Dr. A. Zahera

Inspirational

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Dr. A. Zahera

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तरबियत!!

तरबियत!!

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तालीम अगर बर्ताव में न दिखे तो सारी डिग्रियां महज़ काग़ज़ के टुकड़े हैं। लेकिन अफसोस हम सफलता या कामयाबी नापने का पैमाना डिग्री या पैसों को ही समझते और मानते हैं। क्यों नहीं हम इंसानियत के ऊंचे दर्जे को कामयाबी का पैमाना बनाते? कामयाब का मतलब बहोत पैसा होना नही ..... कामयाब होने का मतलब क्यों नही खुशअख़लाक होना हो सकता? क्यों नही एक दूसरे से मीठा बोलना हो सकता? एक इंसान को इंसान समझना हो सकता? क्यों नही एक बेहतरीन और ऊंची सोच हो सकती?

डिग्रियां अच्छी नौकरी, अच्छा रोज़गर दिला सकतीं हैं, लेकिन ये कत्तई ज़रूरी नही की एक अच्छा इंसान भी बना सकें। पैसा ज़रूरतें ख़रीद सकता है लेकिन तहज़ीब, तरबियत, और अख़लाक नहीं। कौनसी कामयाबी जिंदगी के बाद भी दिखती और कायम रहती है? कामयाबी का मतलब तब असल मायनों में साबित हो जाता है जब एक इंसान को इस दुनिया से जाने के बाद भी अख़लाक और बेहतरीन अमल के लिए याद किया और पूजा जाता है। 


ये कहानी समीना और उसकी दो बेटियां कशिश और कुबरा की है। कशिश बड़ी है और कुबरा छोटी।

समीना का शौहर नवाब एक बहोत कामयाब बिजनेसमैन है। उसके कई कारखाने हैं कुछ अपने ही शहर में कुछ दूसरे शहर में। दौलत में कोई कमी नही थी और तालीम भी बहोत अच्छे कॉलेज से हासिल की थी। वहीं समीना नवाब से कम पढ़ी लिखी थी, किसी स्कूल में साइंस की टीचर थी।


जब समीना की शादी नवाब से तै हुई थी तो उसे लगा था की उसकी ज़िंदगी अब और संवर जाएगी क्यूंकी नवाब उसे बहुत सुलझे हुए इंसान लगे। नवाब का नाम शहर के बड़े लोगों में शुमार होता। घर में काम करने के लिए बहोत मुलाज़िम थे। गाड़ियां, बंगला शानो शौकत के और कई सामान थे। शादी के कुछ दिन बाद तक तो समीना ने अपने आप को जन्नत में होने का एहसास किया लेकिन ये एहसास कुछ ही महीनों का मेहमान ठहरा जब उसने अपनी पहली बेटी कशिश को इस दुनिया में लाया।समाज का एक हिस्सा बहोत खौफनाक सोच का मालिक आज भी है और वो हिस्सा मर्दों का कहलाता जिसकी सोच का खामियाज़ा समाज का दूसरा हिस्सा भोगता है और वो हिस्सा औरतों का कहलाता है। इसी खौफनाक सोच का मालिक नवाब भी था। लड़की के आने की खबर सुन कर उसके चेहरे की रंगत जा चुकी थी। सास के तानों के पत्थर समीना के दिल और जज़्बातों को छलनी किए देते थे। ये कहना भी ग़लत नही होगा की एक औरत ही दूसरी औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है और ये भी समाज के मर्दों वाले हिस्से में आतीं हैं। "हमने तो सोचा था की छोटे नवाब होंगे तो हमारा कुनबा और आगे बढ़ेगा, नाम रोशन करेगा.... लेकिन इस नामुराद ने तो सारे अरमानो पर पानी फेर दिया। जना भी तो लड़की! जो सिवाए बोझ और ज़ीम्मेदारी के और कुछ नही।" समीना की सास हर आने जाने वाले से यही कहके अपने दिल के छाले फोड़ती रहती।


एक रोज़ समीना से बर्दाश्त न हुआ तो उसने बड़े कड़े लहजे में लेकिन तमीज़ के दायरे में रहकर अपनी बात कह ही डाली "अम्मा!! नाम रोशन करना सिर्फ लड़कों के हाथ में नही होता। ये तो लड़कियां भी कर सकती हैं। और रह गई नस्ल और कुनबा बढ़ाने की बात तो ये तो लड़कियां भी उतनी ही शरीक हैं जितना की लड़के। बेशक वो अपने घर खानदान की नस्ल नही बढ़ाती लेकिन जिसके घर जाती हैं उसके खानदान की तो नस्ल बढ़ातीं है ना।" ये सुन कर सास चुप हो जाती।

समीना तानों के बीच भी अपनी बेटी कशिश को बेहतरीन परवरिश और तरबियत देती रहती। दो साल बीते और कुबरा ने दुनिया में अपना क़दम रखा। बस फिर क्या था नवाब ने समीना के साथ साथ दोनो बच्चियों पर भी कहर बरपाना शुरू कर दिया। उनको पैसों का दब दबा दिखाना, जरूरियात से महरूम रखना यहां तक कि स्कूल में दाखिले के लिए भी मना करना शामिल हो गया। समीना किसी तरह अपने बच्चियों के लिए लड़ कर उनको स्कूल में दाखिला दिलवाया। बच्चियां ज़हीन थीं.... स्कूली तालीम के साथ साथ तरबियत और नाम की हिदायतों को भी अमल में लातीं। लेकिन ये सिलसिला बहोत लंबा चलता न दिखा। समीना की सास ने नवाब की दूसरी शादी का फैसला कर लिया और इस फैसले में नवाब की मर्जी को शामिल देख समीना ने अपने वकार और अहम को बिना ज़लील करवाए चुपचाप दोनो बच्चियों को लेके घर से निकल गई।

नवाब ने मां के कहने पे दूसरी शादी करली इस उम्मीद में की लड़का पैदा होगा और हुआ भी यही शादी के एक साल में ही उन्हें बेटा हुआ जिसका नाम सुलतान रखा गया।घर में खुशियों की जैसे बारिश होने लगी। वहीं समीना घर से निकलने के बाद एक किराए दो कमरों के मकान में अपनी बेटियों के साथ रहने लगी।

बेटियों को नेक दिल बनाने में उसने कोई कसर नही छोड़ी। बातों में मिठास, हर किसी से नरमी और मोहब्बत से पेश आना, हर हाल में ऊपरवाले का शुक्र करना और सबसे बड़ी बात कि मां बाप का लिहाज़ और एहतेराम करना। उसने अपने बच्चों को किताबों से सबक लेने के साथ साथ ज़िंदगी से भी सबक लेना सिखाया। जिस दिन उन्हें पता चला की उनके भाई आया है तो वो खुशी से फूले नही समायीं। लेकिन उनकी सौतेली मां ने उन्हें घर में आने से मना कर दिया।

सुलतान अमीरी की छांव में बड़ा होता गया। तरबियत और लिहाज़ को जूते की नोक पे रख कर शान से चलता था। उसे लगता था की बस जिंदगी यही है।


कशिश और कुबरा अब बड़ी हो चुकीं थीं। समीना अपने ही स्कूल में टीचर से प्रिंसिपल हो गई। उसने अपनी बच्चियों के साथ साथ स्कूल के हर बच्चे में भी खुशअखलाकी और मीठा बोलने की, सच बोलने की तालीम दी। उसका कहना था " बच्चों ये तकलीफें, जिंदगी के उतार चढ़ाव हमारे उस्ताद हैं इनसे घबराना नही चाहिए। मौज के खिलाफ तैरना जिंदगी है और तभी आप अपना नाम और मकाम बना सकते हैं क्योंकि मौज के साथ तो हर कोई तैर लेता है। इसके साथ तैरने में कोई कुवत कोई ताक़त और कोई हिकमत नही लगती। हमें ये मौज के खिलाफ तैरना ही हिम्मत देता है और ताक़त भी।"


वक्त गुजरता गया। कशिश और कुबरा कॉलेज में पढ़ने लगीं। अपनी सहेलियों से बड़े फक्र से अपनी मां का तार्रुफ करातीं और कहती की अपने घर के हम तीन मर्द हैं जो औरत के रूप में है।" इतना कुछ गुजरने के बाद भी तुम लोग इतनी पॉजिटिव कैसे रहती हो?

कशिश कहती "मेरी अम्मी कहती हैं की जिसके हाथ में किताब और तालीम के औज़ार होते हैं उनके ज़ेहन से जाहीलियत का बारूद और कमज़रफी की बंदूक अपने आप गायब हो जाते हैं और मोहब्बत घर कर लेती है। शायद हमारी तरबियत और तालीम सही है इसलिए हमें पॉजिटिव रहना आता है।"


समीना ने कभी पैसों और सिर्फ कागज़ी डिग्रियों को तरजीह नही दी। वो समाज को बेहतर से बेहतरीन करने में एतबार करती थी। एक बार वो कही किसी कॉन्फ्रेंस में जाने के लिए ट्रेन से सफर कर रही थी की तभी एक छोटी लड़की फटे हुए कपड़ों में ट्रेन की बर्थ के नीचे लेटी हुई थी। चेहरे से लग रहा था की बहोत भूखी है कई दिनों से खाना नहीं खाया है किसी से डरी हुई है। समीना ने उसे अपने पास बुलाया और कुछ खाने को दिया फिर उससे उसके हाल के बारे में पूछा। उसने बताया " मेरी सौतेली मां है वो मुझे मारती है खाना नहीं देती छोटा भाई भी है उसे मुझे छूने भी नही देती, इसलिए मैं इस ट्रेन से अपनी मां के पास जाना चाहती हूं।" समीना को उस पर तरस और प्यार दोनो आया और उसने उसे कुछ पैसे दे के वापस घर जाने को कहा। समीना जब अपने स्टेशन पर उतरी तब उसने देखा की वो छोटी बच्ची उसका पल्लू पकड़े उसके पीछे चली आ रही है। समीना के पूछने पर उसने कहा, " मैं अपनी अम्मा को तलाश करने निकली थी और वो मिल गई वो आप हैं मैं आप के साथ चलूंगी।" समीना ने उसे अपने साथ लिया और एक जगह ले गई जहां वो इस जैसे कई बच्चियों की मां थी। वो एक यतीमखाना था जहां ऐसी बच्चियों की तालीम और जिंदगी की सारी जरूरियात का खर्चा समीना देती थी और हर महीने आकर उनपर अपना प्यार लुटाती थी। इस बच्ची का नाम नैना था। उसने समीना को आंसू भरी आंखों से शुक्रिया कहा और खुशी से वहां रहने लगी।


दिन गुजरे, महीने बने, साल में तब्दील हो गए और समीना का आखरी वक्त आया। उसने नवाब से मिलने की आरज़ू की।नवाब भी बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ा अपने कर्मों को अपने नामुराद बेटे की शकल में देखता और खुद को कोसता। जब वो समीना के घर पहुंचा तो उसने एक अलग दुनिया देखी बहोत सारी ऐसी शक्लें जो उसके लिए दुआएं कर रहीं थी। आंसुओं से दामन भिगो रहीं थी। और ये शहर के पैसे वाले लोग नही थे बल्कि वो थे जो सचमुच समीना से मोहब्बत करते थे। उसकी बेटियां, उसकी यतीम बेटियां जिसको अपनी ममता को चैन दी, जीने के लिए तालीम का सहारा दिया और सोचने के लिए इल्म की पुख्तगी दी, एक सच्चे इंसान होने की मिसाल कायम कर गई समीना।


वहां नवाब ने ये जाना की पैसों से आप कुछ नही ख़रीद सकते.... एक ऐसा लम्हा भी नही जो उसने समीना के पास पाया। वो पैसे वाला ग़रीब था। उसके जैसी ग़ुरबत आज समाज में बहुतों के पास है। वही हम अपनी अगली नस्ल में पहुंचा रहे हैं। आज की नस्लों को हमने एक ही चीज़ सखाई वो है फायदा। और ये इसलिए हो रहा है क्योंकि समाज का एक हिस्सा अपनी सोच से लाचार है क्योंकि शायद उसने भी यही परवरिश पाई है।

आज हमने अपनी नस्लों का रिश्ता किताब से अलग करके टेक्नोलॉजी से जोड़ दिया जो सिर्फ मतलब की बात समझ सकते हैं।

समीना जैसी औरतें भी हैं और कल्पना चावला जैसी भी हैं किसी का नाम दर्ज है तो किसी का नही लेकिन अपने अपने इरादों के आसमान तक पहुंचती हैं।


तालीम सिर्फ नौकरी के लिए नही बल्कि इंसान को इंसान बनने के लिए लेनी चाहिए और यही सीख हमें अपनी पीढ़ी में रवा करनी चाहिए।



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