परी
परी
मैं दिल्ली से मुंबई जाने के लिए फ्लाइट में बैठा। मेरे बगल वाली सीट पर लगभग पच्चीस साल की युवती पहले से बैठी हुई थी।
लगभग दो घंटों का सफ़र था, तो मैं अपने साथ लाया हुआ जासूसी उपन्यास निकालकर पढ़ने लगा। तभी वह युवती उपन्यास का कवर पेज देखकर बोल उठी,
"यह तो वही उपन्यास है न, जिसके अंत में लड़की का क़ातिल उसका नौकर निकलता है...!"
उसकी इस बात पर पहले तो मैंने उसकी ओर थोड़ा चिढ़कर देखा। लेकिन वह युवती मुस्कुराने लगी। तो मैं भी हँस दिया।
फिर हम दोनों बातें करने लगे। मुझे मालूम नहीं था कि ये बातचीत शुरू होकर कहाँ जाएगी। किसी भी बातचीत से पहले शायद ही किसी को पता होता हो ! बात से ही कोई बात निकलती है और फिर कई बार बात दूर तक जाती है।
लगभग डेढ़ घंटे बाद हम दोनों को अहसास हुआ कि बिना रुके बातें करते हुए हम एक दूसरे को पसंद करने लगे हैं। फिर हमने अपने फ़ोन नंबरों का लेन देन किया।
मैं आज सोचता हूं कि मैं कितना खुशनसीब हूं कि मेरे दो बच्चों की माँ मुझे इस धरती पर नहीं, आसमान में मिली थी। इसलिए मैंने बच्चों को सिखाया कि अपनी माँ को "परी माँ" बोला करें, जैसे मैं उसको "परी" बोलने लगा था।