Dr. A. Zahera

Abstract Drama Inspirational

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Dr. A. Zahera

Abstract Drama Inspirational

दहकते अंगारे महकते गुल!!

दहकते अंगारे महकते गुल!!

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आज मैं इस मंच पे खड़ी हो के आप सबके बीच ये जो कुछ कहने जा रही हूं ये इतना आसान नहीं था। उस तरफ़ लोगों का जो हुजूम है, जो आज मेरे लिए तालियां बजा रहे हैं ये कल तक मुझे ऐसी नज़ारों से देखते थे जैसे मैंने कोई गुनाहे अज़ीम कर दिया हो। भीड़ से यहां तक का फासला तय करने में यूं तो मुझे चंद साल ही लगे हैं लेकिन ऐसा लगता है की सदियां गुज़र गईं इस राह पर चलते हुए। एक वक्त वो था जब मैं इस शहर में आई तो लगा किसी वीराने में आई हूं जहां ज़िंदा मुर्दे रहते हैं। सुन के अजीब लग रहा होगा न? लेकिन यही सच्च है। वीराना इसलिए की पैसों की खनकती अमीरी तो बहुत थी लेकिन तालीम की गुरबत हर तरफ फैली हुई थी हर तरफ एक जहालत का शैतान मुंह फाड़े खड़ा नजर आता था। तमाम लोगों की भीड़ से भरा हुआ शहर भी मुझे वीराने जैसा डरावना लगता था। और तब मैंने इस डर और इस शैतान से लड़ने का फैसला किया और तमाम दुश्वारियों से लड़ते लड़ते आख़िर उस जहालत के शैतान को भगा के ही दम लिया। ऐसी किन दुश्वारियों का सामना मैंने किया और कैसे उसकी पूरी कहानी अपनी किताब "दहकते अंगारे महकते गुल" के ज़रिए मैंने आप सबके सामने बताने की कोशिश की है.... उम्मीद है आप सबको पसंद आएगी।

आज शहर की उन हस्तियों का ख़ैर मकदम करने के लिए एक प्रोग्राम रखा गया था जिन्होंने इस शहर के लिए कुछ ऐसा किया था की आने वाली नस्लों के लिए इब्रत का बाइस थे। इसी प्रोग्राम में डॉ साराह अमीन ने अपनी किताब "दहकते अंगारे महकते गुल" का प्रसार प्रचार भी किया।

प्रोग्राम के दौरान ही उनसे उनके सफर के बारे में पूछा गया और तब उन्होंने अपनी दास्तां सुनाई।

प्रोग्राम खत्म हुआ और साराह अपने घर आई। शाम के पांच बज रहे थे। थोड़ा सा सुकून पाने के लिए वो थोड़ी देर अपनी रॉकिंग चेयर पर बैठ गईं। आंखे मूंदे वो पच्चीस साल पीछे चलीं गईं।


साराह पच्चीस साल पहले जब इस शहर में पहली बार आईं थी तब....


"अरे भईया ज़रा अलीगंज चलोगे क्या?" स्टेशन से बाहर आकर साराह ने रिक्शे वाले से पूछा। "चलेंगे लेकिन पचास रुपए लेंगे।"

"ठीक है !चलो इस पते पर चलना।" कहते हुए सारा ने पता लिखा हुआ काग़ज़ का टुकड़ा उसे थमा दिया।

रिक्शे पर साराह सवार हो कर जब स्टेशन से बाहर आई तो सारा ने अजीब नज़ारा देखा। सड़क के बीचो बीच लोगों की भीड़ लगी हुई थी। एक दूसरे पर सब चढ़े जा रहे थे और सबके हाथ में कपड़े का झोला था। " मेरा पांच किलो, मेरा दस किलो, मेरा भी दस किलो भर दे झोले में।" बड़ी हैरान परेशान सारा ने देखते हुए रिक्शे वाले से पूछा, "ये क्या हो रहा है भैय्या?" "अरे ...सब जाहिल हैं मेमसाब, पैसा है अक्ल नही है। जहां एक दो लोग किसी ठेले के पास खड़े दिखे नहीं कि सब वहां जुट जाते हैं और नीयतछुट्टे सब पैसे की गर्मी दिखाते हुए सब खरीद लेते हैं ये भी नहीं देखते कि वो चीज़ हमारे किसी काम की है भी या नहीं। इसी नीयतछुट्टेपन में कभी दस बीस किलो कच्ची इमली या कच्चा कोहड़ा खरीद के घर ले जाते हैं क्योंकि बिना देखे समान झोले में भरवा लेते हैं।" 


आगे बढ़ते हुए अपने इर्द गिर्द साराह ने नज़रें फेरी तो पाया कि उस उतने दायरे में कोई स्कूल कोई कॉलेज नहीं है। लेकिन शहर के हर गली हर नुक्कड़ पर एक पान की दुकान और चाय की टपरी ज़रूर है और हर नुक्कड़ पर लोग बैठे वक्त को चाय की चुस्कियों में और गुटखे की पुड़िया फाड़ने में उड़ा रहे हैं। हैरान होने वाली बात ये थी की सुबह के दस बज रहे थे और दुकानें खुली नहीं थी अब तक और दूसरी बात की उस पूरे इलाके में न तो कोई लड़की न औरत नज़र आई।

बहरहाल साराह अपने तय किए पते पर पहुंच गई।


वो एक दो मंजिला मकान था जिसके मालिक डॉ हाशमी थे। साराह के पहुंचते ही उन्होंने उसका इस्तकबाल किया और उपर की मंजिल पर उनका रहने का बंदोबस्त भी दिखाया। 

" डॉक्टर साहब यहां कोई स्कूल कॉलेज नहीं है क्या? मैंने रास्ते में न कोई पोस्टर न किसी स्कूल का इश्तहार ..... कुछ भी नहीं देखा न ही स्कूल कॉलेज में जाते बच्चे दिखे! " 

" होंगे तब न दिखेंगे। यहां सिर्फ दो ही स्कूल है एक मिशनरी का जो शहर से बहोत दूर है और दूसरा कुछ एक दो साल पहले एक साहब ने खोला है। उसमें बहुत कम बच्चे जाते हैं।"


" ऐसा क्यूं? यहां तो बड़ी तादात में लोग हैं वो भी अच्छे खासे घर के" साराह ने पूछा।


"ऐसा इसलिए की यहां लड़कियां पढ़ती नहीं है वो सिर्फ घर के काम काज में ट्रेंड की जाती हैं। हालांकि वो बहुत टैलेंटेड। दूसरा ये कि लड़कों को अपने बाप की गद्दी ही संभालनी है इसलिए उन्हें पढ़ने लिखने की जरूरत ही नहीं है।" हाशमी साहब ने तंजिया जवाब दिया।


"हम्म!! मैं सारा माजरा समझ गई । यहां जहालत का बसेरा है। कोई बात नहीं अब मैं यहीं रह कर कुछ करूंगी।" साराह ने मन ही मन सोचते हुए खामोशी इख्तियार कर ली।

"आप तो अपने किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में यहां आईं है न? वैसे कितने दिन चलेगा आप का ये प्रोजेक्ट?" डाॅ हाशमी ने पूछा।

" जी! मेरा प्रोजेक्ट तीन महीनों में पूरा हो जाएगा। इस प्रोजेक्ट से हमें ये पता चलेगा की एजुकेशन की किस इलाके में कितनी और किस हद्द तक कमी है। फिर हमारी संस्था एक एनजीओ की मदद से वहां स्कूल खोलने का, अच्छे टीचर्स देने का और बच्चों को उनका असली मकाम दिलाने का काम करेगी।" 


दूसरे दिन साराह उस स्कूल का पता ले के वहां पहुंच गई। वो स्कूल किसी आनंद कुमार का था। वहां पहुंच कर साराह ने अपना तार्रूफ उनसे कराया और अपनी बात पूछने लगी। "सर आपके स्कूल में कितने बच्चे हैं इस वक्त? और आपने क्यों और कबसे इस स्कूल को शुरू किया? वगैरह वगैरह....

अभी ये बातें हो ही रहीं थी की शहर के जाने माने वकील शर्माजी अपनी बेटी को लेकर वहां पहुंच गए। आनंद जी ने उनका तार्रुफ साराह से करवाया। तभी साराह की निगाह उनकी बेटी पर पड़ी जो बिल्कुल डरी और सहमी सी वहां खड़ी थी। " क्या नाम है तुम्हारा?" साराह के कई बार पूछने पर भी उसने जवाब नहीं दिया। तब साराह ने वकील साहब से कहा "ये लड़की परेशान है आप इसको मेरे पास शाम को भेज दिया करिए मैं इसको पढ़ाऊंगी।"

वकील साहब राज़ी हो गए। उस शाम वकील साहब की लड़की साराह के घर आई। साराह ने अब उसको समझाया और उसका नाम पूछा। याने बताया "अंजली", फिर साराह ने पूछा "क्या बनना चाहती हो जीवन में?" बड़ी धीमे से कहा " मैं तो बेकार हूं मैं कहां कुछ बन सकती हूं, मेरे अंदर कुछ भी बनने की सलाहियत कहां है?" इतना सुन के साराह को ताज्जुब हुआ, उन्हे समझ आ गया की लड़की अवसाद में है और उसे प्यार से पढ़ाने और समझने की जरूरत है क्योंकि वो जहां से भी पढ़ कर आई थी उसे एहसास कराया जा रहा था की वो किसी काबिल नहीं है।

 तब साराह ने सोचा इस जैसी और भी बच्चियां होंगी जिन्हें मैं गाइड कर सकती हूं। तब साराह ने मन बनाया की वो यहां के बच्चों पर तालीम देने का काम करेंगी। अपना फैसला अपने दोस्तों को जब साराह ने बताया तो उन्होंने उसे वापस आ जाने की सलाह दी। तब साराह ने उन्हें समझाया की यहां पर उस जैसे पढ़े लिखों की ज्यादा जरूरत है।


उसने अंजली के साथ साथ बहुत लड़कियों को अपने घर बुला कर पढ़ना शुरू किया। वहां के लोग उसे बड़ी नफरत की नजर से देखते। उस पर ताना कसते। 

वो अगर अपनी गाड़ी चलाते हुए सड़कों से गुजरती तो बच्ची उसपर हंसते और पत्थर मरते।


साराह धीरे धीरे कदम आगे बढ़ती गई लोग तिलमिलाते गए। एक दिन एक बच्ची उसके पास आई जिसका नाम सबा था। सब ने साराह से कहा" मैडम हमको भी थोड़ा पढ़ा दीजिए हम पढ़ना चाहते हैं। घर वाले मेरी शादी करने वाले हैं जो मैं अभी नही करना चाहती।" साराह ने उसे भी अपनी कोचिंग में शामिल कर दिया। धीरे धीरे तादाद बढ़ती गई और लड़कियों को अपनी मंजिल दिखने लगी।


फिर एक दिन छोटी सी जगह पर शुरू की गई संस्था अचानक बहुत बड़ी होती चली गई। 

वहां पर अब लोग अपनी बच्चियों का नाम लिखाने आने लगे। साराह ने लड़कियों की आंख की पट्टी खोल दी थी। वो अब घरों में कैद नहीं थी वो अपनी ऊंची उड़ान भरने के लिए तैयार थी। लोग अभी भी साराह को परेशान करते। लेकिन वो थकी नहीं ना ही डरी।


साराह ने लड़कियों के अन्दर हिम्मत और जोश भर दिया था। 

पच्चीस साल बाद एक छोटी सी कोचिंग ने एक बड़ा रूप ले लिया। साराह हर साल डॉक्टर , इंजीनियर ऑफिसर सब यही से निकालती है।


पच्चीस साल बाद आज के दिन.....।


प्रोग्राम से आने के बाद रॉकिंग चेयर पर साराह की आंख लग गई थी जो अचानक कॉल बेल बजने पर खुल गई। दरवाजा खोलने पर सामने प्रेस के लोग खड़े मिले जो उनका इंटरव्यू लेने के लिए खड़े थे। साराह ने अंदर बुला के इंटरव्यू जैसे ही शुरू किया वैसे ही एक बड़ी चमचमाती हुई कार उनके घर के पास आकर रूकी। उसमें से एक लड़की बाहर निकली जो बेहद स्मार्ट थी। वो सीधे अंदर आई और सारा के पैर छूते हुए बोली " नमस्ते मैम! पहचाना मुझे? मैं अंजली, अब डॉक्टर अंजली हूं। आप की कोशिशों की वजह से मैं आज ये बन पाई हूं। आपकी किताब पढ़ी, आपकी तपस्या एक प्रेरणा बन कर अग्रसर रहेगी इस किताब के माध्यम से।" "और तुम इसी शहर के दहकते अंगारों में खिली एक महकती गुल के रूप में मेरी दी हुई तालीम को एक मायने दे रही हो अंजली।" कहते हुए सारा की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने अंजली को गले से लगा लिया। 


ये हमारा फर्ज़ है की समाज से ली हुई चीज़ हमें उसे लौटाना चाहिए। साराह ने अच्छी और ऊंची तालीम पाई सो उसने उसे पैसे कमा कर नहीं बल्कि अगली पीढ़ियों को बेहतर तालीम दे के एक टीचर होने का सच्चा फर्ज़ निभाया है। 



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