एग्ज़ाम हॉल !
एग्ज़ाम हॉल !
कुछ कहानियां ऐसी होतीं हैं जिन्हे सुनकर प्रेरणा मिलती है। कुछ ऐसी भी होती हैं जिन्हें सुनकर खुशी का एहसास होता है।लेकिन कुछ कहानियां..... नहीं बल्कि कहना चाहिए कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो दिल ओ दिमाग़ को झकझोर कर रख देते हैं। जिंदगी बहोत तेज़ रफ्तार से आगे बढ़ती जा रही है और पीछे छूटती जा रहीं हैं कितनी ही संस्कृतियां, मूल्य, तहज़ीब और तरबियत।आज एक बिज़ी और लग्जरियस लाइफस्टाइल आधुनिकता और तरक्की का पैमाना बन चुकी है जिसके नीचे बचपन, मासूमियत, बड़प्पन, बुजुर्गियत सब कुचले जा रहे हैं। हम सब अपनी अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा कर इस रेस में शामिल होते जा रहे हैं। फुरसत और वक्त की किल्लत सबके पास है। और कहीं न कहीं इसका खामियाज़ा हम सब किसी न किसी तरह भोग ही रहे है और इस बात से हर कोई इत्तेफ़ा रखता है इस बात का मुझको यक़ीन है।
आज मेरी बोर्ड एग्जाम में इनविजिलेशन की ड्यूटी लगी थी रूम नंबर 07 में। "मैम! आपकी ड्यूटी खास इस रूम में लगाई गई है, आप को बहोत ध्यान देना होगा क्योंकि एक बच्चा ऐसा है इस रूम में जिसको कोई परेशानी है और हो सकता है बाकी बच्चे उसे परेशान करें।" कहते हुए प्रिंसिपल ने मुझे बच्चे का रोल नंबर बताया और ध्यान देने के लिए हिदायत दी।
पेपर का पैकेट लेकर मैं अपने ड्यूटी रूम में चली गई इसी उधेड़बुन में दिमाग़ उलझा रहा की आखिर ऐसी कौनसी परेशानी है उस बच्चे को जो इतना ध्यान देने की जरूरत थी। बहरहाल रूम में कुछ देर बिताने के बाद जब ध्यान घड़ी की ओर गया तो देखा की वो नौ बजाने की जल्दी में थी और चंद मिनटों में उसने नौ बजा दिए। बच्चों का एग्जाम हॉल में आना शुरू हो गया।एक एक करके सब अपने रोल नंबर के हिसाब से अपनी अपनी जगह पर आकर बैठते चले गए। मुझे अभी भी उस बच्चे का इंतज़ार था। तभी "मे आई कम इन मैम!" पूछते हुए किसी ने अंदर आने की इजाज़त मांगी। मैने रूम के दरवाज़े कि तरफ देखा तो वहां एक लंबा गोरा चिट्टा सामान्य सा दिखने वाला लड़का अंदर आने की इजाज़त मिलने के इंतज़ार में खड़ा था। "यस! कम इन" सुनते ही वो रूम में दाख़िल हो गया और अपनी सीट पर जा कर बैठ गया। ये वही लड़का था उसके रोल नंबर से मैने पहचान लिया था। मैने देखा की जैसे ही वो रूम में दाख़िल हुआ वैसे ही सब बच्चों में आपस में काना फूसी शुरू हो गई। उसे देख कर सब एक दूसरे की तरफ मुड़ कर मुस्कुराने लगे, आंखों आंखों में इशारे करने लगे। "बिहेव योरसेल्फ!" आवाज़ में सख़्ती लाते हुए मैने हिदायत दी लेकिन बच्चे आपस में न जाने किस बात के इशारे कर रहे थे की वो लड़का अपना सर नीचे झुकाए अपने मुंह में कुछ बुदबुदाने लगा। बच्चों को डिसिप्लिन और तहज़ीब का हवाला देते हुए मैने उनको चुप तो करा दिया लेकिन उस बच्चे की घबराहट मैं रोक नहीं पाई। उसने अपना सर न दाएं न बाएं किसी तरफ भी नहीं हिलाया सिर्फ एकटक अपने टेबल की तरफ देखता रहा। मुझे समझ नहीं आ रहा था की आखिर माजरा क्या है? उस लड़के में मुझे ऐसी कोई परेशानी, कोई ऐब नज़र नहीं आ रही थी की जिसका खयाल रखना जरूरी था फिर भी सब उसे देख देख के मुस्कुरा रहे थे। बहरहाल आंसर शीट देने का टाइम हो गया तो मैंने सबको आंसर शीट बांट दी। सब अपनी शीट पर अपना नाम और बाक़ी की जानकारियां भरने लगे। सबके पास जाकर मै शीट चेक करके अपना दस्तखत करने लगी। जब मैं उस बच्चे के पास पहुंची तो देखा की लिखते वक्त उसका हाथ बहोत तेज़ी से कांप रहा है और अपनी शीट भरने में उसने कई गलतियां भी की हैं।
"अरे! ये क्या किया बेटा? अपना नाम तुमने ग़लत तरीके से भरा है।" वो बहोत ज़्यादा डरा सा लग रहा था और डरते हुए बोला "आई एम वेरी सॉरी मैम! मुझसे गलती हो गई अब मैं क्या करूं?" मैने उसे इत्मीनान रखने को कहा और समझाते हुए उसकी ग़लती सही करवाई। इस दौरान मैंने देखा की उसने अपनी नज़रें रूम के चारों तरफ दौड़ने की कोशिश की। क्वेश्चन बुक बांटने का टाइम आया और सब को उनकी बुक देकर मैं एक कोने में खड़ी हो गई। तीन घंटे के पेपर के दौरान सब अपने पेपर में गुम थे। उस बच्चे ने इस दौरान कई बार मुझे अपने पास बुलाया और पेपर में कुछ सवालों के बारे में पूछा। अभी तक मुझे समझ नही आया की परेशानी क्या थी उसमे। आखरी दस मिनट बचे तो मैंने सबको अपने आंसर पेपर को ठीक से चेक करने को कहा। तब उस बच्चे ने बहोत मायूसी भरी आवाज़ में बोला "मैम चेक क्या करना है ? मैंने दस नंबरों का सवाल ही हल किया है। मुझे इसमें भी पूरे दस नंबर मिल जाएं तो बहोत बड़ी बात होगी।" इतना सुनते ही सारे बच्चे हंसने लगे और उसका मज़ाक बनाने लगे। सबको चुप कराते हुए मैने बहोत हैरानी से पूछा "क्यों बेटा ! तुमने पढ़ाई नहीं की थी क्या? कोई परेशानी थी?" मुझे सवाल के ज़रिए ये जानने का मौका मिल गया की आखिर माजरा क्या है। तभी पेपर जमा करने के लिए घंटी बजी और मैं सबका पेपर लेने में मश्गूल हो गई। सब पेपर जमा करके बाहर निकल गए लेकिन वो बच्चा अपनी जगह पे खड़ा मेरा इंतज़ार कर रहा था। मैने उसे जाने को कहा तो उसने कहा, " मैम ! आप से मुझे सब कुछ बताने का दिल कर रहा है क्योंकि आप इतने अच्छे से मुझसे बात कर रहीं थीं और मेरी परेशानी को समझ कर उसको हल करने की कोशिश कर रहीं थीं।मुझे आपसे सबकुछ कहने के लिए डर नहीं लग रहा है बल्कि कहने के लिए कॉन्फिडेंस आ रहा।" मैने बहोत ताज्जुब से उसकी तरफ देखकर उससे दुबारा पूछा की क्या वजह थी की उसने पेपर के सवाल हल नहीं किए। और जब उसने अपनी बात बतानी शुरू की तो मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई और तो और बदन में अजीब सी कंपन शुरू हो गई।
उसने बताना शुरू किया " मैम पूरे साल स्कूल में मेरा अटेंडेंस सिर्फ दस पर्सेंट ही है इसलिए कोई क्लास न करने की वजह से मैं सिर्फ कुछ ही सवाल हल कर पाया और इसकी वजह ये है की पीछले तीन साल से मैं बहोत बड़े डिप्रेशन से गुज़र रहा हूं। आप यक़ीन नहीं मानेंगी मैने पांच से छै मर्तबा खुदकुशी करने की कोशिश भी की है इन तीन सालों में। मैने बड़ी बेसब्री से पूछा " ऐसा तुमने क्यों किया? इसकी वजह?"
"मैम जब मैं आठवीं क्लास में था तब एक रोज़ मेरे स्कूल के वाशरूम में मेरे ही क्लास के कुछ लड़कों ने जो मेरे सबसे अच्छे दोस्त भी थे, मेरे साथ वो किया जो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। उन लोगों ने मेरा यौन शोषण किया सब ने बारी बारी से किया। और ये सिलसिला तकरीबन दो साल तक चलता रहा। मैं अपने साथ ये होता देख ज़हनी दबाव में जाता रहा। मुझे समझ नही आ रहा था की किससे कहूं और क्या कहूं। वो हमेशा किसी साइट की बात करते और उससे
सीखते और स्कूल में मेरे साथ वही गंदगी करते। मैं अपना कॉन्फिडेंस और खुद तौक़ीरी (सेल्फ एस्टीम) खोता जा रहा था। मैं स्कूल से घर जा कर एक कमरे में खुद को क़ैद करने लगा। मेरे मां बाप दोनो नौकरीपेशा हैं उनके पास सिर्फ शाम का वक्त ही होता था जिसमे वो दिन के बाकी काम पूरे करते हैं। मैं डिप्रेशन में इस कदर घिर गया की कुछ बोलने और समझने के काबिल ही नहीं रहा। धीरे धीरे मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया। मेरे पेरेंट्स ने जब मुझमें ये बदलाव देखा तो कई डॉक्टरों को दिखाया लेकिन कहीं भी कुछ सामने नहीं आया। मैम, सब लोग जिस तरह त्योहारों और शादियों के लिए ज़ेवर, कपड़े और मिठाइयों की शॉपिंग करते हैं ठीक उसी तरह पिछले एक साल से मेरे मां बाप डॉक्टर शॉपिंग कर रहे थे। कौनसी ऐसी जगह थी जहां वो मुझे लेकर नहीं गए। आखिर एक दिन एक डॉक्टर ने मेरे इलाज का ज़िम्मा लिया और उसने मुझे कुछ दवाइयां देके मेरे ज़ेहन को नॉर्मल किया और तब दवा की ख़ुमारी में मैने सब कुछ बता दिया। ये जान कर मेरे पेरेंट्स ने स्कूल और मैनेजमेंट को सब बताया और उन बच्चों के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट भी दर्ज कराई। जो लड़का मेरे सीट के पीछे बैठा आज पेपर लिख रहा था वो उनमें से एक था। ये सब जानने के बाद सब बच्चे मेरा मज़ाक उड़ाने लगे। मैं हंसी का पात्र बन गया। यहां तक की मुझे धमकियां भी मिलने लगीं हैं इसलिए मेरे पेरेंट्स ने इस सेंटर पर मेरी सिक्योरिटी के लिए अर्ज़ी दाखिल की है।" इतना सुनने के बाद मेरी आंखे भर आईं। अपने आपको संभालते हुए मैने उस से पूछा "अब तुम कैसा महसूस करते हो अपने इलाज के बाद?" उसने कहा "मैम मेरी जिंदगी के तीन साल तो बर्बाद हो गए और न जाने कितना वक्त और लगे मुझे नॉर्मल जिंदगी जीने में, लेकिन अब थोड़ा कॉन्फिडेंस आया है तो मैने पेपर देने की ठानी है भले ही फेल हो जाऊं पर कोशिश ज़रूर करूंगा। मैम एक बात और मैं अपने दोस्तों की हालत के लिए भी दुखी हूं क्योंकि जिस चीज़ में उन्हें ध्यान देना चाहिए वो उसे छोड़ कर बाकी सब गैर ज़रूरी काम करके अपना मुस्तकबिल बर्बाद कर रहे हैं। कल हो सकता है उन्हे जुवेनाइल कोर्ट का मुंह देखना पड़े। मैं सब से पूछता हूं की इन सब का ज़िम्मेदार कौन है? मैं? हमारे मां बाप? स्कूल? हमारा म्आशरा? कौन??" बिना जवाब दिए मैने उसे अगले पेपर की तैयारी के लिए हौसला अफजाई करके जाने को कहा। जाते जाते उसने मेरे पैर छूते हुए कहा " आपसे सबकुछ कहके मुझे और हल्का और अच्छा लग रहा है, मेरी बात सुनने के लिए थैंक्यू मैम।" और वो चला गया।
लेकिन आखिर में जो सवाल उसने मुझसे पूछे उनके जवाब मेरे पास नहीं थे। लेकिन इतना जरूर कहूंगी की इल्म एक मंजिल है और वहां तक पहुंचने का रास्ता तालीम से होकर गुज़रता है। इस रास्ते पर चलते हुए जो ठोकर लगने से बचाती है, हमें महफूज़ रखती है या जो रोशनी दिखाती है वो है अच्छी तरबियत। ये तरबियत हमें पहले घरों से अपने मां बाप से मिलती है फिर इसकी ज़िम्मेदारी स्कूल की होती है। हर मोड़ हर मुकाम पर हमें इनकी हौसला अफज़ाई, इनकी देखभाल, इनके खयालों और हरकतों की देखभाल, इनकी ज़हनी सेहत (मेंटल हेल्थ) पर ध्यान देने की ज़रूरत है। तरक्की, शोहरत, पैसा पाने की होड़ में हम सबने ख़ुद को इससे गाफिल कर लिया है। मां बाप समझते हैं की स्कूल की फीस भर रहे हैं ये स्कूल की ज़िम्मेदारी है। स्कूल कहता है बच्चों को हम दुनियावी चीज़ें सिखाते हैं, तमीज़ वो अपने घर से सीखते हैं। उनको कौन सुनेगा, मोबाइल सुनता है और दिखाता है क्योंकि एक अच्छे उस्ताद और मां बाप की जगह तो अब मोबाइल ने ले ली है। हमारे पास वक्त नहीं है देने को। इसलिए परवरिश भी ऐबदार हो चुकी है। इस पर बहुत तवज्जो की ज़रूरत है और हां लड़कियों के साथ साथ लड़कों की भी इज्ज़त को महफूज़ करने की जरूरत है।