्चों की आंखें खुली तो उन्होंने अपने आप को किसी अनजान जगह पर पाया। चारों तरफ बड़े बड़े नारियल के पेड़, दूर दूर तक फैला समंदर, चारों तरफ फैला सन्नाटा ये सब देख कर सभी हैरान थे की आखिर ये कौनसी जगह है? कुछ हिम्मत जुटा कर रानू और रोहन थोड़ा सा आगे बढ़े। आगे की तरफ बढ़ते हुए उन्हें सिर्फ घने पेड़ पौधों के अलावा कुछ नहीं दिखा। वहां न तो किसी इंसान का पता था न किसी जानवर का। एक छोर से दूसरे छोर की दूरी भी कोई बहोत ज़्यादा नही थी। जंगल के चारो तरफ विशाल समंदर ही दिख रहा था। अब उन सब को एहसास हो गया था की वो किसी टापू पर हैं जहां कोई नहीं रहता।
अब क्या किया जाए?? सब के दिमाग़ में यही सवाल चल रहा था। ख़ैर धीरे धीरे सब ने कुछ लकड़ियां इकट्ठा करके उनको बड़े शब्दों के आकार में रख दिया जिससे उपर से गुज़रने वाले किसी भी जहाज़ को दिख जाए और वो उस हेल्प को पढ़ कर उन तक पहुंच जाएं। फिर क्या हुआ?? कुछ नहीं..... ह्मम्म ये युक्ति काम नहीं आई। कुछ सोचते हुए दीपू ने कहा यार मुझे लगता है हमलोग ज़कुरा द्वीप यानी टापू पर आ गए हैं ये सबसे अलग बिना इंसानों और जानवरों का टापू है। यहां से निकल पाना अब ना मुमकिन है। इस पर रोहन और जग्गी ने कहा " यार हम लोग यहां पेड़ की लकड़ी से छोटी सी नाव बनाते हैं और मौसम ठीक ठाक देख कर चल पड़ेंगे।" सब ने हामी भरी और पेड़ की मोटी मोटी लकड़ियों को इकट्ठा करना शुरू किया। टापू पर खाने के लिए नारियल और तरह तरह के फल थे। लेकिन पीने का पानी नहीं था। चारों तरफ खारा पानी था। रोहन ने तब सबको याद दिलाया की उनकी साइंस की किताब में बारिश के पानी को जमा करने के तरीके और उसे साफ पानी में तब्दील करने के तरीके के बारे में दिया है "क्यों न हम उस तरीके से पानी जमा करलें?" रोहन और दीपू ने पेड़ की छाल को इस्तेमाल करके बारिश का पानी जमा किया और उसे नारियल के खोल में इकट्ठा करने लगे। पीने के पानी का इंतज़ाम तो हो गया, लेकिन खाना? कपड़े? कहां से आयेंगे। शोभित ने एक किताब में लकड़ी से आग बनाने के तरीके के बारे में पढ़ा था। जानते हो बच्चों उसे वो याद क्यों था? क्योंकि उस तरीके से उसने स्कूल में साइंस एग्जीबिशन में इवोल्यूशन को समझाया था। उसने लकड़ी के एक टुकड़े से बड़ी मेहनत से आग पैदा कर ली। अब आग होने की वजह से वो कुछ पका भी लेते। पेड़ों की छाल, बड़े पत्तों से कपड़े बनाके पहनने लगे।
धीरे धीरे उन्हें टापू पर मज़ा आने लगा। कुछ ही दिनों में उन सबने मिलकर खेलने कूदने के लिए एक बैडमिंटन कोर्ट भी बना लिया। वहां के जितने भी संसाधन थे उन सबको इस्तेमाल करके अपने मतलब की चीज़ बना ली। वो आपस में कभी लड़ते नहीं थे। क्योंकि उन लोगों ने ये अच्छी तरह से समझ लिया था की लड़ने झगड़ने से उनकी ताकत और हिम्मत कमज़ोर पड़ जायेगी। इसलिए उन लोगों ने ये तै किया की जिसको भी गुस्सा आयेगा उसे बाकी सब से अलग कुछ घंटे उनके द्वारा बनाई गई घास फूस की कुटिया में रहना पड़ेगा और तो और हर एक को एक काम बांटा गया था। सब टीम वर्क कर रहे थे। दीपू और रोहन के ज़िम्मे खाने पकाने का काम था तो शोभित और रानू के पास सुबह शाम टापू के छोर पर निगरानी करने का था। वहीं जग्गी और जौहर का काम लकड़ियां और खाने पीने के संसाधनों को इकट्ठा करना था। देखते देखते पूरे दो महीने गुज़र गए। सब कुछ ठीक था उन्हें न तो मोबाइल की याद आई ना तो किसी गैजेट की लेकिन इतने लंबे समय से अपने मां बाप से दूर रहने से उनकी याद सताने लगी। वो सब रोज़ टापू के छोर पर दिन में एक बार ज़रूर जाते ताकि कोई भी नाव, या पानी का जहाज़ उन्हे देख ले और मदद दे दे। उनके इस काम में उन्हें रोज़ मायूसी ही हाथ आती थी। टापू पर उन्हें जन्नत सा एहसास होने लगा था सिर्फ कमी थी तो अपने मां बाप की।
एक दिन जब कुछ पकाने के लिए दीपू ने आग जलाया तो दूर से आते एक जहाज़ पर बैठे लोगों ने आग को देखा और जहाज़ की रफ्तार को धीमा किया। ऐसा होते देख सारे बच्चे पानी में कूद गए और जहाज़ की तरफ तैरते हुए जाने लगे। जहाज़ के मालिक ने उन सबको बड़े अचरज में देखा। बढ़े हुए बाल, पेड़ की छाल से बने कपड़े। लेकिन जब उसकी बात का जवाब सबने उसी की भाषा में दिया तो उसे उनकी कहानी पर यकीन हुआ। बच्चों ने अपने शहर पहुंच कर सबको चौंका दिया। उन्होंने सबसे यही बात कही की अगर हम टापू पर मोबाइल या गैजेट ले गए होते तो आज हम वापस नहीं लौटते । बताओ क्यों बच्चो? वो इसलिए की मोबाइल का नशा उन्हे कुछ करने नहीं देता। उन्हे टीम वर्क और ज्ञान को जीवन में उतारने की वजह से नई जिंदगी मिली थी। साथ ही साथ उन्हे मां बाप की एहमियत का भी अंदाज़ा हो गया था।
तभी दीपू धड़ाम से अपने बिस्तर पर से अचानक गिर पड़ा और उसकी आंख खुल गई। उसने अपने आस पास देखा..... अरे ये तो मेरा घर है और मेरा हुलिया ?? ये तो सही सलामत है। ओह... तो ये मैं सपना देख रहा था? कितना अजीब सपना था ये लेकिन सीख देने वाला , दीपू ने मन ही मन सोचा। वो दौड़ता हुआ अपनी मां के पास गया और उनके सीने ले लिपट गया। आंख में पानी भरे हुए उसने अपनी मां से माफी मांगी और ये वादा किया की वो अब मोबाइल को सीमित समय के लिए ही इस्तेमाल करेगा और हमेशा अपने ज्ञान को वास्तविक जीवन में प्रयोग करने की कोशिश करेगा।
तो बच्चों थी ना कहानी मनोरंजक? इस कहानी के माध्यम से ये बताने की कोशिश की गई है की हम विपरीत और विकट स्तिथि में भी अपने विवेक से समाधान निकाल सकते हैं। हमारे जीवन में जिनकी एहमियत होती है वो हैं हमारे परिवार के लोग न की ये आधुनिक उपकरण। तीसरी बात अपने मां बाप का हमेशा सम्मान और आदर करना चाहिए। आखरी बात ये जरूरी नही की हमें खुश रहने और जीवन जीने के लिए महंगे उपकरण या संसाधन का हमारे पास होना ज़रूरी है बल्कि जीवन में खुश और सेहतमंद रहने के लिए सीमित संसाधन भी काफी है ज़रूरी है तो हमारा जीवन को देखने और जीने का नज़रिया।