Shagufta Quazi

Romance Tragedy

4.7  

Shagufta Quazi

Romance Tragedy

प्रेम पाती

प्रेम पाती

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विशाल सुसज्जित भव्य पंडाल में कवि सम्मेलन में रसिक श्रोताओं की भीड़ को संबोधित करते युवा कवि रवि श्रृंगार रस से ओतप्रोत रचना सुना रहे थे। प्रथम पंक्ति में अति सुंदर युवती विराजमान थी। वह नख-शिख श्रृंगार किये हुए थी। जो उसकी सुंदरता में चार-चाँद लगा रहे थे। कवि जितनी तन्मयता, उत्सुकता एवं उत्साह से कविता सुना रहे थे, युवती भी उतनी ही तन्मयता, उत्सुकता एवं उत्साह से आनंदित हो सुन भी रही थी और मन ही मन कुछ गुन भी रही थी। कविता पढ़ते समय बीसियों दफ़ा कवि तथा युवती की आँखे चार होती तो कवि बड़ी तत्परता से निगाहें पंडाल में दूर तलक फैली रसिक श्रोताओं की भीड़ पर केंद्रित करते। वहीं युवती की आँखे लाज से झुक अपने ही हाथों की उंगलियों को आपस में उलझते देख सुलझाने लग जाती।

तालियों की ज़ोरदार गूंज के बीच कवि ने कविता समाप्त कर मंच पर अपना स्थान स्थान ग्रहण तो किया लेकिन निगाहें प्रथम पंक्ति में बैठी युवती पर बार-बार पड़ती रही। अन्य कवियों ने बारी-बारी विभिन्न रसों पर काव्य पाठ किया। कवि सम्मेलन के समापन पश्चात कुछ रसिक श्रोता मंच पर ऑटोग्राफ़ लेने पहुँचे। युवती भी मंच पर पहुँची, उसने कवि रवि के सामने पलकों में छिपे निवेदन को ख़ामोश लबों से बयां कर सुंदर कलाइयों में थामी खूबसूरत डायरी व पेन आगे बढ़ा दी। कवि ने हाथ आए सुनहरे मौके को भांप डायरी लेने हाथ आगे बढ़ाया तो दोनों की उंगलियों के स्पर्श से कुछ तरंगे कवि के पूरे शरीर में प्रवाहित हुई। उन्होंने ऑटोग्राफ़ दिया, बग़ले झांकी कहीं कोई उनकी ओर देख तो नहीं रहा?इस बात को निश्चित कर डायरी में अपना मोबाइल नंबर दर्ज कर डायरी युवती के हाथ सौंप दी। उस पल फिर से दोनों की उंगलियों के स्पर्श से कुछ तरंगे युवती के शरीर में प्रवाहित हो अनकहा संदेश प्रवाहित करने में कामियाब हो गई। भीड़ के बीच असमंजस की स्थिति में दोनों ने स्वयं को संयत कर अपनी राह ली।

 घर पहुँचकर युवती कमरे में पलंग पर पेट के बल लेटकर डायरी पर अंकित ऑटोग्राफ़ को निहारने लगी तो साक्षात कवि महोदय की छवि डायरी के पन्नों पर काव्य पाठ करते नज़र आई। उनकी आँखें उसे ही निहार रही थी। अपनी ही सुंदरता से शत-प्रतिशत मेल खाती श्रृंगार रस से ओतप्रोत कविता का रसास्वादन करते उसके दिल ने आवाज़ लगाई , "स्मृति, हो न हो कवि ने तुम्हारे सौंदर्य पर मोहित होकर उसी पल यह कविता रची है। "नारी अपने सौदर्य की प्रशंसा सुन ख़ुश होती है , यही नारी सुलभ स्वभाव है। वह सुंदरता की प्रशंसा में रची कविता के एक-एक शब्द से स्वयं के सौंदर्य की तुलना करने में तल्लीन थी कि माँ ने आवाज़ लगाई, " स्मृति- स्मृति अरे क्या कर रही हो? चलो खाना लगा दिया है। "माँ की आवाज़ सुनते ही वह स्वप्नलोक से जाग वास्तविक लोक में प्रवेश कर गई। भूख प्यास मर चुकी थी। झूठा बहाना बना दिया, माँ, " मैं सखियों संग खा आई हूं, आप खा लीजिए। "

डायरी की स्क्रीन पर कवि की छवि देख, उंगलियों के स्पर्श से निर्मित तरंगे उसे रोमांचित व विचलित कर रही थी। ख़्वाबों में खोई जाने कब उंगलियों ने डायरी पर अंकित नंबर मोबाइल पर डायल कर दिया। कवि का हाल भी स्मृति जैसा ही था, बेचैनी और इंतेज़ार - - मन ही मन वे फ़ोन की प्रतीक्षा कर रहे थे। अनजाने नंबर को स्क्रीन पर देख धड़कते दिल से फ़ोन उठा हेलो--हेलो कहते रहे, किंतु प्रत्युत्तर में धड़कते दिल से निकली ज़ोर ज़ोर से चलती साँसे कानों में गूंजी तो कवि ने फिर वही पंक्तियां दोहरा दी। अल्हड़ मदमस्त यौवन प्यार के उन्माद से ह्रदय की धड़कनें तथा सांसो की हिरनी की गति से दौड़ने लगी, जो कस्तूरी की महक की तरह कवि के कानों से होते हुए ह्रदय में प्रवेश कर उसे दीवाना बना रही थी। उन्होंने लरज़ते लबों से कहां, "आपका नाम?" युवती ने लजाई आवाज़ में कहा, "स्मृति। "कवि ने "स्मृति" नाम को सदा के लिए अपनी स्मृति में अंकित कर कहा, "स्मृति"- - - कवि के लबों से अपना नाम सुन वह रवि के प्रकाश से जगमगा उठी। कुछ पल मौन संवाद तथा सांसों का संवाद चलता रहा।

वक्त के गुज़रने के साथ मौन संवाद ने मोहब्बत के नग़मों का रूप ले लिया। आहिस्ता- आहिस्ता प्यार परवान चढ़ने लगा। दुनिया वालों के सामने प्यार के रिश्ते को पति-पत्नी का रिश्ता बनाने दोनों सात फेरे ले सात जन्मों के बंधन में बंध गए। दोनों के प्यार से सींची बगिया में पारिजात और सुमन दो फूलों के खिलने से बहार आ गई। रवि स्मिता सांसारिक दिनचर्या में व्यस्त हो सम्पूर्ण समर्पण से संसार रूपी रथ के दो पहिए बन आगे बढ़ते रहें। समय के साथ बच्चों की शिक्षा विवाह आदि ज़िम्मेदारी भी निभा दी। खुशियां अंजुली में समाए समा न रही थी। बसंत में खिली बगिया को वक्त की नज़र लग गई। स्मृति गंभीर बीमारी की चपेट में आ गई। रवि ने उसकी सेवा-सुश्रुषा में जी जान लगा दिन- रात एक कर दिये। किंतु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।

नियति का खेल , खिली खिली रहने वाली स्मृति अब मुरझाने लगी। दिन, महीने गुज़रने के साथ रवि के हृदय में वास करने वाला सुंदर पुष्प मुरझा गया। स्मृति के जाने के बाद रवि अपने जीवन के ख़ालीपन को भर ही न पाया। वह स्मृति की यादों की कैद से बाहर ही न निकल पाया। बेटा-बहु, बेटी- दामाद, नाती-पोती सब के प्रयास विफ़ल साबित हुए। यहां तक की कविता लिखना और कवि सम्मेलनों में जाना भी उसने छोड़ दिया। बच्चे उसे ख़ुश रखने के हर संभव प्रयास करते, साथ ही उसे कविता लिखने को प्रेरित करते लेकिन उसपर कोई असर न होता। इन सब में तीन साल गुज़र गए।

स्मृति की तीसरी पुण्यतिथि पर रवि को उसके परम मित्र द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन का न्योता मिला तो उसने अस्वीकार कर दिया। किन्तु मित्र ने उसकी एक सुनी और तुग़लकी फ़रमान जारी कर दिया कि तुम्हें मंच पर आकर एक कविता तो पढ़नी ही है। मित्र के अनुरोध पर रवि ने विरह वेदना से व्याकुल विरह रास की प्रेम पाती स्वर्गवासी पत्नी के नाम लिखी। प्रेम पति हाथ मे लिए चल पड़ा पत्नी को श्रद्धान्जलि देने। असतांचल को चला सूर्य क्षितिज में लालिमा बिखेर रहा था, पक्षी कोलाहल करते अपने-अपने घौंसलों का रुख़ करते बादलों में विचार रहे थे। और रात-रात वह तो बादलों सांग अपनी सुरमई आभा से शाम की लाली को शांत करने को उतावली हो रही थी।

अपनी बारी आते ही प्रेम पाती हाथ में थामें रवि माइक पर खड़ा हो उसे बांचने लगा। कविता ख़त्म होते माइक को थामते थामते वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। मंच पर हलचल मच गई। साथी कवि व आयोजकों ने उसे उठाया। मुँह पर पानी के छींटे मारे, ह्रदय की गति को नाप जो थम गई थी, नाड़ी तपासी जो बंद हो चुकी थी। शरीर ठंडा पड़ने लगा था किंतु प्रेम पाती मुट्ठी में कैद थी।


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